वोट के कुचक्र में मुस्लिमों को उलझाती हैं पार्टियां 

सुप्रीम कोर्ट की राय जो भी हो, लेकिन जाति और धर्म को केंद्र में रख कर राजनीति होगी और इसे कोई नहीं रोक पाएगा. बसपा ने जिस तरह टिकट बांटे, समाजवादी पार्टी ने जिस तरह टिकट बांटे और कौमी एकता दल का विलय कराने के लिए अखिलेश यादव तक को ताक पर रख दिया उससे यही जाहिर हुआ कि जाति धर्म की राजनीति को रोकना मुमकिन नहीं है. राजनीतिक दलों ने खास तौर पर मुसलमानों को महज वोटों की गिनती बना डाला है. इसके लिए मुसलमान भी दोषी हैं. हर बार की तरह इस बार का चुनावी खेल भी मुसलमानों को ही दांव पर रख कर खेला जा रहा है.

राजनीतिक दलों के झगड़े और रगड़े होते रहें, लेकिन इससे ये कयास क्यों लगने लगते हैं कि मुसलमान किधर जाएगा! राजनीतिक दलों द्वारा उठाए जाने वाले ऐसे सवालों के खिलाफ मुसलमानों की तरफ से विरोध क्यों नहीं होता! यह विचारणीय है. इस बार भी वही सवाल उठ रहे हैं कि समाजवादी पार्टी के झगड़े में मुसलमान किधर जाए? देश में करीब-करीब सारे राजनीतिक दल और खास तौर पर क्षेत्रीय दलों की पहचान तो जाति और धर्म को लेकर ही है. लेकिन कुछ खास सवाल मुसलमानों के लिए ही खास हो गए हैं. जबकि उत्तर प्रदेश में मुसलमान मतदाता निर्णायक भूमिका में है, लेकिन उसे ऐसे सवालों में फंसा कर रखा जाता है. यह भी सियासत का ही हिस्सा है. उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों की आबादी 19 फीसदी से अधिक है.

करीब 140 विधानसभा सीटों पर 10 से 20 फीसदी तक मुस्लिम आबादी है. 70 सीटों पर 20 से 30 फीसदी और 73 सीटों पर 30 फीसदी से अधिक मुस्लिम आबादी है. 140 सीटों पर मुस्लिम सीधे तौर पर असर डालते हैं. अधिक टिकट दिए जाने के कारण बसपा और अधिक तवज्जो दिए जाने के कारण एआईएमआईएम जैसी पार्टियां मुसलमानों का ध्यान अपनी ओर अधिक खींच रही हैं. बाबरी विध्वंस के बाद से उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक मुस्लिम वोट मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी को मिले. यहां तक कि मुलायम को मुल्ला मुलायम तक कहा जाने लगा. लेकिन, सपा के हालिया पारिवारिक झगड़े के कारण यह कहा जाने लगा कि मुसलमान सपा से बिदक कर बसपा की तरफ जा रहा है.

जबकि सर्वे संस्था सीएसडीएस के आंकड़े देखें तो आप पाएंगे कि सपा को मिलने वाले मस्लिम वोटों के प्रतिशत का ग्राफ 2002 के बाद से ही नीचे जा रहा है. 2002 के विधानसभा चुनाव में सपा को 54 फीसदी मुस्लिम वोट मिला था, जो 2007  के विधानसभा चुनावों में घटकर 45 फीसदी रह गया और 2012 के चुनावों में 39 फीसदी पर आ गया. जबकि समाजवादी पार्टी को 2012 में सबसे बड़ी जीत हासिल हुई. लिहाजा, पारिवारिक कलह के कारण अचानक मुस्लिमों का मुलायम से मोहभंग हो जाने का विश्लेषण सटीक नहीं है.

मुस्लिम समुदाय के कुछ नागरिकों का कहना है कि किसी पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध वोटर महज इसलिए नहीं भाग खड़ा होता कि दल के अंदर कलह है. अलग-अलग किस्म की कलह और अंदरूनी झगड़े तो प्रत्येक दल में हैं. इलाहाबाद के डॉ. नूर आलम कहते हैं कि मुसलमान सपा से अलग नहीं हो सकते. हालांकि वे यह भी कहते हैं कि जो कुछ काम होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ, लेकिन फिर भी मुसलमान अखिलेश यादव या मुलायम सिंह से नाराज नहीं हैं.

