साथीयो, विश्व पुस्तक दिवस के बहाने, यह पोस्ट पिछले तीन दिनों से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ ! लेकिन मोबाइल के तकनीकी असहयोग के वजह से देरी हो रही है !
मै जिस पुस्तक के बारे में लिखने जा रहा हूँ ! वह मेरे जन्म के साल 1953 में राहुल सांकृत्यायन ने लिखि है ! काफी साथीयो को पता होगा राहुल सांकृत्यायन खुद मार्क्सवादी थे ! और इसिलिये उन्होंने 1953 में कार्ल मार्क्स के साथ लेनिन, स्टालिन और माओ की भी जीवनीया लिखि है !
आज मैं कार्ल मार्क्स ने लंदन म्यूजियम के कागजपत्रो के आधार पर 1853 में न्यूयॉर्क ट्रिब्यून नामके अखबार और अपने अभिन्न मित्र फेडरिक एंगेल्स को भारत के संदर्भ में लिखें हुए लेख या पत्र इस किताब के 158 वे पन्ने से लेकर 168 मतलब कुलमिलाकर दस पन्ने का दस्तावेज में से कुछ महत्वपूर्ण हिस्सा देने की कोशिश कर रहा हूँ !
आज भी हमारे यहाँ मौके – बेमौके गांव के गणराज्य की या पंचायती राज की महिमा गाई जाति है, लेकिन उस गणराज्य की क्या रुपरेखा थी इसका हमें पता नहीं है ! कार्ल मार्क्स ने अपने 25 जून 1853 के ट्रिब्यून में छपे लेख में ब्रिटेन की पार्लियामेंट में भारत के संदर्भ में पेश होने वाली रिपोर्ट पर लिखा है !

(1) ग्राम गणराज्य का स्वरूप – गांव भौगोलिक तौर पर देखने पर कुछ सौ या हजार एकड आबाद परती जमीन का टुकड़ा है ! राजनीतिक तौर पर देखने से वह कस्बा या संगठित नगर सा मालूम होता है ! उसके बाकायदा निम्न नौकर या अफसर होते हैं !
पटेल – (या गांव का मुखिया) – गांव के कामों का साधारण तत्वावधान इसके उपर रहता है ! वह गांव वालों के झगडो का फैसला करता. पुलिस की देखभाल करता और गांव के भीतर कर वसूल करने का काम करता है ! यह काम ऐसा है, जिसे अपने व्यैयक्तिक प्रभाव, व्यक्ति तथा परिस्थिति से सुक्ष्म परिचय के कारण वह बहुत अच्छी तरह से करने की क्षमता रखता है !
पटवारी – खेतों तथा उससे संबंध रखने वाली हर बात का लेखा-जोखा रखता है !
चौकीदार – गांव के जुर्मो, अपराधों का सुराग रखता है और आने – जाने वाले यात्रियों की रक्षा करते हुए, एक गांव से दुसरे गांव में पहुंचाता है ! प्रहरी का काम ज्यादातर गांव के भीतर से संबंध रखता है ! उसके कामों में फसल की रखवाली और उसके तौलने में सहायता देना है !
सीमापाल – गांव की सीमा की रक्षा करता है, और विवाद होने पर गवाही देता है !
जलपाल – तालाब और नहरों की देख-भाल करता है, और खेती के लिए पानी बाँटता है !
ब्राम्हण – गांव के लिए पूजा करता है !
अध्यापक – गांव में बच्चों को बालू के उपर लिखना – पढाना सिखाता है !
ज्योतिषी – साइत बताता है, आदि !

