आज कश्मीर में जो ये उबाल रहा, इसका कारण यही है कि बहुत सारे वादे किए गए थे और उन वादों को पूरा नहीं किया गया. आर्टिकल 370 को भी कमज़ोर किया गया, यानी कश्मीर को जो एक स्वायत्त दर्जा मिला हुआ था, न स़िर्फ उसे कमज़ोर किया गया, बल्कि अपने बहुत ही विश्‍वसनीय इंस्ट्रूमेंट जगमोहन द्वारा आर्टिकल 249 लागू किया गया. लिहाज़ा बाक़ी के राज्यों को जो अधिकार हैं, विधायी अधिकार हैं उनके मुक़ाबले में भी जम्मू-कश्मीर के अधिकार को कम किया गया.

kashmirयूसुफ़ तारीगामी जहां तक कश्मीर समस्या का संबंध है, तो दो बातें हमें ज़ेहन में रखनी होंगी. एक, कश्मीरी अवाम अपनी पहचान को लेकर बहुत ही संवेदनशील रही है. अगर इस सवाल को अलग भी कर दिया जाए कि 1947 से पहले डोगरा शासन के ख़िलाफ़ एक कश्मीरी आन्दोलन था, तो भी इतिहास की घटनाएं बताती हैं कि उससे पहले मुग़लों के ख़िलाफ़ संघर्ष था, पठानों के ख़िलाफ़ संघर्ष था और सिखों के शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष था. कहने का अर्थ ये है कि कश्मीरी अवाम पहले से ही अपनी बहुसंस्कृतिवादी (प्लूरल) पहचान के बारे में काफ़ी संवेदनशील रही है. यही वजह है कि जो बंटवारा हुआ (हमारी नज़र में जब बटवारे का ट्रॉमा (आघात) हुआ) वो अभी भी हमारी मानसिकता का, पूरे उपमहाद्वीप की मानसिकता का एक हिस्सा बना हुआ है. अभी भी दोनों नेशन-स्टेट्स ने उस अघात पर क़ाबू नहीं पाया है. कश्मीर उसी आघात का एक हिस्सा है.

यही वजह है कि बंटवारे के बाद जब कश्मीर की अवाम के सामने यह सवाल आया कि उधर (पाकिस्तान) जाना है या इधर (भारत में) रहना है, तो यहां की उस वक्त की लोकप्रिय नेतृत्व ने ये फैसला किया कि मज़हब राष्ट्रीयता की बुनियाद नहीं बन सकता. इसलिए कश्मीर छोड़ो आन्दोलन और भारत छोड़ो आन्दोलन के बीच मूल्यों (वैल्यूज) का और दिशा (डायरेक्शन) का एक ढांचा था, जिसके अंदर रहकर एक रिश्ता बन सकता था. लिहाज़ा एक अतिरिक्त रिश्ता बना, जिसे हम विलय की संधि (इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन) के नाम से जानते हैं.

आज लोग ये भूल जाते हैं कि ये स़िर्फ क़ानूनी सवाल नहीं है कि विलय की संधि, जो क़ानूनी फ्रेम का एक हिस्सा है, की क़ानूनी हैसियत क्या है. लेकिन इसके अलावा इस रिश्ते के लिए एक नैतिक बंधन है और एक नैतिक समर्थन है, बेशक कुछ शर्तों के साथ. ये शर्तें क्या थीं? शर्तें थीं कि दिल्ली के साथ, हिंदुस्तान के साथ एक रिश्ता बने और उस रिश्ते से हमारी पहचान सुरक्षित रहे, बहुसंस्कृतिवादी पहचान सुरक्षित रहे. इसलिए भारतीय संविधान में आर्टिकल 370 वजूद में आया. भारत की संविधान सभा और कश्मीर की संविधान सभा दोनों इस रिश्ते की बुनियाद आर्टिकल 370 पर रखने को राज़ी हुए.

