हमें बताया गया है (कुरान की एक आयत पढ़कर सुनाते हैं और फिर उसका तर्जुमा करते हैं), अल्लाह-ताआला कुरान में फ़रमाता है कि तुम्हे एक दूसरे के साथ मोहब्बत रखनी चाहिए और दूसरों की जो ग़लतियां, कमियां और कोताहियां देखो, तो उनको दरगुज़र (माफ़) करना चाहिए. उनके साथ कोई बदले की भावना नहीं रखनी चाहिए.

अल्लाह-ताआला ने फ़रमाया है कि देखो मैंने तुम्हारे पास एक पैगंबर भेजा है और यह बहुत नरम दिल है. अगर यह सख्त दिल होता, तो आप इसके इर्द-गिर्द शहद की मक्खियों की तरह न रहते, लेकिन ये नरम दिल है, इसलिए आप इनके इर्द-गिर्द रहते हैं और फिर इनको मैंने भी कहा है कि आप अपने साथियों को माफ़ किया करें. माफ़ी ही नहीं, बल्कि अल्लाह-ताआला से आप इनके लिए मग़फ़िरत की दुआ मांग लिया करें और फिर जब मशवरा करने के बाद आप किसी बात को तय कर लें कि ये बात सही है और इसपर अमल करना चाहिए, तो फिर उसपर अमल करें और अल्लाह पर भरोसा रखें. ज़ाहिरी सहारों पर भरोसा न रखें.

अल्लाह पर भरोसा करो, तो वह तुम्हारी मदद करेगा. हमारी यह कोशिश रहती है कि ऐसे हालात के लिए हमें जो तालिम दी गई है, उसपर हम अमल करें. मुझे लगा, मेरे सवालों को गिलानी साहब टाल रहे हैं, तो मैंने उनसे पूछा, अपनी ताक़त और कमज़ोरियों के बारे में बताइए.

गिलानी साहब ने इसका भी बड़ा छोटा जवाब दिया और कहने लगे कि इंसान में कमज़ोरियां होती हैं, ये कोई नई चीज़ नहीं है. कुरान में बताया गया है कि हमने इंसान को बहुत कमज़ोर पैदा किया है, इंसान कमज़ोर होता है. मैंने अपनी समझ से गिलानी साहब को थोड़ा कुरेदने की कोशिश की कि आपके अंदर अपनी एक ताक़त है और मुझे लगता है कि आपमें जो लड़ने का माद्दा है, वो शायद आपकी ताक़त है. अंदर से आपको कहीं से ताक़त मिलती है, क्योंकि आदमी सोचता ज़रूर है कि चलो बहुत लड़ लिए, थोड़ा आराम करें, थोड़ा दुनिया में घूमें, बच्चों के साथ रहें, पर वो आप नहीं करते हैं.

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आप लगातार सोचते रहते हैं और लड़ते हैं. क्या आपको गुस्सा ज्यादा आता है? कमज़ोरी में एक गुस्सा भी है. फिर गिलानी साहब ने मुझे घूमा दिया. बहुत संक्षेप में बोले, मुझे बहुत कम गुस्सा आता है. हमेशा यह कोशिश रहती है कि दरगुज़र (माफ़) किया जाए. मैंने उन्हें और कुरेदा, अच्छा बताइए गुस्सा आता है, तो आप क्या करते हैं? मतलब अल्लाह को याद करते हैं या पानी पीते हैं या कुछ और करने लगते हैं? गिलानी साहब ने जवाब दिया, अल्लाह-ताआला को ही याद करते हैं कि हम पर रहम कर.

मैंने फिर बात बदली. कौन सा मौसम अच्छा लगता है? गिलानी साहब बोले, यहां कश्मीर में हमेशा मौसम अच्छा रहता है. मेरा अगला सवाल था, आपका पसंदीदा मौसम कौन सा है? जाड़ा पसंद है, गर्मी पसंद है या बरसात? गिलानी साहब का फिर वही छोटा सा जवाब, सर्दियों में थोड़ी तकलीफ़ होती है, चेस्ट ख़राब हो जाता है. मैंने इस पर पूछा, ये तो अभी होता है, पहले तो नहीं होता होगा? उन्होंने जवाब दिया नहीं, पहले ऐसा नहीं होता था, लेकिन कुछ समय से (1997 से) मुझे पेसमेकर लगा हुआ है. मैंने गिलानी साहब से पूछा कि चांदनी रात कितनी पसंद है, चांद, चांदनी रात, रौशनी? गिलानी साहब का जवाब था, अल्लाह-ताआला ने जो हुस्न दिया है, इंसानों को या इस सरज़मीं को, वो तो हमेशा ही पसंद आता है. वो नेमत (उपहार) है, अल्लाह-ताआला की तरफ़ से और उसका फ़ायदा भी उठाना चाहिए. अब शायद मैंने गिलानी साहब के मन की बात पूछी.