आमतौर पर से नौकर और कर्मचारी हर गांव के संगठन में मिलते हैं, लेकिन देश के किसी किसी-किसी भाग में इनकी संख्या कम होती है, और उपर बतलायें कर्तव्यों और अधिकारों में से एक से अधिक एक ही आदमी के उपर होते हैं ! और कहीं-कहीं उपरोक्त व्यक्तियों की संख्या और अधिक होती है ! इस तरह की सीधी – साधी सरकार के अधीन देश के निवासी अज्ञात काल से रहते चले आए हैं ! गांव की सीमा शायद ही कभी बदली हो ! यद्यपि गांवों को चोट पहुंची, युद्ध, अकाल या महामारी ने उन्हें बरबाद किया है. किंतु वहीं सीमा वही स्वार्थ और बल्कि वहीं परिवार युगों से चलते आ रहे हैं ! राज्यों के टूटने – फुटने की ग्रामीणों को कोई परवाह नहीं ! जब गाँव अखंड है, तबतक उन्हें इसकी चिंता नहीं कि वह किस शासक के हाथ में हस्तांतरित किया गया अथवा कौन उसका राजा बना – उसकी आंतरिक अर्थनीति अछूती बनी रहती है ! पटेल अब भी गांववालों का मुखिया हैं, और वह अब भी गांव का छोटा मुंसिफ, मजिस्ट्रेट और कलेक्टर – लगान जमा करने वाला है !
आज से 100 वर्ष पूर्व, गदर से चार साल पहले “भारत में ब्रिटिश शासन” नामक अपने लेख में ‘न्यूयॉर्क – ट्रिब्यून’ के 25 जून 1853 में उपरोक्त पंक्तियों को उद्घ्रत करते हुए मार्क्स ने लिखा था – ” यह छोटा अचल सामाजिक संगठन अब बहुत अंशों में नष्ट हो चुका या हो रहा है, किन्तु इसका कारण ब्रिटिश कर उगाहने वाले और ब्रिटिश सिपाही उतने नही है, जितने कि ब्रिटिश भाप- इंजन और ब्रिटिश मुक्त व्यापार !”


( 2 ) ग्राम गणराज्य के कारण अकर्मण्यता – उसी सन के 14 जून के अपने पत्र में मार्क्स ने भारत के बारे में एंगेल्स को लिखा था -” एशिया के इस भाग में इस तरह की जो गतिशून्यता – बाहरी राजनीतिक सतह पर जो लक्ष्यरहित कुछ गति से भले ही दिखलाई पडती हो – एक दूसरे पर अवलंबित दो परिस्थितियों के कारण है (1) सार्वजनिक काम (तालाब, नहर आदि का बनाना) केंद्रीय सरकार के जिम्मे था,( 2) इसके अतिरिक्त सारा साम्राज्य कुछ थोडे से शहरों को छोड़कर ऐसे गांवों से बना है, जिसका अपना एक बिल्कुल अलग संगठन है, और उनकी अपनी एक खुद छोटी सी दुनिया है :
“ये काव्यमय गणराज्य, जो पडोसी गांवों से सिर्फ अपने गांव की सीमाओं की ही तत्परता से रक्षा करना जानते थे, अब भी हाल में अंग्रेजो के हाथों में आये उत्तरी भारत के कितने ही भागों में काफी सुरक्षित रुप में पाये जाते है ! मैं नहीं समझता, एशियाई निरंकुशताएं, गति – शून्यता के मजबूत कारण ढूंढने के लिए किसी और चिज की जरूरत है ! – – – अंग्रेजों द्वारा इस पुराने अचल रुपों का तोडा जाना भारत के यूरोपीकरण के लिए आवश्यक बात थी ! उगाहनेवाला अकेला इसमें सफलता नहीं प्राप्त कर सकता था ! गांव के अपने स्वावलंबी स्वरूप को दूर करने के लिए उनके पुराने उद्योग – धंधे का बरबाद होना जरूरी था ! ”
भारतीय मानव – समाज की सहस्राब्दियों से चली आती इस तरह की निश्चलता, प्रवाह-शून्यता – जो पहली सदी तक पाई जाती थी – ही यह कारण है, जिसमें भारतीय मानव ग्रामभक्ति से उठकर देशभक्ति तक नही पहुंच सका और न सामुहिक तौर से बाहरी दुश्मनों का मुकाबला कर सका ! इस ग्राम – पंचायत ने शिल्पियों को सहस्राब्दियों से पूर्व के बसूलो, रुखानियो से, किसानों को हंसुओ – फालो से चिपटा रहने दिया ! शासक वर्ग जानता था, कि यह ग्राम-संगठन भारतीयों का मर्म-स्थान है, वहां पर पडी चोट को वह सहन नहीं कर सकता, मुकाबला किए बगैर नहीं रह सकता, इसलिए उसने उसे नहीं छेडा, जैसे – का – तैसा रहने दिया और इसी पर भारतीय ग्रामीण बोल उठे – कोई नृप होय हमें का हानी !- (तुलसीदास)


यदि वह भारतीय ग्राम्य – गणराज्य पहले ही टूटकर विस्तृत संगठन में बध्द हुआ होता, तो निश्चित ही साधारण जनता शासकों की निरंकुशता का मुकाबला करने की ज्यादा क्षमता रखती, फिर जिस स्वेच्छाचारिता को हम भारत के पिछले दो हजार वर्षों के इतिहास में देखते हैं, क्या वह रह पाती ?

