पूरा देश नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार के एक वर्ष पूरा होने को लेकर उत्सुक है. एक तऱफ एनडीए ने पिछले एक साल की उपलब्धियां लोगों को बताने के लिए देश भर में बड़े पैमाने पर रैलियां करने की घोषणा की है, वहीं कांग्रेस पार्टी ने भी सरकार की वादा़िखला़फी पर हमला बोल दिया है. बहरहाल, हम इस एक साल का आराम से, बिना किसी लाग-लपेट के विश्लेषण करते हैं.

kaam-kam-baatein-jyadaचुनाव अभियान के दौरान भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी द्वारा जगाई गई उम्मीदें बहुत सारे राजनीतिक प्रेक्षकों के लिए अवास्तविक किस्म की थीं. ये ऐसे राजनीतिक प्रेक्षक हैं, जो पक्षपात रहित हैं. इसलिए मेरे जैसे आदमी निराश नहीं हैं, क्योंकि मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी कि यह सरकार एक साल में कोई चमत्कार कर सकती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाग्यशाली रहे कि पिछले साल मानसून काफी ठीक था और खाद्यान्न उत्पादन नीचे नहीं गया. इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर तेल की क़ीमतों में कमी आई. इससे विकास और योजनाओं के लिए और अधिक धन आवंटित करने का मा़ैका वित्त मंत्री को मिला. विडंबना यह है कि आलोचना भी हुई, तो कॉरपोरेट सेक्टर से, जो पिछले साल और इस साल के बजट से भारी राहत व गिफ्ट की उम्मीद कर रहा था, जो नहीं मिला. मैं इसे ज़्यादा महत्व नहीं देता, क्योंकि कॉरपोरेट सेक्टर कभी खुश नहीं होगा. आइए, सरकार की खुद की योजनाओं पर सरकार का परीक्षण करते हैं. स्वच्छ भारत और गंगा स़फाई आदि योजनाओं के तत्काल परिणाम नहीं निकलते. आप एक साल में स्वच्छ भारत नहीं बना सकते हैं. वैसे ही आप तुरंत गंगा को सा़फ नहीं कर सकते हैं.
लेकिन, इन दो बिंदुओं के बारे में यह समझना चाहिए कि भारत को स्वच्छ बनाना केंद्र सरकार का काम नहीं है, प्रधानमंत्री का काम नहीं है. यह ग़ैर सरकारी संगठनों, पंचायतों, नगर पालिकाओं, स्थानीय निकायों का काम है. वास्तव में देश स्वच्छ बनाया कैसे जाएगा, इसके लिए कोई नीति सामने नहीं लाई गई है, यह निराशाजनक है. दूसरे, गंगा की स़फाई पर बात करें, तो तथ्य यह है कि हर साल जब बर्फ पिघलती है, तो इतना पानी आता है, जिससे गंगा खुद ही सा़फ हो जाती है. स्वच्छ गंगा के लिए जो हमें करना है, वह है नहीं करना. नहीं करना यानी हमें कारखानों से निकलने वाला औद्योगिक अपशिष्ट, चमड़े के उद्योग से निकलने वाले कचरे को गंगा में नहीं डालना है, जो हर रोज गंगा को प्रदूषित कर रहे हैं. यदि इस प्रदूषण से हम निपट लें, तो गंगा स्वच्छ रहेगी. गंगा को सा़फ करने के लिए किसी भी योजना में पैसा लगाने की बजाय हमें वह पैसा इन अपशिष्ट पदार्थों के ट्रीटमेंट पर खर्च करने की ज़रूरत है, ताकि आगे से ये पदार्थ गंगा में जाएं ही नहीं. मुझे इस योजना की विस्तृत जानकारी नहीं है. राजीव गांधी जब सत्ता में आए, तब उन्होंने 1985 में एक गंगा प्राधिकरण बनाया था. 29 सालों के बाद हम वही दोहरा रहे हैं. असल में, इस सब में बहुत कम परिणामों के साथ बहुत सारा पैसा खर्च हो जाएगा.
