राजनीतिक जिम्मेदारी का निर्वाह तेजस्वी कैसे करते हैं, यह उनके या लालू प्रसाद के बनिस्वत इस पर अधिक निर्भर करता है कि प्रतिपक्षी और एनडीए की राजनीति उन्हें किस हद तक राहत देती है या उसकी राजनीतिक गतिविधि से जांच एजेंसियां किस हद तक प्रभावित होती है. इस प्रकरण की शुरुआत ही राजनीति से हुई थी, जिसकी राजनीति चरम परिणति बिहार में महागठबंधन की सरकार का पतन और विधानसभा चुनावों में पराजित एनडीए की सत्ता में वापसी रही. इस मामले में अब तक का अनुभव यही रहा है कि राजनीति की सक्रियता जांच एजेंसी की प्रेरक तत्व रही है.

बिहार का मुख्य विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल और लालू परिवार के संकटों का नया दौर आरंभ हो गया है. इस बार संकट की फांस में राबड़ी देवी तो हैं ही, लालू वंश की दूसरी पीढ़ी भी गंभीर रूप से इसके लपेटे में है. संकट का यह दौर राजद सुप्रीमो के परिवार के लिए पिछले सभी संकटों की तुलना में ज्यादा गंभीर और बहुआयामी है. संकट का एक आयाम लालू प्रसाद के घोषित उत्तराधिकारी तेजस्वी प्रसाद यादव के साथ-साथ मीसा भारती के राजनीतिक भविष्य को भी प्रभावित करता दिख रहा है, तो दूसरा आयाम परिवार के भीतर विश्वास व सद्भाव की दीवार को कमजोर कर रहा है.

संकट का एक आयाम राजद की आंतरिक राजनीति भी है, जहां सुप्रीमो की अनुपस्थिति में पुराने और नए साफ शब्दों में लालू प्रसाद के निष्ठावान और तेजस्वी के निष्ठावान के बीच परोक्ष संघर्ष बढ़ता जा रहा है. हालांकि, आइआरसीटीसी होटल घोटाला कांड में सीबीआइ की पटियाला हाउस विशेष अदालत से राबड़ी देवी और तेजस्वी को जमानत मिल गई है, पर यह अंतरिम प्रकृति की ही राहत है. 31 अगस्त को अदालत ने तुरन्त जमानत दे दी, क्योंकि सीबीआइ ने जमानत की अर्जी की कॉपी न होने के नाम पर उसका विरोध नहीं किया और उसने इस मामले में, आगे कभी अपना पक्ष रखने की बात कह कर तलवार लटकती छोड़ दी. हालांकि इस बहाने राजद और महागठबंधन के अन्य दलों के लिए यह जश्न मनाने का एक अवसर तो बन ही गया.

लालू प्रसाद पर आरोप है कि रेल मंत्री रहते उन्होंने रेलवे के रांची और पुरी के होटलों को लीज़ पर देने में नियमों की अनदेखी कर पक्षपात किया और जमीन लेकर एक खास व्यवसायी को होटल दे दिया. इस प्रकरण में वे खुद तो फंसे ही, राबड़ी देवी और तेजस्वी भी इसके फांस में आ गए हैं. इस प्रकरण में सीबीआइ के साथ-साथ प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने भी इन सभी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल कर रखा है. जल्द ही उसकी अदालत में कार्यवाही आरंभ होने का अनुमान है. अर्थात आनेवाले दिनों में तेजस्वी को सीबीआइ अदालत के साथ-साथ ईडी अदालत में भी कानूनी लड़ाई लड़नी है. लालू परिवार व राजद की भावी राजनीतिक रणनीति के बारे में विचार करते वक्त इन नुक्तों को ध्यान में रखना जरूरी है.

इन मामलों की कानूनी गति और ट्रायल के रूख पर लालू परिवार ही नहीं, राजद और महागठबंधन की भावी राजनीति पर भी दारोमदार है. लालू परिवार के वकीलों की पूरी कोशिश होगी कि ट्रायल के दौरान तेजस्वी को अदालत में सशरीर उपस्थिति से मुक्ति मिले. राजनीति के ख्याल से आने वाले महीने काफी महत्वपूर्ण हैं. बिहार में विपक्षी महागठबंधन का नेता राजद है और राजद के नेता तेजस्वी हैं. अभी तो महागठबंधन के दलों के बीच सीटों के बंटवारे का फॉर्मूला तय होना है, सीटों की पहचान कर दलों को आबंटित करना है, राजद के साथ-साथ सहयोगी दलों के उम्मीदवारों के चयन की औपचारिक-अनौपचारिक प्रक्रिया पूरी करनी है. कई तात्कालिक, मगर जरूरी, काम निपटाने हैं. फिर, इतना सब होते-होते चुनाव का बिगुल बज जाना है. विधानसभा में विपक्ष के नेता और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के राजनीतिक उत्तराधिकारी होने के नाते तेजस्वी महागठबंधन के स्टार प्रचारक ही नहीं, सबसे अहम चुनावी रणनीतिकार भी होंगे. ऐसे में उनकी सशरीर पटना में मौजूदगी महागठबंधन की राजनीति की जरुरत होगी.