(3) सामाजिक परिवर्तन का आरंभ
(क) आक्रमणो की क्रिडा-भूमी – – सहस्राब्दियों से भारतीय समाज मुक्त – प्रवाह नही मुक्त – शून्य नदी का छाडन हो गया है ! आज भी धार्मिक हिंदू गंगा की छाडन में नहाना बुरा समझता है, वह उसके लिए मुर्दा के साथ स्नान, पुण्य छीननेवाला स्नान है ! वैसे भी ऐसे पानी के पास से गुजरने पर नाक में सडांध की बू आने लगती है ! भारतीय मानव समाज 19 वी सदी तक ऐसा ही छाडन था ! उसे अपने पुराणपन पर अभिमान रहा ! उसने बहते पानी के समाज में लाने की ओर ध्यान तक नहीं दिया !
मार्क्स के शब्दों में “सारे गृह-युद्ध, विदेशी आक्रमण, क्रांतियाँ, विजय, अकाल – चाहे जितने ही तीव्र और विनाशकारी रहे हो, पर वह ( भारत में ) सतह से भीतर नही घुस सके !”
जिस परिवर्तन से दुनिया पहले गुजर चुकी थी, भारत को उसे अपनाने के लिये मजबूर करना अंग्रेजो का काम था ! अंग्रेज उन विजेताओं की भांती भारत में नहीं आए थे ! जो भारत में आकर भारतीय बन भारत के हो गये – वह यूनानियो, शको, तुर्की, मुगलों के भांति हिंदू नही बन गए ! अंग्रेजों में पहिले के विजेताओं से अनेक विशेषताएं थी ! दुसरे विजेता विजेता जरुर थे, किंतु साथ ही वह सभ्यता में उस तल पर नही पहुंचे हुए थे, जिस पर हिंन्दू पहुंच चुके थे; इसलिए इतिहास के नियम के अनुसार राजनीतिक विजेता विजित जाति की श्रेष्ठ सभ्यता द्वारा पराजित हो गये ! अंग्रेज हिंन्दू सभ्यता से कही ऊंची सभ्यता के धनी थे, इसलिए हिंन्दू विजित जाति उन्हें अपने में हजम नही कर सकते थे, कि विजेता की सभ्यता से दूर – दूर रहे ; लेकिन, यह मूढ हठ कितने दिनों तक चल सकता था ? आज हम देख रहे हैं, भारत का वह पुराणपन कितना हटते जा रहा है !

(ख) अंग्रेज विजेताओं की विशेषता – – एक और बात भी है, अंग्रेज भारत में राजवंश कायम करने नही आये थे ! विजय करके भारत के शासन को पहले – पहल अपने हाथों में लेनेवाला कोई राजा या उसका सेनापति नही था ; वह तो था ऐसे सौदागरों का गिरोह, जो अपनी पूंजी पर अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाना चाहते थे ! वह बिल्कुल ही नई तरह की विजय थी, जिसमें विजेता राजवंश स्थापित नहीं करना चाहता था ! ईस्ट इंडिया कंपनी चाहती थी, और भारत पर इसलिए शासन कर रही थी कि वह अपने भागिदारो को अधिक से अधिक मुनाफा बांटे ! इससे और अधिक कोई उसका मतलब था, तो यही कि भारत से अंग्रेजो का अधिक से अधिक भरण-पोषण हो ! यह काम मुगलों और शको की कर उगाही से नहीं हो सकता था ! मुगलों – शको के अपने खर्च के लिए लिया भी रुपया फिर भारत से ही जीवनोपयोगी चीजों के खरीदने बंट जाता था, इसलिए वह एक तरह से देश के भीतर विनिमय के रूप में चक्कर काटता रहता था ! अंग्रेजो द्वारा एक बार ली गई संपत्ति फिर लौटकर यहां आने वाली न थी ! इसके लिए जरूरी था, कि अंग्रेज स्वदेशी हो गए विजेताओं से धन का ज्यादा शोषण करे !
संक्षेप में अंग्रेजो को अपने सारे शासक- वर्ग – पूंजीपति वर्ग के स्वार्थ के लिए भारत का दोहन करना था – पहले व्यापार से, फिर व्यापार और शासन से, फिर व्यापार, शासन और पूंजीवादी शोषण (कच्चे – पक्के माल के क्रय-विक्रय )से! इस भारी शोषण में ग्रामीण, गणराज्य बचाया नहीं जा सकता था ; चाहें उसका कवित्वमय रुप तत्कालीन और आधुनिक कितने ही भावुक व्यक्तियों को बहुत आकर्षक मालूम होता रहा हो, और कौनसा अतित है, जो आकर्षक नही होता ?

