आज पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं, बदल रहे हैं अथवा बदल दिए गए हैं, नतीजतन, उन पत्रकारों के सामने भटकाव जैसी स्थिति आ गई है, जो पत्रकारिता को मनसा-वाचा-कर्मणा अपना धर्म-कर्तव्य और कमज़ोर-बेसहारा लोगों की आवाज़ उठाने का माध्यम मानकर इस क्षेत्र में आए और हमेशा मानते रहे. और, वे नवांकुर तो और भी ज़्यादा असमंजस में हैं, जो पत्रकारिता की दुनिया में सोचकर कुछ आए थे और देख कुछ और रहे हैं. ऐसे में, 2005 में प्रकाशित संतोष भारतीय की पुस्तक-पत्रकारिता: नया दौर, नए प्रतिमान हमारा मार्गदर्शन करती और बताती है कि हमारे समक्ष क्या चुनौतियां हैं और हमें उनका सामना किस तरह करना चाहिए. चार दशक से भी ज़्यादा समय हिंदी पत्रकारिता को समर्पित करने वाले संतोष भारतीय देश के उन पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं, जो देश और समाज से जुड़े प्रत्येक मुद्दे पर निर्भीक, सटीक, निष्पक्ष टिप्पणी करते हैं.

chauthi-duniya-2-001क्या आपने कोई ऐसा औघड़ देखा है, जो सामाजिक कुरीतियों से, जनता के बीच व्याप्त अंधविश्‍वासों से लड़ने के लिए हमेशा तत्पर रहता हो? जो कुष्ठ रोगियों की स्वयं सेवा करता हो और अपने पास आने-जाने वालों को ध्यान करने की नहीं, देश की समस्याओं की ओर ध्यान देने की प्रेरणा देता हो?

वाराणसी के भगवान राम अपने अतीत और अपनी साधना में खरे औघड़ तो थे ही, पर अपनी जीवनचर्या में किसी भी सामाजिक या राजनीतिक नेता से कई क़दम आगे भी थे. सहज ही चमत्कार पर चमत्कार घटित होते थे, बल्कि उनकी विशिष्टता इस बात में थी कि उन्होंने अध्यात्म की साधना को एक व्यापक सामाजिक आयाम दिया था. औघड़ भगवान राम को उनके चाहने वाले बाबा या सरकार कहते थे, आज भी कहते हैं. वह इतने सहज थे कि उनके पास चाहे साधारण व्यक्ति अपनी समस्याएं लेकर जाता हो या इंदिरा गांधी, जगजीवन राम या मोरारजी देसाई जैसे व्यक्तित्व, सब अपनी-अपनी ऊर्जा और अपने-अपने समाधान आसानी से पा जाते थे. आज वह हमारे बीच नहीं हैं, पर उन्होंने इतने लोगों को ऊर्जावान किया है तथा इतना कुछ सहज और सरल भाषा में कहा है, जो प्रेरणा देता रहता है. मैंने उनसे काफी कुछ जानने की कोशिश की थी, पर वह इतने संकोची थे कि बताने के साथ ही लिखने से रोकते जाते थे. मेरे क्यों पूछने पर उन्होंने कहा था कि वह नहीं चाहते कि समाज अपने उद्यम की जगह चमत्कारों की शरण में जाने लगे. जितना भी मैंने लिखा, यह उसका एक छोटा हिस्सा है, जो उन्होंने मुझे बताया था. ऐसी बहुत-सी घटनाओं का न केवल मैं साक्षी रहा हूं, बल्कि रविवार के तत्कालीन संपादक स्वर्गीय सुरेंद्र प्रताप सिंह भी उनसे विशेष रूप से मिले थे तथा मुझे फोन कर कहा था कि बाबा पर और भी रिपोर्ट होनी चाहिए. बाबा ने बाद में कुछ भी लिखने से रोक दिया था. मैंने उन्हीं विशिष्ट और अद्वितीय औघड़ को अपने नज़रिये से समझने की कोशिश की तथा औघड़ की अजब अनोखी दुनिया का एक लघु-वृत्तांत आपके सामने रखने की कोशिश कर रहा हूं.

सन् 73 की दुर्गापूजा. बनारस में नवरात्रि का अनुष्ठान चल रहा था. प्रत्येक दिन शाम को औघड़ भगवान राम का प्रवचन होता था. इसी क्रम में एक दिन उन्होंने यह कहानी सुनाई, एक देश था. उसके राजा ने अपनी औलाद और परिवारजनों की सुख-सुविधा के लिए उस राष्ट्र के निर्माताओं को प्रताड़ित करना प्रारंभ किया तथा उन्हें जेल में बंद कर दिया. उससे त्राण पाने के लिए हमारे-आपके घर-आंगन से दो लड़के उधर गए और उन्होंने जनशक्ति को संगठित किया. उस जनशक्ति से जो ज्वाला निकली, वही दुर्गा और काली थीं. जनशक्ति ही शक्ति है. मार्च 74 से जयप्रकाश का विशाल जन-आंदोलन प्रारंभ हुआ. औघड़ भगवान राम के कई भक्त इस घटना को बाबा द्वारा आंदोलन के बारे में दिया गया पूर्व संकेत मानते हैं. लाल बहादुर शास्त्री के असामयिक निधन के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए होने वाले चुनाव में इंदिरा गांधी और मोरारजी देसाई के बीच संघर्ष होने वाला था. मोरारजी भाई के घर पर पत्रकार सम्मेलन चल रहा था कि औघड़ भगवान राम वहां पहुंच गए. मोरारजी भाई के पास संदेश गया, तो उन्होंने कहलवाया कि उन्हें बैठाइए, मैं थोड़ी देर में फुर्सत से उनके साथ बैठूंगा. जिसने यह संदेश बाबा को दिया, उससे बाबा ने कहा, उन्हें जल्दी ही फुर्सत मिल जाएगी, तब मुलाकात होगी. इस घटना के दो दिन बाद चुनाव हुआ तथा मोरारजी भाई हार गए. अब उनके पास फुर्सत ही फुर्सत थी.