वे यह भी कहते हैं कि शिवपाल ने भी बहुत संघर्ष किया है, उनसे भी लोगों को हमदर्दी है. पार्टी के टूटने की हालत में वोटों का दोनों तरफ बिखराव हो सकता है. लखनऊ के फुरकान अहमद का कहना है कि मुसलमान मुलायम के साथ ही रहेंगे. उनके सामने कोई और विकल्प नहीं है. पूर्व विधायक शेख सुलेमान कहते हैं कि मुसलमानों के लिए नेताजी ने बहुत कुछ किया है. इसलिए मुसलमान नेताजी के साथ खड़े हैं, उनमें कोई बिखराव नहीं है. कन्नौज के हाजी जरार खां का कहना है कि मुसलमान अखिलेश के साथ हैं. पार्टी अगर बंटी तो मुसलमान अखिलेश के साथ चले जाएंगे. अखिलेश ने मुसलमानों को जो सहूलियतें दी हैं उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

मेरठ के गुलशेर मलिक कहते हैं कि मुसलमान तो अखिलेश की ही तरफ हैं. कब्रिस्तान की चारदीवारी बनाने का मसला हो या कई अन्य मामले, अखिलेश ने मुसलमानों के लिए बहुत काम कराए हैं. पार्टी में टूट हुई तो 80 फीसद मुसलमान अखिलेश की ही तरफ जाएंगे. बलिया के परवेज रौशन का कहना है कि जो लोग यह कह रहे हैं कि अखिलेश ने मुसलमानों के लिए काम नहीं किया, वे ठीक जानकारी नहीं रखते. अखिलेश ने मुसलमानों के लिए कोई गलत काम नहीं किया. मुलायम की असली विरासत हैं अखिलेश, इसलिए मुसलमान उनसे अलग नहीं हो सकते.

पूर्वांचल के मोहसिन खान कहते हैं कि अगर टिकट का वितरण और उम्मीदवारों का चयन निष्पक्ष तरीके से हुआ तो उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सपा को ही स्पष्ट बहुमत मिलेगा. मोहसिन खान सपा के वे नेता हैं जिन्हें सपा के कलह का खामियाजा भुगतना पड़ा है. इसके बावजूद वे बसपाई दावे को पूरी तरह ठुकरा देते हैं. गोरखपुर के जिला अध्यक्ष मोहसिन खान और गोंडा के जिला अध्यक्ष मो. महफुज खान को हटा दिया गया था, लेकिन इनकी सपा के प्रति वफादारी कायम है. मोहम्मद मोहसिन खान स्टेट गेस्ट हाउस कांड में अभियुक्त बनाए गए थे और जेल भी गए थे. वह मुकदमा आज भी चल रहा है.

मुस्लिम बुद्धिजीवी डॉ. मोहम्मद सरफे आलम कहते हैं कि राजनीतिक विकल्प की छटपटाहट अन्य धर्म के मतदाताओं का एकाधिकार नहीं होती. मुस्लिम मतदाताओं में भी विकल्प की तलाश और छटपटाहट हो सकती है, और यह लंबे समय तक चलने वाली प्रक्रिया है, इसका किसी खास राजनीतिक दल और किसी खास नेता से मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए. 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा को मिला क्रमशः 17 प्रतिशत और 20 प्रतिशत मुस्लिम वोट और 2012 के ही चुनाव में कांग्रेस को हासिल हुआ 18 फीसद मुस्लिम वोट यही अभिव्यक्ति देता है.

डॉ. आलम के विचार के बरक्स एक तथ्य यह भी है कि छोटे-मोटे आकर्षण और बदलती प्राथमिकताओं के कारण मुस्लिम वोट भी वैसे ही बंटता रहा है जैसे अन्य जाति-धर्म के मतदाताओं के वोट बंटते रहे हैं. उसमें विकल्प की तलाश कम, अवसरवाद की तलाश अधिक बड़ी वजह होती है. हैदराबाद के मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी द्वारा या पीस पार्टी या कौम एकता दल जैसी पार्टियों द्वारा मुसलमानों का वोट काट लेना आखिर क्या है! अब छोटे-छोटे मुस्लिम संगठनों को मिला कर बने इत्तेहाद फ्रंट की भूमिका क्या होगी, इसे आसानी से समझा जा सकता है.

एक तरफ बसपा दलितों और मुसलमानों का साझा समीकरण बनाने की कवायद कर रही है तो दूसरी तरफ ओवैसी की राजनीति भी दलित और मुस्लिम गठजोड़ पर केंद्रित है. ओवैसी अपनी सभी सभाओं में मुस्लिमों और दलितों की एकता पर जोर देते हैं. ओवैसी से बड़े दल इतने आशंकित रहते हैं कि समाजवादी पार्टी ने तो उत्तर प्रदेश में उनकी कई सभाएं नहीं होने दीं. उत्तर प्रदेश में 30 फीसदी तक वोट पाने वाली पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में आ सकती है. इसीलिए मायावती दलितों और मुस्लिमों को मिला कर 39 फीसदी वोट पाने और सत्ता हासिल करने का सपना देख रही हैं.

राजनीतिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि अगर सपा के अखिलेश गुट का गठबंधन कांग्रेस से हो जाए तो मुस्लिम वोट बैंक उनके साथ चला जाएगा. भाजपा के साथ मिल कर दो-दो बार सरकार बनाने वाली मायावती के प्रति मुस्लिम समुदाय का संशय बना रहता है. सपा और कांग्रेस का गठबंधन मुसलमानों को भाजपा का रास्ता रोकने के प्रति आश्वस्त कर सकता है. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 403 में से 253 विधानसभा क्षेत्रों में 40 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे. 94 विधानसभा क्षेत्रों में उसे 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे. लिहाजा, वोटों का बदलता प्रतिशत चुनावी आकलनों को इधर-उधर भी कर सकता है.

तो ऐसे होंगे यूपी में चुनाव

उत्तर प्रदेश में सात विभिन्न चरणों में चुनाव होगा जो 11 फरवरी से 8 मार्च के बीच चलेगा. यूपी में पहले चरण का चुनाव 11 फरवरी को होगा जिसमें 15 जिलों की 73 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव कराए जाएंगे.  दूसरे चरण में 11 जिलों की 67 विधानसभा सीटों के लिए 15 फरवरी को चुनाव कराए जाएंगे. तीसरे चरण में 12 जिलों की 69 विधानसभा सीटों के लिए 19 फरवरी को चुनाव होंगे. चौथे चरण में 12 जिलों की 53 विधानसभा सीटों के लिए 23 फरवरी को चुनाव होंगे. पांचवें चरण में 11 जिलों की 52 विधानसभा सीटों के लिए 27 फरवरी को चुनाव कराए जाएंगे. छठे चरण में सात जिलों की 49 विधानसभा सीटों के लिए 4 मार्च को चुनाव होंगे. आखिरी सातवें चरण में सात जिलों की 40 विधानसभा सीटों के लिए 8 मार्च को चुनाव होंगे.

सात चरणों में चुनाव असंवैधानिक

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच के वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक पांडेय ने उत्तर प्रदेश में सात चरणों में विधानसभा चुनाव कराने के चुनाव आयोग के फैसले को असंवैधानिक और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करार दिया है. अशोक पांडेय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर सात चरणों में चुनाव कराने के आयोग के फैसले को खारिज कर, दो चरणों में सम्पूर्ण चुनाव निष्पादित करने का आदेश जारी करने का अदालत से आग्रह किया है. श्री पांडेय ने उत्तराखंड, पंजाब और गोवा में एक फेज़ में और मणिपुर में दो फेज़ में चुनाव कराने के निर्णय का हवाला देते हुए उत्तर प्रदेश में सात चरणों में चुनाव कराने के फैसले को कानूनी चुनौती देते हुए इस फैसले को चुनाव आयोग की साजिश करार दिया है.

उनका कहना है कि लंबे अर्से से यूपी में चुनाव शांतिपूर्ण तरीके  से हो रहे हैं. चुनाव के  दरम्यान प्रदेश में कहीं भी हिंसा या दंगा-फसाद की घटना नहीं घट रही, फिर किस आधार पर चुनाव आयोग ने यूपी के चुनाव सात लंबे, उबाऊ और खर्चीले चरणों में निपटाने का निर्णय लिया? वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक पांडेय ने कहा है कि चुनाव आयोग उत्तर प्रदेश और बिहार को भेदभाव की निगाह से देखता है, जबकि इन दोनों राज्यों में लगातार शांतिपूर्ण चुनाव संपादित हो रहे हैं. पिछली बार बिहार में भी विधानसभा चुनाव पांच चरणों में कराए गए.

जबकि महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान के विधानसभा चुनाव एक ही फेज़ में कराए गए थे. श्री पांडेय ने सात चरणों में यूपी में चुनाव कराए जाने को षड्‌‌‌‌‌यंत्र बताया और कहा कि मतदाताओं को दबाव में लेकर वोट प्रभावित करने वाले माफिया और गुंडा तत्वों को एक फेज़ में अपना काम निपटाने के बाद दूसरे फेज़ के लिए दूसरे स्थान पर रवाना होने का मौका दिया जा रहा है. इसलिए इस चुनाव कार्यक्रम को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाना चाहिए. हाईकोर्ट का इस ओर भी ध्यान दिलाया गया कि चुनाव में लंबा-लंबा गैप देकर बाद के चरणों वाले चुनाव क्षेत्रों में प्रत्याशियों को प्रचार के लिए अधिक समय मिलना प्रथम चरण वाले प्रत्याशियों के मौलिक अधिकारों का सरासर उल्लंघन है. वरिष्ठ अधिवक्ता का कहना है कि इस तरह का फैसला चुनाव आयोग के अधिकारियों का नियोजित षड्‌‌‌‌‌यंत्र है.

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