ऐसे चंद ही व्यवसाय हैं, जिन्हें एक ऐसे सम्मानजनक ओहदे से नवाज़ा जाता है जो पद के बाद भी जीवंत रहता है. पुजारी, न्यायाधीश, सैन्य सेवा अधिकारी, अध्यापक और डॉक्टर (अकादमिक और चिकित्सा दोनों क्षेत्रों में) आदि इसी दायरे में आते हैं. पत्रकार (यहां तक कि संपादक भी) और राजनेता (कैबिनेट मंत्री सहित) यदि विजिटिंग कार्ड किसी को देते हैं तो यह उनके लिए हास्यास्पद स्थिति को आमंत्रण देने जैसा है. भारतीय जनता मीडिया और राजनीति के बारे में अनिश्चित विचार रखती है. वह हमारे क़ानून के संरक्षकों, ज्ञान और सुरक्षा का सम्मान करती है. पूर्व राजनयिकों के बीच एक नई प्रवृत्ति ने जन्म लिया है, अपने नाम के पहले राजदूत शब्द जोड़ने का. यह चलन हमारे यहां अमेरिका से आया है, लेकिन यह उपलब्धि के तौर पर हासिल की गई उपाधि की अपेक्षा अपनी असफलता की खीज में छीनी गई उपाधि ही लगती है.

अहं और झूठे स्वाभिमान के चलते कुछ नेता अपने नाम के आगे डॉ. शब्द का इस्तेमाल करते हैं, जिसकी कुछ ख़ास अहमियत नहीं होती. यह उपनाम उन्हें किसी विशेष अकादमिक उत्कृष्टता के लिए नहीं मिलता, बल्कि यह एक हताश संस्था की ध्यानाकर्षण की कोशिश है.

ऐसी संस्थाएं इन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि के तौर पर काग़ज़ का बेकार टुकड़ा ही देती हैं. हालांकि जब तक हम अपने राजनेताओं से आला दर्ज़े की ईमानदारी की अपेक्षा नहीं करते, इन सबसे ज़्यादा फर्क़ नहीं पड़ने वाला है. लेकिन जब किसी शख्स के पास बेहद सम्मानीय दायित्व होता है तो उसमें विश्वास भी व्यक्त किया जाता है. यह विश्वास सामूहिक तौर पर भाईचारे को प्रभावित करता है.
आम जनता जो बातें 6 दिसंबर 1992 से ही जानती है, उसे हमें बताने के लिए न्यायाधीश एम एस लिब्रहान को न तो 17 वर्षों और न ही हज़ारों पृष्ठों की आवश्यकता थी. बाबरी मस्जिद रात के अंधेरे में नहीं गिराई गई. यह धीरे-धीरे, पत्थर दर पत्थर, रविवार को रवि (सूरज) की किरणों में, सैकड़ों पत्रकारों के सामने और अयोध्या के चारों ओर ख़ुशी मना रहे सैकड़ों कारसेवकों के सामने गिराई गई. मस्जिद चंद मिनटों में डायनामाइट से नहीं गिराई गई. उसे लोहे की छड़ों और फावड़े से ध्वस्त किया गया.
यह ज़ाहिर है कि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ नेता वहां मौजूद थे, लेकिन साथ ही वे वहां कारसेवक के तौर पर थे. अटल बिहारी वाजपेयी वहां नहीं थे, लेकिन वे लखनऊ के नज़दीक ही थे. पर वह पार्टी के निमंत्रण को अस्वीकार करने में असक्षम थे. समाचारपत्रों ने अगले दिन और पत्र-पत्रिकाओं ने अगले हफ्ते विध्वंस की तस्वीरें छापीं, जिनमें कुछ तो ऐतिहासिक बन गईं. हमें सत्रह साल तक यह इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं है कि विनय कटियार इसके लिए क़सूरवार हैं. वह 6,000 से भी अधिक दिनों से अपनी ज़िम्मेदारी क़बूल रहे हैं.
