अनिर्णय में फंसी भाजपा,योगी की उपेक्षा पर काडर में नाराजगी

प्रत्याशियों के चयन में भारतीय जनता पार्टी सबसे ढीली है. भाजपा अभी-अभी परिवर्तन यात्राओं, यानि प्रचार यात्राओं से उबरी है. अब जाकर भाजपा ने अपनी चुनाव समिति गठित की है, जो प्रत्याशियों का चयन करेगी. विडंबबना यह है कि जिस योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाए जाने की बात की जा रही थी, उन्हें चुनाव समिति तक में शामिल नहीं किया गया. यानि, प्रत्याशियों के चयन में योगी आदित्यनाथ की कोई भूमिका नहीं होगी. जिस तरह की चुनाव समिति बनी है, उससे प्रत्याशियों के चयन में सिरफूटौव्वल सुनिश्चित है.

प्रत्याशी घोषित किए जाने में हो रही अप्रत्याशित देरी और मुख्यमंत्री का चेहरा तय नहीं होने के कारण भाजपा की किरकिरी पहले से हो रही है. प्रदेश चुनाव समिति में प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य के अलावा पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष व मौजूदा केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह, उमा भारती और कलराज मिश्र को भी शामिल किया गया है. कांग्रेस से आईं डॉ. रीता बहुगुणा जोशी और बसपा से आए स्वामी प्रसाद मौर्य व बृजेश पाठक भी चुनाव समिति के सदस्य बनाए गए हैं. मायावती पर विवादास्पद बयान देने के कारण पार्टी से निष्कासित किए गए दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह भी चुनाव समिति में सदस्य नामित हुई हैं.

इनके अलावा ओम प्रकाश माथुर, डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी, शिव प्रकाश, डॉ. दिनेश शर्मा, अरुण सिंह, डॉ. महेन्द्र सिंह, सुनील बंसल, ओम प्रकाश सिंह, विनय कटियार, रमापति राम त्रिपाठी, सूर्यप्रताप शाही, सुरेश खन्ना, सुनील ओझा, वीरेन्द्र खटिक, रमेश विधूरी, रामेश्वर चौरसिया, स्वतंत्र देव सिंह, सलिल विश्नोई और रमाशंकर कठेरिया को भी भाजपा प्रदेश चुनाव समिति का सदस्य बनाया गया है. भाजपा यह दावा कर रही है कि 17 जनवरी को चुनाव के पहले फेज़ के नामांकन के पहले प्रत्याशियों की लिस्ट आ जाएगी.

प्रत्याशियों के चयन पर अभी से भाजपा कार्यकर्ता और नेता ध्यान लगाए हुए हैं. भाजपा कार्यकर्ताओं का कहना है कि भाजपा में बाहरी दलों से टपके नेताओं को प्राथमिकता दी गई, तो भाजपा को चुनाव में असली जमीन का दर्शन करा दिया जाएगा. भाजपा के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता यह मानते हैं कि दूसरे दलों से आए नेता टिकट और पद की महत्वाकांक्षा लेकर भाजपा में शामिल हुए. ऐसे नेताओं को टिकट या पद नहीं मिला तो ये भाजपा छोड़ भी देंगे. और अगर टपके नेताओं को प्राथमिकता के आधार पर टिकट दिया गया तो भाजपा के अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं का विरोध भाजपा को मुश्किल में डाल देगा.

छोटे दलों के दलदल से दलों को डर, मेल-मिलाप की कोशिशें

चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल में भी प्रत्याशियों का चयन नहीं हो पाया है, क्योंकि चौधरी भी गठबंधन के नए-नए अवसर तलाशने में लगे हैं, ताकि चुनाव के बाद किसी तरह प्रदेश की सत्ता में उन्हें भागीदारी मिल सके. चौधरी कभी समाजवादी पार्टी और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कोसते हैं, तो कभी सपा से गठबंधन के प्रयास भी करते हैं. रालोद का जनता दल (यू) से तालमेल है, लेकिन चौधरी को भी पता है कि इससे उन्हें कोई फायदा नहीं मिलने वाला. रालोद किसी तरह अपनी आठ सीटें बढ़ा पाने की जद्दोजहद में लगा है. उत्तर प्रदेश  के विधानसभा चुनावों में छोटे-छोटे दलों की भूमिका रही है.

कुछ छोटे दल सीटें जीतते भी रहे हैं और अधिकतर बड़ी पार्टियों के प्रत्याशियों को हरवाते भी रहे हैं. लिहाजा, बड़ी पार्टियां भी छोटे दलों को अपने साथ लेकर चलने में ही अपनी भलाई समझती हैं. उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल के अलावा पीस पार्टी, ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम), आम आदमी पार्टी, शिवसेना, अपना दल समेत कुछ अन्य छोटे दल भी इस चुनाव में अपनी भूमिका निभाएंगे.