( ग ) अंग्रेजी शासन का परिणाम – सामाजिक क्रांति – हां, तो हजारों वर्षों के इस भारतीय छाडन के लिए अंग्रेजो ने जो सबसे बड़ा काम किया, वह था उसका बांध तोडना ! उन्होंने भारतीय चर्खे को तोड डाला, पुराने कर्घे को विदा कराया, अपने यहां और यूरोप से भी पुराने चर्खे – कर्घो को निकाल बाहर किया, फिर गंगा को उल्टी बहाया और मार्क्स के शब्दों में “कपास की मातृभूमि में कपास के कपडों की बाढ ला दी! ” 1818 से 1836 में ग्रेटब्रिटन से भेजा जानेवाला कपडा 5200 गुना बढ़ गया ! 1830 में भारत में अंग्रेज़ी मखमल मुश्किल से दस लाख गज था ! लेकिन, इसके साथ ही ढाका की आबादी डेढ़ लाख से बीस हजार रह गई ! अपने शिल्पों के लिए जगविख्यात भारतीय नगर बर्बाद हो गये, बल्कि ब्रिटिश भाप और विज्ञान ने सारे हिंदुस्तान में कृषि और शिल्प – उद्योग के मेल को जड – मूल से उखाड फेका ! – – – भारत के परिवार – समुदाय का आधार था घरेलू उद्योग – हाथ की कताई, हाथ की बुनाई, खेती में हाथ की जुताई – जिससे वह स्वावलंबी बना हुआ था ! अंग्रेजों के भीतर दखल देने का क्या फल हुआ ? – उसने कातने वाले को लंकाशायर में ला रखा, और जुलाहे को बंगाल में या हिंदुस्तानी कमकरों और जुलाहे दोनों ही का सफाया कर दिया ! इन छोटे – छोटे अर्ध – बर्बर, अर्ध – सभ्य – समुदायों को उनकी आर्थिक नींव को उखाडकर ध्वस्त कर दिया, और इस प्रकार सबसे बड़ी, और सच पुछीये तो एशिया में कभी भी न सुनी गई, एक मात्र सामाजिक क्रांति को पैदा किया !

