महाराष्ट्र विधानसभा में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के  विधायकों की गुंडागर्दी और हिंदी के  नाम पर थप्पड़ कांड के बाद अच्छी-ख़ासी बहस चल पड़ी है. हिंदी के  पक्ष और विपक्ष के  समर्थकों के  बीच तलवारें खिंच गई हैं, लेकिन अगर हम ठंडे दिमाग़ से विचार करें तो हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता न होने के  पीछे हिंदी के लोग ही ज़िम्मेदार हैं. हिंदी के  लोगों का दिल बेहद छोटा है और वे अपनी ज़रा भी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं. कुछ दिनों पहले मैंने एक लेखक के  उपन्यास पर लिखा और तर्कों के  आधार पर यह साबित किया कि उनका उपन्यास पांच-छह साल पहले आई एक हिट फिल्म की तर्ज़ पर लिखा गया है और पाठकों को उसे गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं है.
मेरा वह लेख एक राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित हुआ. समीक्षा प्रकाशित होने के  पहले यह अ़फसर लेखक मुझे गाहे-बगाहे फोन कर लेते थे और अपनी रचनाओं पर लंबी चर्चा भी करते थे, लेकिन मेरी समीक्षा छपने के  बाद उनका फोन आना बंद हो गया. वह मुझे अपना जानी दुश्मन समझने लगे और अपने मित्रों के  बीच मेरी साख पर ही सवाल खड़े करने लगे. इस बीच कई ख्यातिप्राप्त समीक्षकों ने उस उपन्यास की जमकर तारी़फ कर दी. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि बाद में वे मेरी समझ पर सार्वजनिक रूप से ऊलजुलूल बोलने लगे. लेकिन, उनकी इन बातों से मुझे ज़रा भी दुख नहीं हुआ, क्योंकि जब आप लिखना शुरू करते हैं तो इस तरह के  ख़तरों के  लिए ख़ुद को तैयार रखते हैं और हर लेखक का सोचने-समझने का नज़रिया अलग-अलग होता है.
अब एक दूसरा उदाहरण प्रस्तुत है- अंग्रेजी के  एक युवा उपन्यासकार ने फिल्मी दुनिया के  ग्लैमर के  स्याह पक्ष को सामने रखते हुए एक उपन्यास लिखा. उस उपन्यास का प्लॉट दिल्ली के  जेसिका लाल हत्याकांड से मिलता-जुलता था. मैंने उस पर लिखते हुए इस उपन्यास की कई ख़ामियों की ओर इशारा किया और तर्कों के  आधार पर उसे एक कमज़ोर कृति क़रार दे दिया.  लेकिन अचानक एक दिन मुझे सुखद आश्चर्य हुआ, जब उक्त लेखक ने फेसबुक पर मुझे ढूंढकर पहले मुझे अपना मित्र बनाया और फिर मेरा नंबर लेकर मुझसे बात की. अब हमारी नियमित बात होती है और वह अपने नए लेखन पर हमेशा मेरी राय चाहते हैं. मेरे लिखे पर अपनी बेबाक़ राय देते भी हैं.
उक्त दो उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि इससे हिंदी और अंग्रेजी के लेखकों की मानसिकता को समझा जा सके.

हिंदी के  कमोबेश कई लेखकों की यही मनोदशा है. जब तक आप उनके  लेखन की प्रशंसा करते रहें, उनकी कृतियों को महान क़रार देते रहें और जब भी जहां भी मौक़ा मिले उनकी प्रशंसा करें, तब तक वे आपको सिर-आंखों पर बिठाए रखेंगे, लेकिन ज्यों ही आपने उनके  लेखन पर उंगली उठाई तो आप दुश्मन हो जाएंगे और आपकी समझ सवालों के  घेरे में हो जाएगी. लेकिन अंग्रेजी में इससे उलट हालात हैं. अंग्रेजी के लोग अपनी आलोचना को बेहद स्वस्थ और गंभीर तरीक़े से लेते हैं