दूसरी एक बड़ी बात है, मेक इन इंडिया, जिसका नारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिया है. आइए, इसकी वास्तविकताओं को समझते हैं. 1990 में भारतीय रेलवे नेटवर्क का आकार चीन से भी बड़ा था. आज 25 सालों के बाद चीन का रेल नेटवर्क भारत से चार गुना बड़ा है. यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन है. अगर हम चाहते हैं कि भारत में मेक इन इंडिया हो, यह सफल बने, तो इसके लिए ज़रूरी है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के माध्यम से पैसे आएं. हमें एक्सचेंज पॉलिसी की ज़रूरत होगी, ताकि निर्यात में सुधार हो सके. एक मौद्रिक नीति की ज़रूरत है, ब्याज दरों में कटौती की ज़रूरत है, यह सब एकीकृत है. एक पर्यवेक्षक के रूप में मैं ऐसा कोई संकेत नहीं देख रहा हूं. आज क्या हो रहा है? ऊंची ब्याज दर, उच्च रुपया मूल्य, ये दोनों अमेरिकी निवेशकों को मदद करने के लिए हैं. वे भारत के लिए पैसा भेजकर शेयर बाज़ार या अन्य आर्बिट्राज के ज़रिये कमा कर पैसा वापस ले जा सकते हैं. कोई भी भारत में मेक इन इंडिया में निवेश नहीं करेगा, क्योंकि मुद्रास्फीति की दर ऊंची है. डॉलर की अन्य मुद्राओं या रुपये से तुलना करके अंतर को देखें. डॉलर रुपये के म़ुकाबले मजबूत होता जा रहा है. रुपया कमज़ोर होता जा रहा है, क्योंकि हमने एक

कृत्रिम दर को बनाए रखा है. ज़रूरत है कि रुपये को थोड़ा नीचे आने दें, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि यह नारा दिया गया था कि कांग्रेस ने रुपये को कमज़ोर कर दिया और हम इसे 40 रुपये प्रति डॉलर तक ला देंगे. आरएसएस के लोग कह रहे हैं कि हम एक रुपये को एक डॉलर के बराबर कर देंगे. वे असल में यह नहीं समझते कि वे क्या बोल रहे हैं. मैं उन्हें दोष नहीं दे रहा, क्योंकि वे अर्थशास्त्री नहीं हैं. मैं आर्थिक समाचार-पत्रों को छोड़कर अन्य समाचार-पत्र को दोष नहीं देता, लेकिन मैंने यह भी नहीं देखा कि किसी भी लेखक ने यह लिखा हो कि अगर निवेश चाहिए, विनिर्माण क्षमता चाहिए, तो रुपये को थोड़ा नीचे आने दें और एक्सचेंज रेट में कटौती करें. आज जो एक्सचेंज रेट है, उसमें आप कैसे निर्यात करेंगे?
इसलिए मैं नहीं समझता कि मेक इन इंडिया का नारा हमें कहीं ले जाएगा. एक साल बीत चुका है, स़िर्फ चार साल बाकी हैं. मैं नहीं समझता कि सरकार को यह पता है कि क्या करने की ज़रूरत है. दुर्भाग्य से रिजर्व बैंक के गवर्नर, आर्थिक सलाहकार और वित्त राज्यमंत्री सभी अमेरिकी, ब्रेटन वुड्स, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक से जुड़े रहे हैं. यह मदद नहीं करेगा. जब चीन ने बड़ा बुनियादी ढांचा बनाने की सोची, तो उसने यह नहीं सोचा कि अमेरिका क्या सोचता है. चीन ने स्वयं के परिणाम प्राप्त करने के लिए अपने तरीके से अपनी नीतियां बनाईं. एक बार आप मजबूत हो जाते हैं, तो आप सब कुछ समायोजित कर सकते हैं. जब हम अभूतपूर्व रूप से विदेशी मुद्रा रिजर्व की बात करते हैं, तो यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन के पास भारत के मुक़ाबले चार गुना अधिक विदेशी मुद्रा रिजर्व है. चीन के साथ अपने आपकी तुलना करना तो ठीक है, लेकिन जब हम कहते हैं कि उसके साथ हमारा 70 बिलियन का व्यापार है, तो उसमें 55 बिलियन का सामान वह हमें बेच रहा है और हमें 40 बिलियन का घाटा हो रहा है. मैं वित्त मंत्री को दोष नहीं दे रहा हूं, क्योंकि वह एक अर्थशास्त्री नहीं हैं, लेकिन निश्चित रूप से उन्हें अपने साथ कुछ बेहतर सोच वाले लोगों को रखने की ज़रूरत है.