लेकिन, अगर कोर्ट में उपस्थिति से उन्हें मुक्ति नहीं मिलेगी तो दिल्ली में रहते वे क्या करेंगे, दिल्ली से पटना की भाग-दौड़ किस हद तक करेंगे, यह ध्यान देने की बात है. अर्थात लालू प्रसाद जेल में होंगे और उनके उत्तराधिकारी दिल्ली में. फिर सूबे में एनडीए विरोधी राजनीति को कितनी धार मिलेगी, इस बारे में कुछ कहना कठिन है. यह संकट इसलिए भी काफी गहरा है, क्योंकि राजद के नेतृत्व के किसी स्वीकृत पुराने और विश्वस्त व्यक्तित्व को आगे न आने देने की लालू प्रसाद की पुरानी और आजमाई हुई रणनीति है. वे किसी भी कीमत पर पार्टी के नेतृत्व का चेहरा लालू-वंश से ही चाहते हैं. और यह चेहरा पुत्र ही हो सकता है, यही लालू-राबड़ी की समझ है.

यह सही है कि लालू-राबड़ी के बड़े पुत्र तेजप्रताप यादव कानूनी उलझनों से अभी मुक्त दिख रहे हैं. चूंकि राजनीतिक दृष्टि से उनके बारे में कुछ कहना कठिन है, लिहाज़ा बिहार की राजनीति, विशेषकर लालू-विरोधी राजनीति में वे केन्द्र से बाहर हैं. पर, कब तक उनकी यह स्थिति रहेगी, कहना कठिन है. हालांकि हाल के दिनों में दोनों भाइयों के रिश्ते में काफी बदलाव आया है. अमूमन साथ दिखने वाले दोनों के राजनीतिक कार्यक्रम अलग-अलग तैयार होने लगे हैं. लालू परिवार के लिए कहीं से भी यह शुभ संकेत नहीं है. हाल के महीनों में लालू परिवार में जो कुछ चल रहा था उसकी ही परिणति तेजप्रताप यादव की पटना से सिताबदियारा तक की पदयात्रा है.

परिवार में वर्चस्व की अघोषित जंग चल रही है. पर यह बहुत खुलकर सामने नहीं आ सकी है. तेजप्रताप दो-तीन बार इस मसले को लेकर सोशल मीडिया के पन्ने रंग चुके हैं और हर बार लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की पहल पर पीछे हट गए हैं. दोनों भाइयों के बीच इस माहौल को परिवार के बाहर से तो खाद-पानी मिल ही रहा है, परिवार के भीतर भी इसे खत्म करने की गंभीर सामूहिक पहल नहीं दिखती है. कहते हैं, लालू-राबड़ी की पुत्रियां इससे निरपेक्ष ही रहना ज्यादा पसंद कर रही हैं. उनकी निरपेक्षता दोनों भाइयों के छाया-युद्ध को ताकत दे रही है.

यह सही है कि परिवार जैसी स्थिति राजद के भीतर अभी नहीं बनी है. पर हालत वहां भी अच्छे नहीं हैं. नए-पुराने का विवाद राजद में नीचे तक फैलता जा रहा है. तेजस्वी यादव अपनी खास टीम तैयार कर रहे हैं. पूरे राज्य में राजद के भीतर नया समूह तैयार हो रहा है, जिसकी अखंड निष्ठा केवल तेजस्वी के प्रति है. लालू प्रसाद ने वर्षों पहले परिवार में असहमति के बीच तेजस्वी प्रसाद यादव को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था. विधानसभा चुनाव में जीत के बाद महागठबंधन सरकार में उन्हें उसी अनुसार जिम्मेदारी भी सौंपी गई. बाद में विधानसभा में वे प्रतिपक्ष के नेता भी हुए. लालू प्रसाद की जेल यात्रा के बाद तेजस्वी ने अपनी राजनीतिक परिपक्वता को कुछ हद तक साबित किया. इस दौरान कई उपचुनाव हुए हैं और इनमें राजद ने एनडीए की तुलना में बेहतर राजनीति उपलब्धि हासिल की है. पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को महागठबंधन के दायरे में लाने में तेजस्वी को सफलता मिली.

मनोज झा को राज्यसभा भेजकर, राजद को सामाजिक विस्तार देने की उन्होंने नई पहल की. गैर एनडीए दलों के बीच लालू प्रसाद के उत्तराधिकारी के तौर पर अपनी पहचान भी बनाने की कोशिश की है. पर राजद में नए-पुराने के विवाद को पाटने में अब तक वे कतई सफल नहीं सके हैं. पार्टी के भीतर बुजुर्ग नेताओं, जिन्हें लालू के प्रति निष्ठावान कह सकते हैं, की बड़ी जमात है जो तेजस्वी से अब तक पूरी तरह जुड़ा नहीं है. इनमें मुख्यतः वे लोग हैं, जिनकी विभिन्न सामाजिक समूहों में काफी व़क्त है. लालू प्रसाद की राजनीति में इस जमात की बड़ी भूमिका रही है और हर नाजुक मोड़ पर वे इस जमात के लोगों को आगे रखते रहे हैं. मगर, राजद की मौजूदा राजनीति में यह जमात अलग-थलग दिख रही है. नए लोग आगे आ रहे हैं. हालांकि इसमें कोई खराबी नहीं है, पर जहां ‘काम आबै सुई कहां करे तलवार’. इसलिए इस जमात को साधना और चुनावों में इसका उपयोग तेजस्वी के लिए चुनौती भरा काम होगा.

