तो इसमें ऐसी कौन सी चीज़ पॉलिटिक्स के अलावा रह गई, जो पॉलिटिक्स की वजह से नहीं हो पाई? क्या आपने अपने बच्चों को पूरा वक्त दिया? मैं यह पूछ रहा था और गिलानी साहब इन सवालों से थोड़े से असहज तो नहीं हुए, लेकिन थोड़े ज्यादा मानवीय हो गए और शायद मेरा आख़िरी वाक्य कि क्या आपने अपने बच्चों को पूरा वक्त दिया, उन्हें कुछ असहज कर गया. उन्होंने पहले मेरी तरफ़ देखा फिर अपने बेटे नसीम की तरफ़ देखा, जो वहां बैठे हुए थे.

बोले, हां ये चीज़ें मेरे मन में रही तो हैं. आगे उन्होंने कहा कि यह मेरा दूसरा लड़का है. इससे बड़ा नईम है, वो डॉक्टर है और ये भी डॉक्टर हैं, लेकिन फिलॉसिफी में. ये 11 महीने के थे, जब इनकी मां का देहांत हो गया. इनकी मां के देहांत के बाद एक ख़ातून, जो हमारे यहां टीचर के तौर पर रह रही थीं, इन्होंने अपना सारा बचपन बांदीपोरा में उनके साथ रह कर काटा, बल्कि बचपन ही नहीं, ये यूनिवर्सिटी तक बांदीपोरा में ही रहे.

जब गिलानी साहब ये कह रहे थे, तब मुझे उनके चेहरे की रंगत और आंखों की रंगत में कुछ कसक दिखाई दी और मैंने उनसे पूछा कि इन्होंने आपके साथ बचपन नहीं गुज़ारा, इसका मतलब आपके मन में एक कसक है कि बच्चों का बचपन आप नहीं देख पाए. ये कैसे बड़े हुए, कैसे चोट खाई, कैसे खेले, कैसे लड़े-झगड़े, कैसे चीज़ें मांगीं.

गिलानी साहब ने एक सेकेंड का पॉज रखा और मेरी ओर देखकर बोले, हां मैं जाता था बांदीपोरा, इन्हें देखता था, मुलाक़ात करता था, लेकिन इस सारी अवधि में ये वहीं रहे. इन्होंने अपना बचपन उन ख़ातून के साथ ही गुज़ारा. मैंने पूछा कि क्या ऐसा इसलिए कि घर में कोई संभालने वाला नहीं था? आप व्यस्त थे बहुत सारी चीज़ों में, शायद सियासत में. गिलानी साहब ने कहा, नहीं-नहीं, उन ख़ातून ने इनको बड़े प्यार से रखा और उन्होंने मुझसे कहा था कि जब ये एमए कर लें, तब आप इनको अपने घर ले जाएं, तब तक मैं इनकी देखभाल करूंगी.

फिर मैंने अचानक गिलानी साहब से पूछा कि जब बीच में गैप रहता था, इन लोगों से मिलने के बाद तो आपको ये दोनों बच्चे कितना याद आते थे? गिलानी साहब ने बिना रुके जवाब दिया, याद तो आती थी, हर वक्त याद आती थी. अब मैंने उनसे पूछा कि याद तो आते ही होंगे, आपके बच्चे हैं. लेकिन एक याद होती है कि याद आई और आप चल दिए, वहां पर बच्चों सें मिलने के लिए और एक याद होती है कि पता कर लिया कि ख़ैरियत से हैं या नहीं हैं.

किस तरह की याद थी आपकी? अब गिलानी साहब गहरी नज़रों से मुझे देख कर बोले, नहीं-नहीं-नहीं, जब याद आती थी, तो चले जाते थे, लेकिन मसरूफ़ियत (व्यस्तता) तो रहती थी. इसलिए बार-बार नहीं जाया जा सकता था, लेकिन जब गहरी याद आती थी, तो मैं चला जाता था. फिर मैंने पूछा कि पॉलिटिक्स में आने के  बाद ऐसा हुआ होगा, जब बच्चे बड़े हो गए होंगे, तब आप पॉलिटिक्स की वजह से इन्हें वक्त नहीं दे पाए होंगे. गिलानी साहब ने सर हिलाते हुए कहा, हां बिल्कुल, अक्सर मसरूफ़ियत रहती थी.