प्रेस बहुत ही कैजुअल रवैया अपना रहा है. प्रधानमंत्री के बारे में दो आलोचनाएं पढ़ने को मिलीं. इन दोनों आलोचनाओं को ग़लत ढंग से प्रस्तुत किया गया. एक तो यह कि वह अक्सर विदेश यात्रा पर रहते हैं. इसका कोई अर्थ नहीं है. प्रधानमंत्री को विदेश जाना ही पड़ता है. या तो दूसरे राष्ट्र के प्रमुख यहां आते हैं या फिर हमारे प्रधानमंत्री दूसरे देशों में जाते हैं. एक मज़ाक चल रहा है कि हमारे प्रधानमंत्री भारत की यात्रा पर हैं. यह एक घटिया मज़ाक है और पूरी तरह से अनुचित है. दूसरा यह कि उनके नाम वाले सूट को लेकर आलोचना होती है. यह सब ऐसे बोलने-सुनने के लिए तो ठीक है, लेकिन ये बातें उनके या उनके कामकाज की आलोचना का केंद्रीय विषय नहीं बन सकतीं. इस सरकार की चूक कुछ और है, ग़लतियां कुछ और हैं, लेकिन प्रेस गंभीर नहीं है. गंभीर लेखन और गंभीर स्तंभकार नहीं हैं. बेसिर-पैर की बातें कही और लिखी जा रही हैं. एक साल पूरा होने पर वित्त मंत्री ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और कहा, सही कहा कि एक साल में प्रधानमंत्री ने प्रधानमंत्री के अधिकार को पुन:प्रतिस्थापित किया है, क्योंकि पिछले प्रधानमंत्री पार्टी अध्यक्ष के दिशा-निर्देशों पर काम कर रहे थे. प्रेस को वह बात कहनी चाहिए थी, जो वित्त मंत्री ने कही, लेकिन कहा यह गया कि नरेंद्र मोदी ने पीएमओ को मजबूत बना दिया है. ऐसी रिपोर्टिंग हो रही है. प्रधानमंत्री कार्यालय का मतलब पीएमओ नहीं है, पीएमओ को कोई अधिकार नहीं है, प्रधानमंत्री कार्यालय एक सचिवालय है.
वह जो कहने की कोशिश कर रहे थे, उसका मतलब है कि प्रधानमंत्री की सत्ता स्थापित हुई. पत्रकारों के पढ़ने-लिखने के तरीके ऐसे हैं, जिससे वे सरकार को मदद करने, मार्गदर्शन देने में सक्षम नहीं हैं. मैं व्यक्तिगत तौर पर यह मानता हूं कि हमारे पास एक सरकार है, जो अगले चार सालों तक शासन चलाने वाली है. अगर देश को लाभ प्राप्त करना है, तो हमारे पास स्पष्ट नीतियां होनी चाहिए. वित्त मंत्री ने कहा कि लोगों की आकांक्षा बहुत ज़्यादा है, लेकिन यह आकांक्षा ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में समान नहीं है. ग्रामीण क्षेत्रों में लोग रा़ेजगार के अवसर चाहते हैं. भगवान का शुक्र है कि इस सरकार ने यह समझा कि मनरेगा मददगार साबित हो सकती है. लीकेज वहां भी है, हर जगह है, लेकिन यह कह देना समझदारी नहीं है कि यह एक ग़लत योजना है और इसलिए इसकी आलोचना हो. इसने ग़रीबों एवं ग्रामीणों को मदद दी और आज आप इन क्षेत्रों में जो भी थोड़ी-बहुत समृद्धि देख रहे हैं, वह ऐसी योजनाओं का परिणाम है. ठीक है कि पंचायत स्तर, स्थानीय स्तर पर भ्रष्टाचार फैला, लेकिन ग़रीब लोगों को वास्तव में मदद मिली.