आर्टिकल 370 का मतलब है कि जम्मू-कश्मीर की एक स्वायत्त स्थिति रहे. यहां साझी संप्रभुता हो (जिसको आज लोग भूल जाते हैं), यानी कई मामलात में पूरी-पूरी स्वायत्तता रहे, जम्मू-कश्मीर की अवाम के लिए रेसिडूअल पावर्स बनी रहे और साथ-ही-साथ कई मामलात, ख़ासतौर पर तीन मामलों में भारत सरकार का अधिकार बना रहे.

ये रिश्ता बना और उस रिश्ते को ध्यान में रखते हुए बाद में जो एकतरफ़ा बदलाव आये, उसका नतीजा ये भी था कि जो नेतृत्व एक पुल की हैसियत से सामने आई, उस पुल को यहां के लोकप्रिय नेता शेख़ अब्दुल्ला को मनमाने ढंग से गिरफ्तार करके, उनकी सरकार को बर्ख़ास्त करके और एक कठपुतली सरकार को सत्ता में बिठा कर लगभग नष्ट कर दिया गया. मेरे हिसाब से उस रिश्ते पर ये सबसे बड़ी चोट थी.

भारत और कश्मीर के बीच जो नैतिक बंधन था, उसको ये एक ज़बरदस्त धक्का था, जो आज तक भी संभल न सका, जो बढ़ता ही गया. उसके बाद जो भी हुआ, वो इसी बुनियाद पर हुआ. इसमें दो बातें रहीं. पहली, भारत सरकार की तरफ़ से एक अधिकतमवादी (मैक्जिमलिस्ट) पोज़िशन रही और दूसरी जो सेक्युलर ढांचा था, उसमें भी बहुसंख्यकवाद  की एक शक्ल मौज़ूद रही. इसका नतीजा ये हुआ कि उनके लिए ये बर्दाश्त से बाहर था कि एक मुस्लिम बहुल राज्य को एक स्वायत्त स्थिति मिले. इसको समझने की ज़रूरत है.

आज भी कश्मीर में जो ये उबाल रहा, इसका कारण यही है कि बहुत सारे वादे किए गए थे और उन वादों को पूरा नहीं किया गया. आर्टिकल 370 को भी कमज़ोर किया गया, यानी कश्मीर को जो एक स्वायत्त दर्जा मिला हुआ था, न स़िर्फ उसे कमज़ोर किया गया, बल्कि अपने बहुत ही विश्‍वसनीय इंस्ट्रूमेंट जगमोहन द्वारा आर्टिकल 249 लागू किया गया. लिहाज़ा बाक़ी के राज्यों को जो अधिकार हैं, विधायी अधिकार हैं, उनके मुक़ाबले में भी जम्मू-कश्मीर के अधिकार को कम किया गया. अब राज्यसभा एक रिजॉल्यूशन के ज़रिये कोई भी अमेंडमेंट ला सकती है.

अब कॉन्स्टीट्यूशन में अमेंडमेंट ज़रूरी नहीं है, बल्कि राज्यसभा और लोकसभा इकट्ठे मिलकर किसी रिजॉल्यूशन को पास कर सकते हैं (आर्टिकल 249). यानी कश्मीरियों में जो एक रिश्ते की बुनियाद बनी थी, उसको बुरी तरह से कमज़ोर किया गया, जिसका नतीजा ये है कि लोगों में शुरू से ही बेचैनी रही, अनिश्‍चितता रही. अनिश्‍चितता का इलाज क्राइसेस मैनेजमेंट के फॉर्मूले से किया गया. यह फॉर्मूला था, कभी एक को लाओ, कभी दूसरे को लाओ, कभी किसी को गिरफ्तार करो, कभी किसी को छोड़ दो. इसका नतीजा ये है कि कश्मीर के इतिहास में एक लम्बे समय तक जनता के लिए लोकतंत्र नहीं आने दिया गया है.

इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि जब शेख़ साहब और इंदिरा जी के दरम्यान 1974-75 में समझौता हुआ, तो 1953 के बाद 1977 में पहला ऐसा चुनाव हुआ, जिसे लोकप्रिय चुनाव कहा जाता है. उस उस वक़्त दिल्ली में जनता पार्टी की सरकार थी और ये जो बहुत सारे अलगाववादी प्लेटफॉर्म हैं, वे एक बार चुनाव में आये. उन्होंने जनता पार्टी के इर्द-गिर्द चुनाव लड़ा. मरहूम अब्दुल ग़नी लोन साहब जनता पार्टी की पहली पंक्ति के लीडर थे. मरहूम मीरवाइज़  उनके सपोर्टर थे, यहां तक कि जमात-ए-इस्लामी भी उनके साथ थी. लेकिन उनके पास लोकप्रिय जनादेश नहीं था, उनके पास जन समर्थन नहीं था.

शेख़ साहब ने चुनाव जीता और उसके बाद जब उनका स्वर्गवास हो गया, तो उनके पुत्र फ़ारूक़ अब्दुल्ला साहब आये. बड़ा जनादेश था. धांधली रहित चुनाव हुए थे. उस समय इंदिरा जी प्रधानमंत्री थीं और जगमोहन साहब गवर्नर थे. बीके नेहरू साहब (गवर्नर) ख़ुद कहते हैं कि उन्हें आदेश मिला था कि फ़ारूक़ अब्दुल्ला की सरकार को बर्ख़ास्त किया जाए, लेकिन उन्होंने आदेश को माना नहीं.

फिर इंस्ट्रूमेंट ऑफ गवर्नर इस्तेमाल किया जगमोहन साहब को और दलबदल की व्यवस्था कर एक चुनी हुई सरकार को दिन के उजाले में ही बर्ख़ास्त कर दिया गया. ख्याल रहे कि इस वक्त फिलहाल यहां कर्फ्यू का जो सिलसिला रहा, उस वक्त भी सबसे लम्बा कर्फ्यू रहा था. उस वक्त भी लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया था. श्रीनगर में ग़ुलाम मुहम्मद शाह के शासनकाल को कर्फ्यू राज माना जाता था.

कहने का मतलब यह है कि ये जो वादाख़िलाफ़ी का इतिहास है, ये जो लोकतंत्र से वंचित रखने का इतिहास है. इनकी लम्बी-लम्बी दास्तानें हैं. भले ही दिल्ली में किसी की भी सरकार रही, बार-बार कोशिश यही रही कि कश्मीर के जो भी संवैधानिक अधिकार हैं, उन्हें कम किया जाए और नागरिकों को संविधान के तहत जो भी अधिकार मिलते हैं, उनके साथ भी खिलवाड़ किया जाए. ये एक लम्बी दास्तान है. इसमें नागरिक स्वतंत्रता का सवाल है, अंधाधुंध गिरफ्तारियों का सवाल है, लाठियों का सवाल है, फ़ौज का सवाल और बाकी चीज़ों का सवाल है.

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फिर 1990 के दशक में आपने देख लिया कि इस समस्या ने एक नया आयाम अख्तियार कर लिया, पूर्ण रूप से उग्रवाद (इन्सर्जेन्सी) का रूप धारण कर लिया. बेशक पाकिस्तान इसका हिस्सा था. इस बात का मुझे यकीन है कि पाकिस्तान ने हमेशा ईमानदारी के साथ काम नहीं किया है. साथ ही ये भी एक सच्चाई है कि बंटवारे के बाद से अब तक पाकिस्तान और भारत ने कई जंगें लड़ीं और कई समझौते किये.

ये भी एक सच्चाई है कि अगर आप एलओसी को देखेंगे तो शायद देश विभाजन के बाद से अब तक बॉर्डर नहीं है. एक हिस्सा है, जहां अब भी स्थाई बॉर्डर नहीं है. इसका मतलब क्या है? इसका मतलब है कि इस में कुछ झगड़ा है. कोई झगड़ा है, तभी ये पहले एलओएसी था, अब एलओसी है. स्थाई बॉर्डर नहीं बना. पाकिस्तान का फैक्टर मैंने इसलिए दुहराया, क्योंकि उनकी तरफ़ से भी अपनी कोशिशें जारी रहीं, कभी एक शक्ल में कभी दूसरी शक्ल में.

