सैयद अली शाह गिलानी हुरियत के नेता हैं. गिलानी साहब ताउम्र कश्मीर की अवाम के अधिकारों के लिए लड़ते रहे. कई बार जेल गए, नज़रबंद भी हुए, पुलिस की लाठियां भी खाई, ये उनके जीवन का एक पहलू है जिसे सारी दुनिया जानती है. लेकिन उनके जीवन का एक मानवीय पहलू भी है, जिसके बारे में दुनिया अनजान है. वो एक नरम दिल इंसान हैं. उनके सीने में भी धड़कता हुआ दिल है. वो एक पिता भी हैं. घर के आंगन में बच्चों के साथ न खेल पाने की कसक भी है. लेकिन सियासत और संघर्ष में अली शाह गिलानी का जीवन ऐसा उलझा कि अपने परिवार को समय ही नहीं दे पाए, जिसका उन्हें मलाल है.

चौथी दुनिया के प्रधान संपादक संतोष भारतीय ने पहली बार गिलानी साहब के अंदर के उस इंसान को तलाशा, जो अपनी ज़िंदगी में अपने बच्चों के बचपन को न देख पाने, बच्चों को बड़ा होते हुए न देख पाने, बच्चों की शरारतों को न देख पाने की कसक को अपने दिल में ख़ामोशी के साथ बंद किए अपने मक़सद के लिए लड़ाई लड़ता रहा.

saiyad ali shah gilaniपिछली बार जब मैं कश्मीर गया था, तो गिलानी साहब से मिलने की कोशिश की थी, लेकिन पुलिस ने मिलने नहीं दिया था. हालांकि पुलिस के आईजी को हम बता कर आए थे कि हम गिलानी साहब से मिलने जा रहे हैं और उन्होंने कहा था कि ज़रूर मिलिए, कोई दिक्कत नहीं होगी. लेकिन शायद उन्होंने ही वहां फोर्स भेज दिए और बहुत ज्यादा फोर्स भेज दिए, जिसने गिलानी साहब के घर को और उस रास्ते को रोक दिया. मैं उस बार नहीं मिल पाया. मिलने का समय तीन बजे का था.

इस बार फिर मैंने कोशिश की और मैं गिलानी साहब के घर फिर पहुंचा. वक्त वही तीन बजे का था. मुझे स़िर्फ 15 मिनट का समय गिलानी साहब ने दिया था. मैंने सोचा 15 मिनट में ही मैं जितनी बात कर सकता हूं, उतनी बात करूंगा और चूंकि पुलिस ने मुझसे कहा था कि मैं मोबाइल न ले जाऊं, तो मैं मोबाइल गाड़ी में छोड़कर गिलानी साहब के पास गया. एक लंबा सा अहाता है, जिसमें एक गलियारा है, गलियारे के बाद गिलानी साहब के कमरे तक एक सीमेंट का रास्ता है. बाईं तरफ़ छोटा सा लॉन है और उसके बाद वो बैठक शुरू होती है, जहां गिलानी साहब से लोग जाकर मिलते हैं.

मैं उस बैठक में पहुंचा और मैंने सामने ख़ाली कमरा पाया. उस कमरे के भीतर मैं और मेरे साथ गए हारून रेशी बैठ गए. थोड़ी देर में गिलानी साहब के छोटे बेटे नसीम और उनके कुछ सहयोगी भी आकर सोफे पर बैठ गए. गिलानी साहब अंदर से आए और उस कुर्सी पर बैठ गए, जिसपर वो अक्सर बैठते हैं. मैंने शुरुआती दुआ-सलाम के बाद उन्हें अपना परिचय दिया और पिछली बार न मिलने की वजह बताई, तो उन्होंने कहा कि हां आप पिछली बार आए थे. मैं मिलना भी चाहता था, लेकिन सरकार ने आपको नहीं आने दिया, तो अब क्या किया जा सकता है?

गिलानी साहब से मेरी लगभग बीस मिनट की बातचीत हुई, जिसका रिश्ता इतिहास से, कश्मीर के लोगों की तकलीफ़ (जैसा कि वो समझते हैं) से और अभी के कश्मीर के हालात से था. इन सारी चीज़ों पर वो लगभग बीस मिनट तक हमें समझाते रहे. जब वो समझा रहे थे, मैं उनके चेहरे की तरफ़ देख रहा था, तो मुझे लगा कि इस शख्स ने सारी ज़िंदगी स़िर्फ और स़िर्फ सियासत की है.

क्या सियासत के अलावा इनके मन में कभी कुछ और नहीं आया? वे बोल रहे थे और मेरे हाथ नोट्स ले रहे थे, लेकिन मेरा दिमाग़ कह रहा था कि मैं इनसे ये ज़रूर पूछूं कि क्या इनके मन में कोई कसक बाक़ी रह गई है? पहला सवाल मैंने यह पूछा कि इस समय आपकी उम्र क्या है? तो उन्होंने कहा 87 साल और तब मुझे लगा कि इस शख्स से उन चीज़ों के बारे में ज़रूर पूछना चाहिए, जो शायद लोग नहीं पूछते होंगे.

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अचानक मैंने गिलानी साहब से पूछा कि सर आपके मन में कहीं कुछ ऐसी कसक तो नहीं रह गई है कि मैं ये करता तो ज्यादा अच्छा रहता, वो करता तो ज्यादा अच्छा रहता, या दूसरे लफ्ज़ों में, सियासत के अलावा आपके मन में क्या-क्या चल रहा था? जैसे कई लोगों के मन में होता है कि मैं सिनेमा में होता और एक्टिंग करता, तो बहुत अच्छा रहता. किसी के मन में होता है कि मैं बहुत अच्छा म्यूज़ीशियन बनता. मैंने उनसे पूछा कि ऐसी कौन सी चीज़ें उनके मन में रह गई हैं? क्योंकि 87 साल का मतलब एक पूरी दुनिया होती है.

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