सरकार के पास हाल ही में स्थापित ब्रिक्स बैंक का पहला चेयरमैन नियुक्त करने का एक अवसर था. बहुत से नाम आए, लेकिन अंतिम नियुक्ति कुल मिलाकर निराशा भरी रही. सरकार ने इसके लिए केवी कामथ का नाम चुना. उन्हें इस पद के लिए औसत दर्जे का माना जा सकता है. उन्हें वहां किसी को पैसा उधार देने के लिए नहीं जाना था. ब्रिक्स बैंक को विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुक़ाबले दुनिया के वित्तीय ढांचे को बदलने का काम करना है. ऐसी उससे उम्मीद की जा रही है. यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के नाम भी आए थे और मेरे जैसा आदमी इससे खुश था. यशवंत सिन्हा पहले भी दुनिया के वित्तीय ढांचे को बदलने की बात कहते रहे हैं और वह शंघाई में अपनी छाप छोड़ सकते थे. मैं इन नामों से बहुत खुश था. यह कहा जाता है कि मोदी अपने कुछ नौकरशाहों द्वारा कुछ ज़्यादा ही निर्देशित होते हैं. वरिष्ठ आईएएस अधिकारी कह रहे हैं कि हमारे मंत्रियों के पास कोई पॉवर नहीं है, इसलिए हमें ही नोट्स और स्कीम्स बनाकर पीएमओ को भेजने हैं, जो वहां से फिर कभी वापस नहीं आते. या तो पीएम बहुत व्यस्त हैं या प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी इस बात से सहमत नहीं हैं. कुछ वरिष्ठ आईएएस अधिकारी, नाम न छापने की शर्त पर, बताते हैं कि मनमोहन सिंह के शासन के मुक़ाबले अभी अधिक पॉलिसी पैरालिसिस की हालत है. यह सब मैं नहीं जानता, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि कैबिनेट और सांसदों की क्षमता कम है. इसलिए जब तक आप बाहर से विशेषज्ञों का मार्गदर्शन और सलाह नहीं लेते हैं, तब तक आप कोई कठोर नीतिगत सुधार या कार्यान्वयन सफलता हासिल नहीं कर सकते.
अब तक उपेक्षित रहा एक और सेक्टर है, कृषि और सिंचाई. अगर अभी हम कुछ नहीं करते हैं, तो पांच-दस सालों के बाद हम फिर से मुसीबत में होंगे. आज हमारे पास पर्याप्त खाद्य उत्पादन है, लेकिन जनसंख्या में वृद्धि के साथ यह आगे के लिए काफी नहीं होगा. इस सबके लिए विशेष टीम बनाने की ज़रूरत है. मैं देख सकता हूं कि आज की कैबिनेट में ज़्यादा प्रतिभा नहीं है. वे बस अपना काम कर रहे हैं. यदि नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा लेते हैं और उनके मंत्री भ्रष्ट नहीं होते हैं, तो यह एक बड़ी बात है. लेकिन, उन लोगों के पास कोई शानदार आइडिया (विचार) नहीं है. नकारात्मक पक्ष को देखें, तो मैं देखता हूं कि सरकार ने एक ऐसे व्यक्ति को रक्षा मंत्री नियुक्त किया है, जो अपने राज्य यानी गोवा में बहुत लोकप्रिय है, रंगीन शर्ट पहनता है, रविवार की सुबह खुद के लिए सब्जी खरीदने बाज़ार जाता है. बिना सुरक्षा, ताम-झाम के लोग यह सब देखकर उत्साहित होते हैं कि हमारा मुख्यमंत्री कितना सिम्पल है. यह सब गोवा जैसे राज्य के लिए ठीक है. गोवा एक टूरिस्ट स्टेट है. देश के रक्षा मंत्री का काम बिल्कुल अलग होता है. पहले वह एक बयान देते हैं. मैं इसका पूर्ण विवरण नहीं दे सकता, क्योंकि इससे हमारा विदेशी हित प्रभावित होगा. क्या किसी भी देश का कोई रक्षा मंत्री यह खुलेआम बोलेगा कि विदेश में हमें कोई जासूस मिल गया है? जाहिर है, रक्षा मंत्री इस तरह से नहीं बोलता है. हमारे रक्षा मंत्री ने कहा कि हम कश्मीर में आतंकियों के ज़रिये आतंकियों से निपटेंगे. रक्षा मंत्री को ऐसे नहीं बोलना चाहिए. कुल मिलाकर स्थिति अच्छी नहीं है.