वर्ष 1947 में विभाजन के समय जब जम्मू में साम्प्रदायिक दंगे हुए, जिसमें काफ़ी लोग मारे गए, जब पंजाब के बॉर्डर पर भी ख़ून की नदियां बह रही थीं, उस समय भी कश्मीर एक ऐसी जगह थी, जहां एक भी साम्प्रदायिक वारदात नहीं हुई. तो कश्मीर की वह पहचान बदल गई. ये पहचान किसी और चीज़ की वजह से नहीं, बल्कि लगातार आने वाली सरकारों की नीतियों की वजह से बदली. एक बड़ा वैक्यूम (रिक्ति) बन गया. उस वैक्यूम का फ़ायदा धार्मिक अतिवाद ने लिया, जम्मू में भी और कश्मीर में भी. आज हालत यह है कि जम्मू और कश्मीर के बीच पोलराइज़ेशन (ध्रुवीकरण) है.

जो रही-सही कसर थी, बीजेपी की सत्ता में भागीदारी ने पूरी कर दी. अब कश्मीरी अवाम एक बार फिर अधिक ख़तरा महसूस करने लगी है, जैसे उनके पास नाम का ही जो बचाखुचा आर्टिकल 370 था, वो भी ख़त्म हो जाएगा. उनके कार्यकर्ता कभी एक अदालत में कभी एक ढंग से कभी दूसरे ढंग से स्टेट सब्जेक्ट्स के क़ानूनों को चुनौती दे रहे हैं और कभी 370 को बहस का मुद्दा बनाया जा रहा है. दरहक़ीक़त आज कश्मीर की जनता अधिक ख़तरा महसूस कर रही है.

अभी 2014 में जो चुनाव हुए उसमें पीडीपी, जो नेशनल कांफ्रेंस के एक विकल्प के तौर पर देखी जा रही थी, को एक बड़ा मैंडेट मिला. पीडीपी के एजेंडा में और बातों के अलावा यह सवाल भी था कि बीजेपी का ख़तरा है, बीजेपी का सैलाब आने वाला है, उसको रोकने के लिए ताक़त चाहिए, ताक़तवर प्लेटफार्म चाहिए, जो पीडीपी के पास है. लेकिन लोगों को तब बहुत ज्यादा मायूसी हुई, जब इसी पार्टी ने बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाने के लिए समझौता किया. लोगों ने इसको सरेंडर माना. पूरे देश में बीफ का सवाल उठा, उत्तर प्रदेश में जिस तरह से अख़लाक़ की पीट-पीट कर हत्या की गई और यहां उधमपुर में भी एक कश्मीरी को मारा गया, इसके साथ-साथ कश्मीर में सैनिक

कालोनी बनाने की बात चली, कभी कश्मीरी पंडितों को कंपोजिट तरी़के से रिहैबिलीटेट (पुनर्वास) करने के बजाए अलग कालोनी बनाने की बात हुई. इन सभी चीज़ों ने एक ख़ौफ़ का माहौल पैदा किया, एक असुरक्षा की भावना पैदा की. ये सब इकट्ठा होता गया और हमारी नज़र में यह इकट्ठा हुआ गुस्सा है, जिसकी अभिव्यक्ति आज के बड़े विरोध प्रदर्शन में और यहां जारी अशांति में हुई है और जो कि हर लिहाज़ से अभूतपूर्व है. उसे हम यह नहीं कह सकते हैं कि ये (जैसा कि पूरे देश में चर्चा है) पाकिस्तान की वजह से है, आतंकवाद की वजह से है.

