नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री हैं. इसी महीने उन्होंने चार साल पूरे किए हैं और चाहते हैं कि अगले वर्ष जब वे विधानसभा चुनाव में जाएं तो उन्हें फिर जीत हासिल हो. नीतीश ने हाल में सत्रह सीटों के लिए हुए उपचुनाव में  केवल तीन पर जीत हासिल की, पंद्रह में वे हार गए. दो सीटें भाजपा के पास गईं. कह सकते हैं कि नीतीश कुमार को पांच सीटें मिलीं. हारे तो वे लालू यादव और राम विलास पासवान के गठजोड़ की वजह से, लेकिन एक कारण और था जिसके लिए नीतीश कुमार की तारी़फ की जानी चाहिए. वह कारण था सांसदों और विधायकों के रिश्तेदारों टिकट न देना. कम से कम नीतीश कुमार ने परिवारवाद के खिला़फ कार्यकर्ताओं के लिए अवसर बनाने के लिए जो साहस दिखाया, वह प्रशंसनीय है. यह अलग बात है कि उन्हीं की पार्टी के उन लोगों ने चुनाव में धो़खा दिया, जो अपने बेटे या अपनी पत्नी को चुनाव लड़ाना चाहते थे.
लेकिन केवल एक यही वजह नहीं थी नीतीश कुमार के दल जनता दल (यू) की हार की. कई वजहें और रहीं, पर चार साल पूरे होने पर पहले उन पर नज़र डालें, जो अच्छे कामों की श्रेणी में आते हैं. नवंबर 2005 से अक्टूबर 2009 के बीच राज्य इन्वेस्टमेंट बोर्ड को जो प्रस्ताव मिले, उनमें से दो सौ बीस प्रस्ताव स्वीकृत हुए.  अब तक राज्य में एक हज़ार बत्तीस करोड़, बयासी लाख का निवेश हो चुका है. जिस बिहार से गुज़रने में लोग डरते थे, वहां निवेश होना अच्छा लक्षण माना जाएगा.

2005 में बिहार के सरकारी अस्पतालों में प्रतिमाह औसतन 39 मरीज़ आते थे, पर स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की वजह से अगस्त 2009 में यह संख्या बढ़कर 4500 हो गई. गांवों को शहर से जोड़ने के लिए मुख्यमंत्री ग्राम सड़क योजना लागू की गई. बड़े पैमाने पर सड़कों का निर्माण जारी है. पंचायतों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण दिया गया. यह नीतीश कुमार के सबसे क्रांतिकारी क़दमों में माना जाएगा. कांट्रेक्ट पर शिक्षकों की नियुक्ति भी की गई. बिहार में आमतौर पर माना जाता है कि क़ानून व्यवस्था की हालत पहले से बहुत सुधरी है.