प्रधानमंत्री को ऐसे लोगों के विभाग बदल देने चाहिए. मैं समझता हूं कि पहला साल पूरा होने पर कैबिनेट में फेरबदल पहला आवश्यक क़दम है. सक्षम लोगों को जगह दें और उन्हें एक-एक लक्ष्य दे दें. यदि प्रधानमंत्री मेक इन इंडिया को लेकर गंभीर हैं, तो उन्हें यह लक्ष्य देना चाहिए कि कितने कारखाने स्थापित होने हैं, क्या उत्पाद बनाने हैं, कितना निर्यात करना है और इस सबके लिए जो भी नीति बदलनी है, बदल दीजिए. हर वक्त, हर काम के लिए अमेरिका को सुनने की ज़रूरत नहीं है. अमेरिका आपकी कम ही मदद कर सकता है. चीन का अनुपालन करना ज़्यादा अच्छा है. चूंकि हमारे प्रधानमंत्री चीन से प्रभवित हैं, चीन को फॉलो करिए. चीन निजी क्षेत्र को खनन की अनुमति नहीं देता, बैंक को निजी हाथों में नहीं देता. चीन एक लक्ष्य देता है और उसे किसी तरह पूरा करता है. ठीक है कि चीन के उलट हमारे यहां लोकतंत्र है, लेकिन लोकतंत्र के भीतर भी आप बहुत कुछ कर सकते हैं. अगर आपके पास लक्ष्य है, तो आप उसे क्रियान्वित करेंगे. अगर नहीं है, तो फिर क्या करेंगे? आप कांग्रेस के मनरेगा मॉडल, कृषि विकास, समावेशी विकास को अस्वीकार करने की कोशिश कर रहे हैं. आप यह सब पसंद नहीं करते हैं. ऐसे में आपकी नई पॉलिसी कागज पर ही रह जाएगी, क्योंकि बाकी की मशीनरी इसके लिए तैयार नहीं है. इसलिए प्रधानमंत्री को तत्काल अपना दिमाग इस्तेमाल करना चाहिए.
अब नीति आयोग को लें. मुझे नहीं लगता कि किसी को इसके कार्यों के बारे में जानकारी होगी. हम लोग योजना आयोग के कार्यों को जानते थे, लेकिन अब नीति आयोग है. आप अमेरिका से एक अर्थशास्त्री ले आए. योजना आयोग के उपाध्यक्ष को कैबिनेट रैंक मिलता था, इस आदमी को कैबिनेट रैंक भी नहीं दिया गया है. मैं समझता हूं कि नौकरशाह उसे यह रैंक नहीं देना चाहते थे. आप किसी का अपमान नहीं कर सकते. मुझे नहीं मालूम कि वह आदमी यहां क्यों काम कर रहा है? उसे अमेरिका वापस चले जाना चाहिए. उसे यहां वह सब कुछ नहीं मिल रहा है, जिसका वह हक़दार है. नीति आयोग आ़िखर करेगा क्या? क्या वह योजना बनाएगा? क्या वह पांच वर्षीय योजना बनाएगा या हर एक साल के लिए बजट बनाएगा और आवंटन का काम करेगा? यह सब स्पष्ट होना चाहिए, नहीं तो नीति आयोग जैसी संस्था बिना किसी उद्देश्य के एक और थिंक टैंक बनकर रह जाएगी.
इसलिए मुझे लगता है कि एक साल के दौरान इस सरकार में कुछ भी नकारात्मक नहीं घटा. यह बताते हुए खुशी हो रही है कि मेरे जैसे व्यक्ति के मन में जो डर था कि सांप्रदायिक दंगे होंगे और बहुसंख्यक खुद को दूसरे पर थोपेंगे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, सिवाय स्थानीय स्तर पर कुछ चर्चों पर हमले के. एक हद तक यह राहत की बात है, लेकिन सकारात्मक पक्ष पर बहुत कुछ किया जाना चाहिए. मैंने कहीं पढ़ा है कि जिन लोगों ने भाजपा को वोट दिया है, वे खुश हैं. जिन्होंने भाजपा को वोट नहीं दिया है, वे कह रहे हैं कि अच्छे दिन नहीं आए. लेकिन यह भी सच है कि जिन लोगों ने बहुत उम्मीद में मोदी को वोट दिया था, वे आज निराश हैं. मेरे जैसे लोग, जिन्हें कभी बहुत अधिक उम्मीद नहीं रही, बेहतर स्थिति में हैं. आज अगर यूपीए-3 सरकार होती, तो उसका पहला साल भी वैसा ही होता, जैसा आज एनडीए सरकार का है. न नकारात्मक और न अधिक सकारात्मक. यदि मोदी सरकार सचमुच यह दिखाना चाहती है कि वह अलग है, तो उसे अभी बहुत-बहुत काम करना होगा.

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