ये बिल्कुल सही है कि पाकिस्तान की अपनी दख़लअंदाज़ी है, आतंकवाद का अंश भी मौजूद है, लेकिन इस विरोध प्रदर्शन को पाकिस्तान और आतंकवाद की ही एक साज़िश करार दे देना बिल्कुल ग़लत होगा. सही यही है कि ज्यादतियों और ग़लतियों का आज तक जो सिलसिला जारी रखा गया, ये उसी अलगाव की भावना का नतीजा है. दर्द बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की.

मुझे अफ़सोस ये है कि लोग भी मरे, काफ़ी घर भी उजड़ गए, बिजनस तबाह हैं, आज इतना वक्त हुआ और सब कुछ पैरालाइज्ड है, लेकिन भारत सरकार अभी भी डायलॉग की बात करने से हिचकिचाती है. हम विपक्ष के नेता 22 अगस्त को भारत के प्रधानमंत्री से मिले थे. हमने वहां अपील की कि यह सियासी मसला है, ये दर्द सियासी है और अपने लोगों को मनवाने के लिए एक ही रास्ता है, वो रास्ता है सियासी रास्ता, सियासी डायलॉग.

हमने ये भी कहा कि इस दर्द से अगर आंखें बंद की जाएंगी, तो न स़िर्फ जम्मू-कश्मीर का नुक़सान होगा, बल्कि पूरे उपमहाद्वीप का नुक़सान होगा और देश का भी ऩुकसान होगा. इसलिए ज़रूरी है कि इस हक़ीक़त को माना जाए और डायलॉग की पेशकश की जाए. बाद में पीएमओ से एक घोषणा-पत्र मिला, उसमें लिखा गया था कि इस मसले का आख़िरी हल ढूंढ़ने के लिए डायलॉग की प्रक्रिया ही सही रास्ता है. लेकिन 22 अगस्त से आज तक हम इंतज़ार कर रहे हैं कि डायलॉग की दिशा में कहीं से भी कोई एक क़दम उठाया जाए, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा.

एक मांग की थी हमने कि हमारे जो लोग हैं, हमारे जो नौजवान हैं, कई लोग तो मारे गए लेकिन कई लोग हैं, जिनकी आंख की रौशनी चली गई है, वो अंधे हो गए हैं. हमें अंधा होने से बचाइए और हमें पैलेट गन से निजात दिलाइए. हमारी बातें चर्चा में लाई गईं संसद में और संसद के बाहर भी, लेकिन पैलेट गन का इस्तेमाल (ये लेख लिखे जाने तक) अब भी जारी है. आज भी एक ही रास्ता है सरकारों के पास कि दिल्ली से श्रीनगर तक गिरफ्तारियां करते रहो, और गिरफ्तारियों के साथ-साथ ताक़त का बेतहाशा इस्तेमाल करते रहो. हमारी नज़र में ताक़त का बेतहाशा इस्तेमाल, अंधाधुंध गिरफ्तारियां और पैलेट गन का इस्तेमाल कल भी हल नहीं थे और आज भी नहीं हैं. इसे मर्ज़ बढ़ता ही जाएगा.

माना आज आग बुझ जायेगी, लोग थक जायेंगे, लेकिन चिंगारी बदस्तूर क़ायम रहेगी. कल क्या होगा? कल आज से ख़राब ही होगा, ये हमारा डर है, हमारा अंदाज़ा है. आज भी हमारी अपील है डेमोक्रेटिक सेक्शन से, हमें ये उम्मीद है कि हिंदुस्तान जैसे बड़े मुल्क में काफ़ी लोग हैं, जिनमें आज भी लोगों के अधिकार के बारे में तड़प है, लोगों के बारे में चिंता है.

अभी वो हिंदुस्तान जिसके बारे में कश्मीरियों ने कभी सपना देखा था, वो मरा नहीं, वो अब भी मौजूद है. हमें उम्मीद है कि डेमोक्रेटिक सेक्शन चाहे वो संसद में हों या संसद के बाहर, वो आवाज़ उठाएंगे ताकि कश्मीरियों को इन्साफ मिले और इन्साफ न मिले तो ये रास्ता हम सब के लिए कल और ज्यादा ख़तरनाक बन सकता है.

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