खुद नीतीश कुमार जनता दरबार लगा लोगों की समस्याएं सुनते हैं. नीतीश कुमार ने दो राजनैतिक काम भी किए. उन्होंने राम विलास पासवान के जनाधार में सेंध लगाने के लिए महादलित आयोग बनाया और लालू यादव के जनाधार को तोड़ने के लिए अल्पसंख्यकों के लिए ढेर सारी योजनाएं प्रारंभ कीं. नीतीश कुमार ने पहले विकास यात्रा के माध्यम से जनता का मन टटोला, जिसका फायदा उन्हें लोकसभा चुनावों में मिला. अब विधानसभा चुनावों से पहले दिसंबर-जनवरी में वे फिर विकास यात्रा पर निकलने वाले हैं. लड़कियों के लिए साइकिलें उन्होंने बंटवाई. नीतीश कुमार का रिपोर्ट कार्ड, जिसे उन्होंने खुद जारी किया, का़फी अच्छा असर डालता है.
पर रिपोर्ट कार्ड अच्छा था तो वोट क्यों नहीं मिला. क्यों अट्‌ठारह उपचुनावों में अपने गठबंधन के साथ वे केवल पांच सीटें ही पा सके. इसी का उत्तर नीतीश कुमार तलाश रहे होंगे. उन्हें मदद मिले, इसलिए कुछ तथ्य उनके सामने रख रहे हैं. नीतीश कुमार को तलाशना चाहिए कि जो सड़कें वे बना रहे हैं, उनकी गुणवत्ता क्या है, क्योंकि एक तरफ सड़कें बन रही हैं और दूसरी तरफ वे टूट रही हैं. सड़कों ने शुरुआत के समय नीतीश कुमार को वाहवाही दी थी, पर अब जब वे टूटने के रास्ते पर हैं तो नीतीश कुमार को समझना चाहिए कि उन्हें क्या मिलेगा. विकास के काम में कमीशऩखोरी बढ़ी है, यह पटना में आमतौर पर कहा जा रहा है.
लाख दावों के बाद भी कंकड़बाग कॉलोनी से जलभराव की समस्या को दूर नहीं किया जा सका है और दूसरी ओर बिजली की समस्या का समाधान नहीं निकल पाया है. कांटी और बरौनी के थर्मल पावर हाउस को ठीक करने का काम अभी चल ही रहा है. सरकारी वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार इतना घुस गया है कि ज़्यादातर अनाज गोदामों से बाज़ार में पहुंच रहा है.
अ़फसरशाही चरम पर है. विधायकों की छोड़ दीजिए, मंत्री की बात भी अ़फसर नहीं सुनते. और यह तब हो रहा है जब चुनाव सिर पर है. अगड़ी जातियों ने, जिनमें भूमिहार, ब्राह्मण व राजपूत प्रमुख हैं, नीतीश को मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया था, पर अब उनका भरोसा नीतीश कुमार में कम हुआ है. दूसरी ओर यादवों का एक बड़ा हिस्सा नीतीश कुमार के साथ आया था, पर अब दिखाई दे रहा है कि वे लालू यादव के साथ वापस जा रहे हैं. उनमें बिखराव कम हो रहा है.
यद्यपि मुसलमानों के लिए बहुत सी योजनाएं नीतीश कुमार ने लागू की हैं, लेकिन इनका झुकाव लालू यादव और कांग्रेस की ओर ज़्यादा है. पिछले चुनाव में मुसलमानों ने बड़ी संख्या में लालू यादव का साथ छोड़ दिया था, जो उनकी हार का बड़ा कारण बना था.  कांग्रेस पहले से ज्यादा मज़बूत दिख रही है. अगर झारखंड में कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनी तो उसका बिहार पर बड़ा असर होगा.
नीतीश की सरकार और नीतीश कुमार की पार्टी के भीतर पूरा तालमेल नहीं है. आए दिन कार्यकर्ताओं और मंत्रियों के बीच झमेलों की खबरें आ जाती हैं. गठबंधन में नीतीश कुमार की सहयोगी भाजपा है, जो किसी भी स्थिति में मुस्लिम समर्थक योजनाओं का समर्थन नहीं करती. झारखंड चुनाव के साथ ही बिहार में नीतीश कुमार और भाजपा के बीच समीकरण फिर तनावपूर्ण हो जाएंगे. बिहार में चीनी मिलों के न लगने का असर भी रोज़गार और गन्ना किसानों पर सीधा देखा जा सकता है.
राम विलास पासवान ने दलित एकता की रणनीति अपनाई है और लालू यादव की तरह वे अपना सारा समय बिहार में दे रहे हैं. नीतीश कुमार के लिए यह खतरे की घंटी बन सकते हैं, या कहें कि बन गए हैं.
भोला सिंह बिहार के सांसद हैं. उन्होंने प्रेमचंद की एक कहानी सुनाई, जिसमें कहानी के नायक के बच्चे पैदा होते हैं. उसका कोई बच्चा कब, कैसे और कहां पैदा होता है, उसे फिक्र नहीं. कौन बीमार होता है, परवाह नहीं. और कौन मर जाता है, इसकी चिंता नहीं. वह निर्विकार और वीतराग हो सब देखता रहता है.
भोला सिंह का कहना है कि नीतीश प्रेमचंद की कहानी के नायक की भूमिका में आ गए हैं. उन्होंने इतनी योजनाएं शुरू कर दी हैं कि उन्हें याद ही नहीं है. कौन सी चल रही है और कौन लड़खड़ा रही है, पता नहीं है तथा कौन सी योजना मर रही है, इसकी जानकारी नहीं है. यह अतिशयोक्ति हो सकती है, पर अगर इसमें ज़रा भी सच्चाई है तो नीतीश कुमार को आंखें खोल लेनी चाहिए.
क्या नीतीश कुमार ने आलोचना सुनना बंद कर दिया है? उनके साथियों का कहना है कि अगर उन्हें मनमा़फिक बात न कही जाए तो वे नाराज़ हो जाते हैं. जिन नीतीश कुमार को हम जानते हैं, वे ऐसे नहीं थे. अभी भी बिहार का एजेंडा तय करने की ताक़त उनमें है. अगर वे यह कर पाए तो बिहार फिर उनका है, और अगर लालू यादव और राम विलास पासवान ने एजेंडा तय किया तो बिहार उनका होगा, नीतीश कुमार का नहीं.

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