ये दल कुछ कद्दावर प्रत्याशियों की नाक में दम भी भरेंगे. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए जनता दल (युनाईटेड), राष्ट्रीय जनता दल (राजद) राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और एआईएमआईएम भी काफी अर्से से सक्रिय हैं. बिहार से लगे उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों में जदयू-राजद गठबंधन किसी भी बड़े दल को नुकसान पहुंचा सकता है. दूसरी तरफ ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईआईएम) मुस्लिम मतदाताओं को अपनी तरफ खींच कर बड़े सेकुलर दलों को परेशान कर सकती है. ओवैसी खास तौर पर मायावती के लिए बेहद चुनौती वाले दल के नेता साबित हो सकते हैं. इन दलों के अलावा तृणमूल कांग्रेस, लोक जनशक्ति पार्टी, जनता दल

(सेकुलर), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) जैसी पार्टियां भी उत्तर प्रदेश में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए लगातार सक्रिय और बेचैन हैं. तृणमूल कांग्रेस के पास तो एक विधायक पहले से है. बिहार चुनाव में भारी जीत से उत्साहित जनता दल(यू) ने देवरिया के रामपुर कारखाना विधानसभा सीट से जूझारू किसान नेता शिवाजी राय समेत उत्तर प्रदेश की अन्य विधानसभा सीटों से भी अपना प्रत्याशी उतारने की घोषणा की है. जद (यू) अध्यक्ष व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उत्तर प्रदेश में खासे सक्रिय हैं.

ऐसी स्थिति में सारे बड़े दल छोटे दलों के साथ तालमेल कर चलना चाहते हैं. उन्हें यह एहसास है कि पिछले चुनावों में इन दलों ने उनको किस हद तक नुकसान पहुंचाया था. पिछले विधानसभा चुनाव में पीस पार्टी ने चार, कौमी एकता दल ने दो और राष्ट्रवादी कांग्रेस, अपना दल, इत्तेहाद-ए-मिल्लत व तृणमूल कांग्रेस ने एक-एक सीटें जीती थीं. इन छोटे दलों ने सीटें चाहे जितनी भी जीती हों, पर इन्होंने कई सियासी समीकरण गड्डमड्ड कर के रख दिए थे. छोटे दलों के कारण ही लगभग दो दर्जन सीटों पर सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशी एक हजार या उससे भी कम वोट से चुनाव हार गए थे.

उस चुनाव में रालोद नौ सीटों पर दूसरे स्थान पर, 14 पर तीसरे स्थान और पांच सीटों पर चौथे स्थान पर रहा था. पीस पार्टी तीन सीटों पर दूसरे स्थान पर, आठ सीटों पर तीसरे और 24 सीटों पर चौथे स्थान पर रही थी. इसके अलावा कौमी एकता दल ने एक सीट पर दूसरा स्थान, चार सीटों पर तीसरा और एक सीट पर चौथा स्थान प्राप्त कर के कई बड़े दलों के प्रत्याशियों की जीत में बाधा डाल दी थी. 2012  के विधानसभा चुनाव में अपना दल ने 76 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे. अपना दल का केवल एक ही प्रत्याशी जीता, लेकिन अपना दल दो सीटों पर दूसरे, सात सीटों पर तीसरे और सात सीटों पर चौथे स्थान पर रहा. इसी तरह कई अन्य छोटे दलों ने भी व्यापक पैमाने पर बड़े दलों के वोट काटे. यही वजह है कि कोई भी बड़ा दल इन छोटे दलों की उपेक्षा नहीं कर सकता.

अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ तालमेल कर सांसद बन गईं. अपना दल में भी महत्वाकांक्षाएं इस तरह प्रबल हुईं कि अनुप्रिया पटेल की मां कृष्णा पटेल और बहन पल्लवी पटेल ने मिल कर अनुप्रिया को ही पार्टी से निकाल दिया. कृष्णा पटेल उपचुनाव लड़ीं लेकिन हार गईं. उन्होंने अपना दल का अपना अलग गुट बना लिया है. अब कई दल उनके साथ तालमेल की कवायद कर रहे हैं. कुर्मी वोटों पर पकड़ के कारण अपना दल की पूछ बढ़ी हुई है. यही हाल पूर्वांचल में असर रखने वाली भारतीय समाज पार्टी का है. भासमा के अध्यक्ष पूर्व सांसद ओम प्रकाश राजभर भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल हैं. पूर्वांचल में ही मुस्लिम मतदाताओं पर पकड़ रखने वाले कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय हो चुका है. संत कबीर नगर से विधायक डॉ. अय्यूब की पीस पार्टी पर भी कई दलों की निगाह है.

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