अब मुझे लगा कि थोड़ा सवाल बदलना चाहिए, तो मैंने उनसे पूछा कि आपको इसका थोड़ा भी मलाल नहीं है कि इन दोनों बच्चों को जितना वक्त देना चाहिए था, आप नहीं दे पाए? आपको ऐसा नहीं लगता कि जैसे आप सिखाते वैसे ये सीखते, जैसे आप ढालते वैसे ये ढलते? ये वैसे नहीं बन पाए. अगर आपका डायरेक्शन होता, तो शायद कुछ अच्छा बनते. तो गिलानी साहब ने कहा, मैं आपको क्या बताऊं, ये ख़ुद ही पढ़ते रहे और ख़ुद ही देखते रहे कि हमारे अब्बा क्या कर रहे हैं? इसमें उस सिचुएशन का असर है.

इन्होंने यह समझा और अब ये कहते हुए कि अब्बू ने एक स्टैंड लिया है, जम्मू-कश्मीर के बारे में या सियासत के बारे में. उसपर ये दृढ़ता से डटे रहे हैं, इसका इनको अहसास है और इनकी ख्वाहिस भी है. इनका मशवरा भी है और ये कहते भी हैं कि जब सारी उम्र आप एक स्टैंड पर रहे हैं, अब आख़िरी दौर में भी आपको उसी पर इस्तक़ामत का मुज़ाहिरा करना चाहिए. मतलब आप अब तक जिस स्टैंड पर रहे हैं, आख़िरी दौर में भी आपको उसी के ऊपर दृढ़ता से डटे रहना चाहिए. इन दोनों बच्चों का हमेशा यही मशवरा होता है.

मैंने गिलानी साहब से सियासत को लेकर सवाल पूछा कि जब आप इतने दिन पॉलिटिक्स में रहे हैं, तो आपके कई डिसाइपल्स (शिष्य) रहे होंगे, जिन्होंने आपके साथ काम किया होगा, साथी होंगे, जिन्होंने कंधे से कंधा मिलाकर काम किया होगा. उनमें से किसके ऊपर आपको नाज़ है और किसके ऊपर गुस्सा है, किसने सही काम नहीं किया? गिलानी साहब ने जवाब दिया, जितने भी साथ रहे, उन्होंने काम किया, अच्छा काम किया. अब मुझे लगा कि मैं गिलानी साहब से पूछूं और मैंने पूछा भी कि ये तो पॉलिटिकल स्टेटमेंट हो गया.

ऐसा होता है न कि आदमी बहुत अच्छा है, इसने बहुत अच्छा काम किया, काश ये वाला अच्छा करता, तो उसमें एक मोहब्बत होती और बहुत सारे लोग हैं, जिन्होंने किया, अगर ये कर लेता, तो ये चीज़ नहीं बिगड़ती. ऐसे लोग ज्यादा नहीं होते, पांच-छह-सात साथी, जिनको आपने सिखाया होगा, जिनको अपना हुनर दिया होगा, लड़ने का जज्बा दिया होगा, सपने देखने की ताक़त दी होगी. उस लिहाज़ से कुछ लोगों के बारे में बताइए, थोड़ा एनलाइज कीजिए. गिलानी साहब ने बहुत छोटा जवाब दिया, नहीं, इसकी ज़रूरत नहीं है, बिल्कुल इसकी ज़रूरत नहीं है.

मैंनें ज़िद की कि आप इसको एव्वाइड क्यों कर रहे हैं? इसपर गिलानी साहब ने कहा कि एव्वाइड इसलिए, क्योंकि हमारा जो दीन है, दीन कहते हैं, निज़ाम को, सिस्टम को, वो हमको इजाज़त नहीं देता कि किसी की कमज़ोरियों को उभारा जाए. मैंने मुस्कुरा कर पूछा, पर कमज़ोरियों पर गुस्सा तो आता ही होगा आपको? गिलानी साहब ने मेरी तरफ़ देखा और शायद थोड़ा समझाने के अंदाज़ में कहा कि नहीं गुस्सा क्यों आता है?

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