कुछ दिनों बाद तत्कालीन रक्षा मंत्री शरद पवार को एक समूह द्वारा एक सांसद के घर पर आमंत्रित किया गया, जहां उन्हें 6 दिसंबर पर बनी फिल्म दिखाई गई. लिब्रहान आयोग उस फिल्म की एक झलक देखकर ही अपनी आधी रिपोर्ट तैयार कर सकता था. मीडिया ने भी इन क्रूर दंगों के कवरेज में अपनी व्यापक भूमिका निभाई. श्रीकृष्ण रिपोर्ट ने भी महाराष्ट्र दंगों की असलियत जानने के लिए अपनी रिपोर्ट के साथ कहीं अधिक न्याय किया. हालांकि इसे क्रियान्वित न करने पर सभी पार्टियों की आपसी मिलीभगत ज़िम्मेदार है. बाबरी ध्वंस के व़क्त संदेह का स़िर्फ एक ही सवाल उठा कि जब मस्जिद गिराई जा रही थी तो प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहा राव क्या कर रहे थे? महाराष्ट्र के मौजूदा मुख्यमंत्री के पिता और तत्कालीन गृहमंत्री एस बी चव्हाण क्यों स्थिर, निश्चल और ख़ामोश बैठे रहे?
अयोध्या में आक्रमण शुरू हो चुका है, जब यह शब्द हवा में तैरा तो सदमे की लहर पूरी दिल्ली में दौ़ड गई. प्रधानमंत्री के आवास के फोन की घंटियां बजने लगीं, इस उम्मीद में कि क़ानून व्यवस्था लागू करने और राजनैतिक एवं नैतिक दायित्वों को निभाने के लिए वह राज्य के अधिकारों का इस्तेमाल करेंगे.उस व़क्त प्रधानमंत्री के निजी सचिव की तऱफ से भयावह प्रतिक्रिया मिली कि प्रधानमंत्री फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं या गहरी नींद में सो रहे हैं. यह एक झूठ था. राव की निष्क्रियता और चव्हाण का सहयोग स्वाभाविक था. लिब्रहान जान-बूझकर हेराफेरी एवं अनिर्दिष्ट जांच एजेंसियों पर दोष मढ़कर राव का बचाव करते हैं.
हर कोई जानता था कि उस समय क्या चल रहा था. दूसरों की अपेक्षा आईबी के अधिकारियों को तो सारी बातें और भी बेहतर तरीक़े से मालूम थीं. राव ने स़िर्फ शाम को कैबिनेट की मीटिंग बुलाई, वह भी तब, जबकि बचाने के लिए कुछ रह नहीं गया था, यहां तक कि प्रतिष्ठा भी. इस समय तक घृणा की आग मुंबई और पूरे देश के दर्जनों शहरों को जला रही थी. इलज़ाम, इनाम और सज़ा इन सभी को ताक पर रख दिया गया. जिन्होंने (नौकरशाह और पत्रकार) राव के इस नाटक में उनका साथ दिया, उन्हें पुरस्कृत किया गया. कांग्रेसी मुसलमानों की चुप्पी उनके लिए बोनस साबित हुई. राव 1996 तक सत्ता में बने रहे, लेकिन वह न तो शासन और न ही जीवन में शांति से जी सके.
इस लेख के शब्दों से कोई असर नहीं पड़ेगा. एक सरकार उसी आसानी से अतीत के मलवे को कम कर सकती है, जैसे विपक्षी दल सदियों पुरानी मस्जिद को गिरा सकता है. मेरा ख़ेद दुर्लभ तरीक़े से व्यक्तिगत हो जाता है, लेकिन यह क्षण भी दुर्लभ है. मैं राव सरकार का एक छोटा सा हिस्सा था और 6 दिसंबर की रात को ही जब प्रधानमंत्री आवास के चारों ओर बनी पत्थर की दीवार उनके चापलूसों के अलावा सभी के लिए अभेद्य हो गई थी, मैंने इस्ती़फा दे दिया. शब्दों को एक अलग क़िस्म की निष्ठा की ज़रूरत है और शब्दों की दुनिया में वापस आकर ही किसी को सुकून मिलता है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here