सन् 64 में यज्ञ नारायण चतुर्वेदी के साथ बाबा दिल्ली में थे. उसी समय भुवनेश्‍वर कांग्रेस होने वाली थी. बाबा पैदल दिल्ली में टहल रहे थे. एकाएक रुक गए तथा कहा, चतुर्वेदी जी, आपको कुछ महसूस हो रहा है? चतुर्वेदी जी ने कहा, नहीं तो. बाबा बोले, लग रहा है, दिल्ली में कोई बहुत बड़ी लाश सड़ रही है. इसके कुछ दिन बाद ही जवाहर लाल नेहरू अस्वस्थ हुए और चल बसे. उपर्युक्त घटनाएं चमत्कारपूर्ण प्रतीत होती हैं और सामान्य बुद्धि उन्हें स्वीकार करने से इंकार कर देती है.

जनता पार्टी की जीत के बाद मोरारजी प्रधानमंत्री बने. पूर्वांचल के दौरे के समय उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया. पांच चालकों को जान से हाथ धोना पड़ा तथा बाकी सबको चोटें आईं, पर मोरारजी भाई बिल्कुल सुरक्षित थे. इस दौरे से एक दिन पहले औघड़ भगवान राम अचानक, बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के हवाई जहाज से दिल्ली पहुंच गए. उन्होंने मोरारजी देसाई के यहां फोन कराया, तो पता चला कि नहीं हैं. अगले दिन जब मोरारजी भाई उनसे प्रात: आठ बजे मिले, तो उन्होंने मोरारजी से पूछा कि क्या यह यात्रा टाली नहीं जा सकती? मोरारजी ने कहा कि प्रधानमंत्री की प्रस्तावित यात्रा पर बहुत अधिक खर्च होता है, इसलिए इसे स्थगित करना उचित नहीं होगा. बाबा कुछ देर चुप रहे, फिर उन्होंने लौंग-इलायची मंगवाई, उसे सूंघकर व हृदय से लगाकर मोरारजी भाई को दी तथा तत्काल वाराणसी लौट गए. यह घटना बयान करते हुए उत्तर प्रदेश बार काउंसिल की अनुशासन समिति के अध्यक्ष सागर सिंह ने जोर देकर कहा कि मोरारजी की नई ज़िंदगी औघड़ भगवान राम द्वारा बख्शी गई है, इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है.

सन् 64 में यज्ञ नारायण चतुर्वेदी के साथ बाबा दिल्ली में थे. उसी समय भुवनेश्‍वर कांग्रेस होने वाली थी. बाबा पैदल दिल्ली में टहल रहे थे. एकाएक रुक गए तथा कहा, चतुर्वेदी जी, आपको कुछ महसूस हो रहा है? चतुर्वेदी जी ने कहा, नहीं तो. बाबा बोले, लग रहा है, दिल्ली में कोई बहुत बड़ी लाश सड़ रही है. इसके कुछ दिन बाद ही जवाहर लाल नेहरू अस्वस्थ हुए और चल बसे. उपर्युक्त घटनाएं चमत्कारपूर्ण प्रतीत होती हैं और सामान्य बुद्धि उन्हें स्वीकार करने से इंकार कर देती है. पर, जो लोग औघड़ भगवान राम के संसर्ग में रहे हैं, उनके लिए यह कहानी नहीं, सच्चाई है. औघड़ भगवान राम बनारस आने से पहले हरिहरपुर आश्रम में रहते थे. जिन्हें चमत्कार कहते हैं, वे सब अधिकांश वहीं हुए. इस आश्रम में वह जब तक रहे, आश्रम की हर पत्ती दवा थी. कैंसर तक के रोगी वहां की पत्तियां खाकर दस साल तक ज़िंदा रहे तथा जब मरे, तो दूसरे रोग से. हरिहरपुर के पास ही मनिहरा पोखरा में रविवार-मंगल को स्नान करने से कोई भी रोग समाप्त हो जाता था. जो भी पागल हरिहरपुर आश्रम में आता था, अपने आप ठीक हो जाता था. ऐसे ठीक होने वाले पागलों से बाबा एक-दो महीने काम कराते थे तथा बाद में भगा देते थे. रात में जो भी बाबा को देख लेता था, पागल हो जाता था. पर बाद में बाबा उसे ठीक कर देते थे. पर वहां ग्राम समाज और पुजारी के बीच चढ़ावे को लेकर झगड़ा शुरू हो गया. बाबा ने वहां जाना बंद कर दिया. और, इसके साथ ही वहां घटने वाले चमत्कारों का सिलसिला बंद हो गया.

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