(घ) ध्वसांत्मक काम जरूरी – – आज मनुष्य का मन खिन्न जरूर होगा, क्योंकि वह इन अगणित पितृसत्ता को शांतिपूर्ण सामाजिक संगठनों को इस प्रकार तितर – बीतर हो – – – बिखरते देखता है, उन्हें कष्टों के समुद्र में फेंके जाते, और अवयवों के साथ ही अपनी सभ्यता के पुराने रुप को खोते देखता है ! हमे भूलना नहीं चाहिए, कि यह काव्यमय ग्राम्य संघठन, चाहे दिखने में कितना ही मासूम जान पडे, लेकिन यही सदा से पूर्वी स्वेच्छाचार की ठोस बुनियाद रहे है ! इन्होंने मानव – मस्तिष्क को छोटे-से -छोटे दायरों में बंद रखा, और मिथ्या- विश्वास को चुपचाप मान लेनेवाला हथियार बना उसे पुराने नियमों का गुलाम बनाया, और उसे सभी महान ऐतिहासिक ( इतिहास की प्रगति से उत्पन्न ) शक्तियों से वंचित रखा ! हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि एक तुच्छ छोटी – सी जमीन की टुकड़ी में केंद्रीत बार्बरिक ममता साम्राज्यों के ध्वंस, अकथनीय नृशंसता के नग्न- नृत्य, बडे-बडे शहरों की जनता की हत्या का कारण हुआ ! – – हमें नही भूलना चाहिए कि इस अपमानजनक कीडे – मकोडे के मुर्दा जीवन, निर्जीव से अस्तित्व ने अपने विरुध्द जंगली, निरुद्देश्य, सत्यानाशी असीम शक्तियों को उत्तेजना दी, और खुद मनुष्य – हत्या को हिंदुस्तान में धार्मिक कृत्य बना दिया ! हमें नहीं भूलना चाहिए कि, भारत की यह छोटी-छोटी जमाते जाति – भेद और दासता के रोग में फंसी हुई थी ! उन्होंने मानव को उपर उठा परिस्थितियों पर विजयी बनाने की जगह बाहरी परिस्थितियों का गुलाम बनाया, उन्होंने स्वयं विकसित होने वाली सामाजिक स्थिति को अपरिवर्तनशील रख प्रकृति के हाथ की कठपुतली बना दिया, इस प्रकार प्रकृति की पाशविक प्रजा को स्थापित किया, और प्रकृति के राजा मानव का इतना अधःपतन कराया, कि वह वानर हनुमान और कपिला गाय की पूजा में घुटने टेकने लगा !


यह सच है, कि हिंदुस्तान में इंग्लैंड जो सामाजिक क्रांति ला रहा है, उसके पिछे एक बहुत ही नीच उद्देश्य छुपा हुआ है ! किंतु सवाल यह नहीं है, सवाल तो है – – क्या एशिया की सामाजिक स्थिति में क्रांति लाये बीना मानवजाति अपने ध्येय को पूरा कर सकती है ? अगर नहीं तो इंग्लैंड ने चाहे जो भी अपराध किया हो, किंतु उक्त क्रांति को लाने में उसने इतिहास के अनजाने हथियार का काम किया !
एक पुरातन जगत के टूट – फुटकर गिरने का दर्दनाक नजारा चाहे जितनी भी कटुता हमारे व्यक्तिगत भावों में पैदा करे, किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर हमे गोयथे के शब्द याद आते हैं ! ” इसका हमें सोच करना क्या लिप्सा का स्वभाव ही ऐसा, बढती चले अयास,
और नही क्यों तैमूरी तलवार बनाती कोटी जनों को क्रूर कालका ग्रास ?

( 4 ) भारतीय समाज की निर्बलताएं – – 110 वर्ष हो गये, जबकि 25 जून 1853 में कार्ल मार्क्स की यह पंक्तियाँ पहले – पहल प्रकाशित हुई ! इनको पढ़ने से मालूम होता है कि इतनी दूर बैठकर ज्ञान के साधनों का इतना बहुत अभाव के होते भी उनकी पैनी दृष्टि भारतीय समाज की सतह से भीतर कितनी घुस सकी थी ! उन्होंने क्रुरता के साथ हमारे उस लुटते सोने के गढ के लिए दो आंसू बहाना काफी नहीं समझा, बल्कि बतलाया कि हमारा हमारी उस दयनीय दशा का कारण क्या है ! उन्होंने यह भी बतलाया, कि उस पुरानी सामाजिक व्यवस्था को नष्ट होने से बचाने की जरूरत नहीं है, बल्कि उससे एक प्रवाहशील उन्मुक्त समाज के निर्माण का जो अवसर मिला है, उससे हमे लाभ उठाना चाहिए !
उपयुक्त लेख के डेढ़ महीने बाद, 8 अगस्त 1853 को “न्यूयॉर्क ट्रिब्यून” में मार्क्स का “भारत में ब्रिटिश – शासन से होनेवाले परिणाम” शिर्षक से दूसरा लेख छपा ! जिसमें उन्होंने भारतीय समाज के भविष्य पर प्रकाश डाला ! यहां उसके कुछ उध्दरण देने की कोशिश कर रहे हैं – –
” क्या बात थी, जिसके कारण भारत पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हुआ ? मुगल सुबेदारो ने मुगल शासन केंद्र को तोडा ! सुबेदारो की ताकत को मराठों ने तोडा ! मराठों की ताकत को अफगानो ने तोड़ा ! और जब यह सभी सबके खिलाफ लड रहे थे, तब अंग्रेज दौड पडे, और वह सबको दबाने में सफल हुए ! भारत वह देश है, जो हिंदू – मुसलमानों में ही बटा नही है, बल्कि वह कबिलो – कबीलो, जाति – जातियों में बटा हुआ है ! उसके समाज का ढाचा एक तरह के ऐसे संतुलन पर आधारित था, जो उसके सभी व्यक्तियों के बीच साधारण बिखराव और मनमुखीपन का परिणाम था ! इस तरह का देश, इस तरह का समाज, क्या पराजित होने के लिए ही नहीं बना था ? चाहें हिंदुस्तान के अतीत इतिहास को हम न भी जानते, किन्तु क्या यह एक जबरदस्त अविवादास्पद बात नहीं है, कि इस क्षण भी भारत अंग्रेजों की गुलामी में भारत – खर्च पर रखी एक भारतीय सेना द्वारा जकड़ा हुआ है ! फिर भारत पराजित होने से बच कैसे सकता था ? उसका सारा अतीत का इतिहास अगर कोई चीज है, तो पराजयों का इतिहास है, जिनसे कि वह गुजरा है ! भारतीय इतिहास कम-से-कम ज्ञात इतिहास, कोई इतिहास नही है ! जिसे हम उसका इतिहास कहते है, वह उन्ही लगातार आनेवाले आक्रमणकारियों का इतिहास कहते है, जिन्होंने निष्क्रिय अपरिवर्तनशील समाज की निश्चेष्टता की मदद से अपने साम्राज्य कायम किये – – – – -!

