riservatiionमहिलाओं को लोकसभा और राज्यों के विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के मामले में कांग्रेस और भाजपा दोनों का रवैया एक जैसा है, लेकिन जब भी इस विधयक को पारित करने की कोशिश की जाती है, कोई न कोई अड़चन आ जाती है. नतीजा यह होता है कि यह मामला ठन्डे बस्ते में चला जाता है.

सोनिया गांधी का पत्र

बहरहाल एक बार फिर यह मुद्दा चर्चा में है. अभी सरकारी हलकों में इस बिल को लेकर कुनमुनाहट हो रही थी कि सोनिया गांधी ने भी एक तीर छोड़ दिया. उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इस विधेयक को पारित करवाने की गुहार लगा दी. अपने पत्र में सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को कहा है कि आपकी सरकार के पास लोकसभा में बहुमत है, इसलिए इस बहुमत का लाभ उठाते हुए आप लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाएं. कांग्रेस पार्टी ने हमेशा इस विधेयक का साथ दिया है और आगे भी देती रहेगी. सोनिया गांधी ने यह भी याद दिलाया कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ही स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण के विचार को आगे बढ़ाया था, जिसे विपक्षी दलों ने 1989 में राज्यसभा से पारित नहीं होने दिया था. वो विधेयक आखिरकार 1993 में संसद के दोनों सदनों से पारित हुआ था. ज़ाहिर है कांग्रेस की नेतृत्व वाली यूपीए सरकार 10 साल तक सत्ता में रही.

उस दौरान इस बिल को पारित करवाने की कोशिशें भी की गईं और 2010 में इसे राज्यसभा ने पारित भी कर दिया, लेकिन राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी जैसे सहयोगियों के विरोध के कारण यह बिल लोकसभा से पारित नही हो सका. कारण यह बताया गया कि इस बिल को पारित करने से यूपीए सरकार संकट में आ जाती. गौरतलब है कि अमेरिका के साथ परमाणु समझौते को लेकर मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार को दांव पर लगा दिया था. तो सवाल यह उठता है कि मनमोहन सिंह ने जो इच्छा शक्ति उस समय दिखाई थी, वो इच्छा शक्ति इस विधेयक पर उन्होंने अपने 10 वर्ष के कार्यकाल में क्यों नही दिखाई? और जब राज्यसभा से यह बिल पारित हुआ तो क्या उस समय सरकार पर संकट के बादल नहीं मंडराए थे?

बहरहाल समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के इस विधेयक के विरोध में होने का मुख्य कारण पिछड़े वर्ग की महिलाएं हैं. उनका कहना है कि पिछड़े वर्ग की महिलाओं को भी इस आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए और उनके लिए अलग से प्रावधान करना चाहिए. शरद यादव का विवादास्पद बयान भी इसी वजह से आया था. ज़ाहिर है यह मामला जितना लैंगिक असमानता का है, उतना ही राजनैतिक भी है. इसमें हरेक पार्टी के अपने-अपने हित हैं, लेकिन यह तो तय है कि भारत में आधी आबादी को देश के अहम फैसलों में हिस्सेदारी से दूर रखा जाता है.

 

देश के फैसलों से कब तक दूर रहेंगी महिलाएं

उक्त आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि यदि भारत को समग्र विकास की दिशा में आगे बढ़ना है तो देश की आधी आबादी को देश के फैसलों से दूर नहीं रखा जा सकता है. अब रही राजनीति की बात तो यह साफ़ है मोदी सरकार 2019 के चुनावों की तैयारी में जुट गई है. पिछले कुछ वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी ने महिलाओं पर ख़ास ध्यान दिया है. मुस्लिम महिलाओं के लिए उन्होंने तीन तलाक के मसले को उठाया, उसी तरह उन्होंने उज्ज्वला योजना के तहत ग्रामीण महिलाओं को भी अपने साथ जोड़ने की कोशिश की है. यदि पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षण की बात करें तो यह ऐसा मुद्दा है जिसके कारण बार-बार यह विधयक ठंडे बस्ते में चला जाता है. लेकिन यदि सरकार इस विधयक में संशोधन कर पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए भी आरक्षण का प्रावधान किए जाने पर सहमत हो जाए तो इसका फायदा भाजपा को मिल सकता है. भाजपा यह संशोधन करने के लिए शायद तैयार भी हो जाए क्योंकि भाजपा और मोदी दोनों की नज़रें लगातार पिछड़े वर्ग के वोटरों पर बनी हुई है. यदि ऐसा हुआ तो इस वर्ग के वोटों पर भाजपा की दावेदारी मज़बूत हो जाएगी. दरअसल यह मान लेना कि भारत में महिलाएं अलग वर्ग नहीं हैं, सही नहीं है. इसका उदाहरण बिहार में देखने को मिला जहां महिलाओं का मुद्दा उठाने की वजह से हर वर्ग की महिलाओं ने नीतीश कुमार को वोट दिया था.

इसमें कोई शक नही कि यदि मोदी सरकार के कार्यकाल में महिला आरक्षण विधेयक पारित हो जाता है तो वो चुनावों में इसका श्रेय लेने की पूरी कोशिश करेगी. प्रधानमंत्री के नाम सोनिया गांधी का पत्र इसलिए भी लिखा है ताकि कहीं अकेले भाजपा ही महिला आरक्षण विधयक पारित कराने का श्रेय न ले जाए. बहरहाल राजनैतिक दांवपेंच अपनी जगह लेकिन सोनिया गांधी के पत्र ने जहां एक तरह इस गेंद को भाजपा के पाले में डाल दिया है, वहीं महिला आरक्षण को एक बार फिर चर्चा में ला खड़ा किया है. अब देखना यह है कि देश की आधी आबादी को कब तक उनके अधिकार से वंचित रखा जाता है?

 

 

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here