राजद और तेजस्वी के लिए चुनौती तो महागठबंधन की तरफ से भी कम नहीं है. संसदीय चुनावों में सीटों के बंटवारे को लेकर महागठबंधन और इसके घटक दलों की आंतरिक राजनीति में घमासान का सामने आना अभी बाकी है. हालांकि, एनडीए की तरह महागठबंधन में भी सीटों के बंटवारे को लेकर एक फॉर्मूले की खबर मीडिया में आई थी, घटक दलों के नेता इसे कुछ राजनेताओं की कपोल कल्पना बताकर खामोश हो गए. चुनावों के समय किसी भी गठबंधन (दलों के बारे में यही बात लागू होती है) में सीटों का या टिकटों का बंटवारा एक अनार सौ बीमार जैसा माहौल बनाता है. इसलिए महागठबंधन में भी सभी दलों और गुटीय नेताओं का दबाव काफी बढ़ गया है. राजद सबसे बड़ा दल है, तो बड़ी हिस्सेदारी चाहिए.

कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी है, तो वह कम सीट कैसे लेगी! हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के साथ बहुत बड़ा सामाजिक समूह है, उसे वैसे ही हिस्सेदारी चाहिए. सपा व बसपा उत्तर प्रदेश की नेतृत्वकारी दल है, उनकी इस हैसियत पर गौर करना जरूरी है. फिर, उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा को महागठबंधन में लाने की जी जान से कोशिश हो रही है, उसे बड़ी हिस्सेदारी तो देनी ही होगी! इस आरंभिक काम के बाद घटक दलों के लिए सीटों की पहचान और उम्मीदवारों के चयन का काम भी छोटा नहीं है. इसमें राजद और कांग्रेस को लेकर ज्यादा परेशानी हो सकती है. रूठने-मनाने का लंबा दौर चलेगा. और महागठबंधन के नेता होने के कारण इन सब में तेजस्वी प्रसाद यादव को सक्रिय और कमांडिंग भूमिका निभानी है. वस्तुतः राजनीतिक अग्निपरीक्षा का असली और खतरनाक दौर तेजस्वी की प्रतीक्षा कर रहा है. अभी तक उनके जिन कार्यों को उनकी उपलब्धि के तौर पर रेखांकित किया जा रहा है, वे वस्तुतः लालू प्रसाद की ही उपलब्धि रही है. लालू के उत्तराधिकारी होने का सीधा लाभ उन्हें मिलता रहा है.

हालांकि महागठबंधन के घटक दलों में सीटों के बंटवारे, घटक दलों के लिए सीटों की पहचान और उम्मीदवारों के चयन जैसे मसले पर भी लालू प्रसाद की राय ही अंतिम होगी, पर जमीन पर काम तो तेजस्वी को ही करना होगा और उन्हें अपना राजनीतिक प्रबंधन का कौशल दिखाना होगा. यह मौका उनके नेतृत्व को ठोस राजनीतिक आधार देगा. यह काम वे कैसे करते हैं, यह अगले महीनों में साफ होगा.

इन सभी राजनीतिक जिम्मेदारी का निर्वाह तेजस्वी कैसे करते हैं, यह उनके या लालू प्रसाद के बनिस्वत इस पर अधिक निर्भर करता है कि प्रतिपक्षी और एनडीए की राजनीति उन्हें किस हद तक राहत देती है या उसकी राजनीतिक गतिविधि से जांच एजेंसियां किस हद तक प्रभावित होती है. इस प्रकरण की शुरुआत ही राजनीति से हुई थी, जिसकी राजनीति चरम परिणति बिहार में महागठबंधन की सरकार का पतन और विधानसभा चुनावों में पराजित एनडीए की सत्ता में वापसी रही. इस मामले में अब तक का अनुभव यही रहा है कि राजनीति की सक्रियता जांच एजेंसी की प्रेरक तत्व रही है. पर, यह भी उतना मायने नहीं रखता जितना महत्व कोर्ट की सक्रियता है. ईडी कोर्ट को आरोप पत्र पर अभी संज्ञान लेना है, जबकि सीबीआइ कोर्ट में अगली सुनवाई के लिए छह अक्टूबर की तारीख तय है. संभव है, उस दिन राबड़ी-तेजस्वी सहित अन्य आरोपितों की जमानत पर सीबीआइ के रूख का संकेत उस दिन मिले. इसलिए अंतरिम राहत के जश्न के दौर में भी तेजस्वी, लालू परिवार, राजद और महागठबंधन पर तलवार का भय तो है ही.

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