(क) अंग्रेजी शासन के दो काम पूरे करने है – – -” एक ध्वंसात्मक, दुसरा पुनरुज्जीवक – – पुराने एशियाई समाज का ध्वंस और एशिया में पाश्चात्य समाज का भौतिक शिलान्यास !
अंग्रेजो ने देशी (ग्राम्य) समाज को तोडकर, देशी उद्योग – धंदे को जड-मुल से उखाडकर, देशी समाज में जो कुछ महान और उच्च था, उसे जमीन के बराबर करके अपने ध्वंसात्मक काम को पूरा किया ! ध्वंसो के ढेर में पुनरुज्जीवन का काम आज मुश्किल से दिखाई पडता है, तो भी वह आरंभ हो गया है !


” आज महान मुगलों के शासन से भी ज्यादा संगठित और विस्तृत भारत की राजनीतिक एकता पुरनज्जिवन के लिए सबसे पहली आवश्यक चीज है ! अंग्रेजी तलवार द्वारा जबर्दस्ती लादी गई यह एकता अब बिजली के टेलीग्राफ द्वारा और मजबूत तथा चिरस्थायी बनाई जायगी ! परेड सिखाने वाले अंग्रेज सर्जेंट द्वारा संगठित और शिक्षित देशी सेना भारत की स्वतः मुक्ति के लिए तथा पहिले ही आनेवाले विदेशी आक्रमणकारी का शिकार बनने के लिये आवश्यक साधन है ! स्वतंत्र प्रेस – जिससे छः एशियाई समाज पहले – पहल परिचित हुआ है, और जिसका प्रबंध मुख्यतः हिन्दुओं और यूरोपीयनो की सम्मिलित संन्तानो के हाथ में है – – पुननिर्माण के वास्ते एक नया और बहुत ही शक्तिशाली हथियार है ! – – – – – भारतीयों में से संख्या में कम ही सही कलकत्ता में अंग्रेजी देख-रेख में शिक्षा पाकर एक ताजा वर्ग उत्पन्न हो रहा है, जो कि शासन – संचालन की कला में निपुण और यूरोपीय विज्ञान से अनभिज्ञ हैं ! भाप ने भारत का यूरोप से यातायात नियमित और द्रुत कर दिया है, उसके प्रधान बंदरगाहों को इंग्लैंड के दक्खिनपूर्व के बंदरगाहों के साथ जोड़ दिया है, और उसकी उस अलग – थलगपन की स्थिति को हटा दिया है, जो कि उसकी प्रवाह – शून्यता का कारण थी ! वह समय दूर नही, जबकि रेलों और बाष्पपोतो की सम्मिलित सहायता से इंग्लैंड और भारत के बीच की समय में नापी जानेवाली दूरी घटकर आठ दिन रह जायेगी, और जबकि गाथाओं में सुना जानेवाला यह देश, इस प्रकार यथार्थतः पाश्चात्य जगत का एक भाग बन जायेगा !