क्या आपको शायरी बहुत पसंद है? आपने कई शेर अभी कहे इस बातचीत के दौरान अपनी बात कहने के लिए और दूसरे इक़बाल क्यों आपको इतने पसंद हैं? क्योंकि दोनों बार आपने इक़बाल साहब के शेर इस्तेमाल किए. गिलानी साहब ने कहा, यहां मैंने लिखा भी है (किताबों की तरफ़ इशारा करते हुए). दो किताबें लिखी हैं और तीसरी लिख रहा हूं. इक़बाल इसलिए पसंद हैं, क्योंकि इक़बाल ने इस्लाम की रूह को समझा है. मैं बग़ैर किसी लाग-लपेट, बिना किसी बनावट के आपसे कहूंगा कि जिस तरह इक़बाल ने इस्लाम की रूह को समझा, बड़े-बड़े आलिमों (ज्ञानीयों) ने उस सच्चे इस्लाम की रूह को नहीं समझा है.

इसलिए हमें इक़बाल पसंद हैं. जिस्म को समझना बड़ा आसान है, लेकिन किसी चीज़ की रूह को समझना और फिर उसे अपने कलाम (कविता) में दर्शाना, उसको पेश करना, ये बहुत बड़ा कारनामा है, बहुत बड़ा हुनर है. तो ज़ाहिर है मुझे पूछना था और मैंने पूछा भी कि ऐसे और कितने शायर हैं, राइटर हैं, जिन्होंने आपके ऊपर अपनी छाप डाली हो, असर डाला हो. अब गिलानी साहब ने मुस्कुराते हुए, समझाते हुए कहा, एक तो इक़बाल हैं, दूसरे सैयद मौलाना मसूदी (र). उन्होंने भी कुरान और दीन की रूह को समझा है और समझाया है, बड़े आसान तरी़के से.

उन्होंने समझाया है कि इस्लाम क्यों है, इस्लाम की ख़ूबियां क्या हैं, इस्लाम के मुक़ाबले में जितने भी इज्म हैं, निज़ाम हैं, उनमें क्या-क्या कमज़ोरियां हैं. कम्यूनिज्म में, सोशलिज्म में, कैपिटलिज्म में, सेक्युलरिज्म में, ये जो दूसरे इज्म हैं, उनमें क्या-क्या कमज़ोरियां हैं और उनके मुक़ाबले में इस्लाम में क्या-क्या ख़ूबियां हैं. इन्होंने बड़ी तफ्सील के साथ ये समझाया है, इसलिए उनके साथ भी बहुत मोहब्बत है.

इक़बाल के साथ भी बहुत मोहब्बत है. मेरे एक मुरब्बीस (संरक्षक) रहे हैं मौलाना मसूदी, वो अब हमारे बीच नहीं हैं, अल्लाह उनकी मग़फ़िरत करे. हालांकि उनके साथ सियासी मतभेद थे, लेकिन चार साल उन्होंने मेरी तरबीयत की है (यानि मुझे शिक्षा दी है). चार साल मैं उनके साथ रहा हूं. उनकी ख़ूबियां, उनका कैरेक्टर और उनकी सादगी ने मुझे बहुत प्रभावित किया. अब मैंने सवाल पूछा, हालांकि वो थोड़े अलग थे आपसे.

गिलानी साहब ने जवाब दिया. हां, वो शेख अब्दुल्ला के प्रभाव में थे. बस यही एक उनकी कमज़ोरी थी, बाक़ी उनकी ख़ूबियां बहुत ज्यादा हैं. चार साल के दौरान, चार साल की अवधि तो बड़ी अवधि है न? मैं आपसे कहूंगा कि उस चार साल में मैंने कभी नहीं देखा कि उन्होंने किसी की ग़ीबत (पीठ पीछे शिकायत) की हो. हालांकि उनके बहुत दुश्मन थे. उनको मालूम भी था कि लोग उन्हें ‘सूतगुजरु’ भी कहते हैं. लेकिन कभी भी उन्होंने किसी के बारे में कोई ग़ीबत नहीं की कि फलां ऐसा है या फलां ऐसा है. चार साल में मैंने कभी नहीं देखा और सादगी तो उनमें बहुत ज्यादा थी.