और समीक्षक-आलोचक को कभी दुश्मन नहीं समझते. अंग्रेजी के  लोग कबीर के निंदक नियरे राखिए को आत्मसात कर चुके  हैं, जबकि हिंदी के  लोग अब तक कबीर को न तो समझ पाए हैं और न ही अपना सके  हैं. हिंदुस्तान की एक बड़ी आबादी के  बीच हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता न होने के  पीछे एक वजह इसका राजभाषा होना भी है. सरकारी बाबुओं और अ़फसरों की सरकारी भाषा हिंदी इतनी कठिन होती है कि अगर कोई सरकारी आदेश आपके  हाथ लग जाए तो उसे समझने के लिए आपको उसका अंग्रेजी में अनुवाद कराना होगा. ज़रूरत इस बात की है कि हिंदी को राजभाषा के  चंगुल से मुक्त कर जनभाषा बनाने की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए. जनभाषा के  लिए ज़रूरी है कि इसे लोगों से जोड़ा जाए और सरकारी चंगुल से मुक्त किया जाए. लेकिन, हिंदी के  शुद्धतावादियों को इस पर आपत्ति होगी.
उन्हें लगेगा कि यह तो हिंदी के  ख़िला़फ एक साज़िश है और इससे भाषा का चरित्र एवं स्वरूप बदल जाएगा. हिंदी में अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के  शब्दों का इस्तेमाल भी हिंदी के  तथाकथित ठेकेदारों को नागवार गुज़रता है. उन्हें लगता है कि इससे भाषा भ्रष्ट हो जाएगी. वे हिंदी को इतना कमज़ोर समझते हैं कि उसे अपने पंखों के  नीचे उसी तरह रखना चाहते हैं, जैसे कोई पक्षी अपने अंडे को सेता है. लेकिन हिंदी के  इन तथाकथित ठेकेदारों और शुद्धतावादियों को यह समझना होगा कि किसी अन्य भाषा का अगर हिंदी में इस्तेमाल होता है तो इससे भाषा भ्रष्ट नहीं होती, बल्कि समृद्ध होती है.
उन्हें यह भी समझ में नहीं आता कि हिंदी कोई इतनी कमज़ोर भाषा नहीं है कि अगर दूसरी भाषा के  चंद लोकप्रिय शब्दों का इस्तेमाल होगा तो हिंदी का नाश हो जाएगा. यहां भी हमें अंग्रेजी से सीख लेनी चाहिए. अंग्रेजी की ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के  नए संस्करण में हर साल विश्व की कई भाषाओं के  लोकप्रिय शब्दों को शामिल किया जाता है और गर्व से अंग्रेजी वाले इसका ऐलान भी करते हैं. आज अंग्रेजी वाले धड़ल्ले से बंदोबस्त और जंगल शब्द का इस्तेमाल करते हैं और कहीं किसी तऱफ से कोई विरोध की आवाज़ नहीं उठती. यही वजह है कि अंगे्रजी की विश्व भाषा के  रूप में स्वीकार्यता है और हिंदी जो तक़रीबन 50 करोड़ लोगों की भाषा है, उसका विरोध उस देश में होता है जहां की वह मूल भाषा है.
इस मसले पर हम हिंदीवालों को गंभीरता से विचार करना चाहिए. हमें संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर उसकी स्वीकार्यता बढ़ाने के  लिए ज्यादा उदार होना पड़ेगा. यह भी सोचना पड़ेगा कि दक्षिण भारत के  राज्यों में जहां हिंदी का विरोध सबसे ज़्यादा है और कई आंदोलन भी हो चुके हैं, वहां आश्चर्यजनक रूप से हिंदी फिल्मों का बेहद बड़ा बाज़ार है. क्या वजह है कि लोग हिंदी फिल्मों पर तो अपनी जान न्यौछावर कर देते हैं, लेकिन जब भाषा का सवाल आता है तो वे जान लेने और देने पर आमादा हो जाते हैं. व्यापक स्वीकार्यता पाने के  लिए ज़रूरी है कि हिंदी को खुले दिल से अन्य भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के  उन शब्दों को अपनाना होगा, जो लोगों की ज़ुबान पर चढ़े हुए हैं. इसका लाभ यह होगा कि दूसरी भाषा के  लोगों को यह भरोसा रहेगा कि हिंदी भी उनकी अपनी ही भाषा है और उनके  शब्द इसके  लिए अछूत नहीं हैं.

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