(ख) स्वार्थ से मजबूर – – “ग्रेट-ब्रिटेन के शासकवर्ग का अब तक भारत की प्रगति में सिर्फ आकस्मिक चलता – फिरता एक खास तौर का स्वार्थ था ! सामन्तवर्ग भारत को जीतना चाहता था, थैलिशाही उसे लूटना चाहती थी, और मिलशाही सबकी गलाकट्टी कर रही थी ! लेकिन अब अवस्था बदल गई है ! अब मिलशाही (पूंजीवाद) को पता लग गया है, कि भारत को उत्पादक देश में परिणत करना उसके लिए आवश्यक बात है, और भीतरी यातायात के साधन प्रस्तुत किये जायं ! अब मिलशाही सारे भारत में रेलों का एक जाल बिछाना चाहती है ! और वह ऐसा करके रहेगी ! – – – –
मै जानता हूँ, अंग्रेज मिलशाही भारत में रेलें सिर्फ इसलिए बिछाना चाहती है, कि कम खर्च में कपास और दूसरे कच्चे माल को अपने कारखानो के लिए प्राप्त कर सके ! लेकिन जब एक बार देश में मशिनरी तुमने चला दी, जहाँ पर लोहा और कोयला है, तो उनके निर्माण (उद्योग) से तुम उसे रोक नहीं सकते ! – – – – भारतीयों की मानसिक योग्यता के बारे में केंम्बेल को मानने के लिए बाध्य होना पडा, कि भारतीयों की बडी-बडी संख्या की एक बड़ी औद्योगिक शक्ति रखती है, वह पूंजी जमा करने की क्षमता, दिमाग में गणित- जैसी स्पष्टता, आंकड़ों और पक्के विज्ञान के योग्य विचित्र प्रतिभा रखती है ! स्थापित होनेवाले आधुनिक ढंग के उद्योग – धन्धे उन खानदानी श्रम – विभाग को उठा देंगे, जिसके ऊपर भारतीय जात- पात आश्रित है, और जो प्रगति में निश्चय ही जबरदस्त बाधा है !
अंग्रेजी बूर्ज्वा (पूंजीवादी) जो कुछ भी करने के लिए मजबूर होंगे, उससे न जनता मुक्त होगी, और न ही वह उसकी सामाजिक अवस्था को आर्थिक तौर से सुधारेगा ! – – – क्या पूंजीवाद (बूर्ज्वाजी) ने कभी भी ऐसी कोई प्रगति होने दी, जिसमें व्यक्तियों और जनता को खून और कूड़े – कर्कट में से, कष्ट और अधःपतन में से न घसीटा गया हो ?

(5) भविष्य उज्ज्वल – – – – अंग्रेज – बूर्ज्वाजी ने भारतीयों के बिच समाज के जीन तत्वों को बोये है, उनके फल का उपभोग भारतीय तब-तक नही कर सकेंगे, जब तक खुद ग्रेट-ब्रिटेन में आज के शासकवर्ग को हटाकर कारखानों के सर्वहारा आगे न आं जाय अथवा हिंदू खुद ही इतने मजबूत हो जायें कि अंग्रेजी जूये को उतार फेके ! चाहे कुछ भी हो, कम या बेशी सुदूर काल में यह जरुर देखने में आयेगा, जबकि उस महान और मनोहर देश का पुनरुज्जीवन होगा – – – – – – जिसमें कोमल प्रकृतिवाले निवासियो को – – – – – – अधिनता – स्विकृती में भी एक तरह का शांत स्वाभिमान है , जिन्होंने अकर्मण्यता के रहते भी अपनी बहादुरी से अंग्रेज अफसरों को चकित कर दिया, जिनका देश हमारी जबानो हमारे धर्म का स्रोत रहा, और जो अपने जाटो में प्राचीन जर्मनों और अपने ब्राम्हणों में प्राचीन यूनानीयो के प्रतिनिधि है ! “

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