मैं गिलानी साहब को देख रहा था और मुझे लगा कि उनसे पूछूं कि श्रीनगर के अलावा उन्हें कौन सी जगह पसंद है और मैं ये अपेक्षा कर रहा था कि वो स्विट्जरलैंड का या जर्मनी का या लंदन का नाम लेंगे. इसलिए मैंने सवाल को थोड़ा और साफ़ किया कि दुनिया में कहीं भी, जहां आप घूमे हैं, श्रीनगर तो आपको सबसे अधिक पसंद है ही, ये जन्नत है. ज़ाहिर है ये जन्नत है, ये बात अलग है कि आज ये जन्नत नहीं रही. यहां की सरज़मीं के अलावा और कौन सी जगह है. मान लीजिए, अगर आपको च्वॉइस मिलती कि श्रीनगर के अलावा कहीं और रहना है, तो कहां रहते? गिलानी साहब इस पूरी बातचीत में पहली बार हंसे और हंसते हुए बोले कि केरल में. अब मुझे आश्‍चर्य हुआ. मैंने पूछा केरल में कैसे?

गिलानी साहब ने कहा कि मैं वहां दो बार गया हूं, बहुत अच्छे लोग हैं वहां के, मौसम भी अच्छा है, बहुत ज्यादा सादगी है केरल में. जब भी केरल के लोग यहां आते हैं, हमें बहुत ख़ुशी होती है. बड़े अच्छे लोग हैं, सादा लोग हैं, कम्युनल नहीं हैं. अब तो बीजेपी वाले वहां जा रहे हैं, वहां भी कम्युनलिज्म का बीज बोया जा रहा है. लेकिन वहां के लोग बड़े अच्छे हैं. मैंने अचानक पूछ लिया कि महबूबा मुफ्ती से आपकी मुलाक़ात हुई इधर हाल-फिलहाल में? तो उन्होंने जवाब दिया हां, जब मेरी बेटी गुजरी थी, तो उस वक्त ताज़ियत के लिए, मातमपुरसी के लिए आई थीं.

अब मैंने पूछा कि इसके अलावा महबूबा मुफ्ती को समझने का मा़ैका नहीं मिला कि कैसी लड़की हैं, कैसा दिमाग़ है उनका? इसका जवाब थोड़ा लंबा दिया गिलानी साहब ने. उन्होंंने कहा कि अंदाज़ा था और मैंने लिखा भी है किताबों में कि ख़ातून जो होती हैं, उनका दिल नर्म होता है, किसी का ग़म और दु:ख देखती हैं, तो उनका दिल बहुत जल्दी पसीज जाता है. लेकिन महबूबा के बारे में ये चीज़ ग़लत साबित हुई है. यहां की ज़मीन पर जितना ख़ून बहा है और बिना किसी वजह के बुरहान शहीद हुआ, उसके जनाज़े में दो लाख लोगों ने शिरकत की और 40 बार उसकी नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ी गई, इस्लामाबाद में, साउथ में, सोपियां में, कारगील में, कहलगांव में.

पुलवामा से और अनंतनाग से भी लोग वहां जाने लगे. उनके पास कोई हथियार नहीं था, जैसे कि मैंने कहा, लेकिन फ़ौज ने, पुलिस ने लोगों को वहां जाने नहीं दिया. अगर वहां वे जाते, तो क्या फ़़र्क पड़ता? दो लाख लोग तो पहले से ही वहां मौजूद थे. कोई फ़़र्क नहीं पड़ता. लेकिन जाते वक्त उनपर गोलियां चलाई गईं. महबूबा को देखना चाहिए था कि वे लोग वहां जनाज़े में शिरकत के लिए जाना चाहते थे, तो उनपर गोलियां चलाने का क्या जवाज़ (औचित्य) था? उनका कत्ल करने का क्या जवाज़ था? पैलेट गनों से उनको बिनाई (आंख की रौशनी) से महरूम करने का क्या जवाज़ था? मैं चाहता था, मेरी ये तमन्ना थी, मेरी ख्वाहिश थी और मेरा ये जज्बा था कि उनको उसी वक्त इस्तीफ़ा देना चाहिए था.

ये बिना वजह की क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी (ख़ून-ख़राबा) देखना, इसके लिए जवाज़ नहीं बनता था उनके पास कि वो सत्ता की कुर्सी पर विराजमान रहें. नहीं, उन्हें इस्तीफ़ा देना ही चाहिए था. वो ख़ातून नहीं रहीं, बल्कि समझ लीजिए बेहिस (असंवेदनशील) हो गई हैं वो, कोई दिल नहीं है उनके पास. तो मैंने पूछा कि क्या वो बिना दिल की चीफ मिनिस्टर हैं? गिलानी साहब का साफ़ जवाब था कि हां, बिना दिल की, बिल्कुल बिना दिल की. अब मैंने उनसे राजनीतिक सवाल पूछा कि आज की सरकार के लिए आपकी क्या नसीहत है?

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