छत्तीसगढ़ के राज्यपाल नरसिंहन ने कभी नहीं चाहा कि केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम सात जनवरी की दंतेवाड़ा जन सुनवाई में हिस्सा लें. इस बात का गवाह है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखा गया उनका वह पत्र, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री से यह कहा कि गृहमंत्री जैसे अति विशिष्ट शख्स के दौरे से माओवादियों के ख़िला़फ जारी अभियान में रुकावट पैदा होगी. उनकी इस सतर्कता की वजह शायद यह भी हो सकती है कि वह इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशालय से सीधे रायपुर राजभवन पहुंचे हैं और अभी तक उसी पुराने मिजाज़ में हैं. लेकिन ऐसा पहली बार देखा गया, जब किसी राज्यपाल ने केंद्रीय गृहमंत्री से राज्य का दौरा न करने को कहा हो. सनद रहे कि कोई दो माह पहले  चिदंबरम खुद ही कह चुके थे कि वह जन सुनवाई में शामिल हो सकते हैं.
दंतेवाड़ा में गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार का उपवास गत 26 दिसंबर को शुरू हुआ था. उन्हें देश के विभिन्न जन संगठनों और अभियानों का समर्थन मिला. उपवास को आत्मावलोकन की प्रक्रिया बताते हुए उन्होंने कहा कि अब तक की उनकी कोशिशें आदिवासियों की मदद नहीं कर सकीं, इसलिए इस उपवास का मक़सद है कि बस्तर के हालात सामान्य हों, ख़ौ़फ एवं ज़ुल्मोसितम का दौर थमे, विस्थापन का बेक़ाबू ग्राफ रुके, आदिवासियों को इज़्ज़त और बराबरी के साथ जीने का अधिकार मिले. इसके लिए सरकार, लोग, संगठन, माओवादी एवं कंपनियां ख़ुद से सवाल करें कि जो हो रहा है, कितना उचित और न्यायसंगत है? सात जनवरी की जन सुनवाई हिमांशु कुमार और उनके संगठन वनवासी चेतना आश्रम की पहल से तय हुई थी. इसमें केंद्रीय गृहमंत्री के आने की संभावना से राज्य की रमन सिंह सरकार बेचैन हो उठी थी. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी की तर्ज़ पर जन सुनवाई के आयोजन का रास्ता रोकने के लिए एक के बाद एक सरकारी रोड़ों और हथकंडों का इस्तेमाल किया गया. ताक़त की बेशर्म नुमाइश की गई.
आर-पार की नौबत हो, शिक़ायत और फरियाद के तमाम दरवाज़े बंद हों तो हाथों में बंदूक़ आती है. या फिर अन्न त्याग का विकल्प सूझता है, जो आत्मघात नहीं, दबाव का अहिंसक हथियार होता है. ख़तरनाक मोड़ से गुज़र रहे हालात ने ही हिमांशु को उपवास का अप्रत्याशित फैसला लेने के लिए मजबूर किया.
जन सुनवाई यानी जनता की आवाज़ का मंच और मौक़ा. लेकिन, मामला अगर पूंजीपतियों के हितों से जुड़ा हो तो जन सुनवाई नाटक में बदल दी जाती है. उड़ीसा और झारखंड की तरह छत्तीसगढ़ में भी इस नाटक के सफल मंचन का ठेका प्रशासन ने ले रखा है. परियोजना कहीं और की होती है और जन सुनवाई कहीं और होती है. प्रशासन सूत्रधार की भूमिका अदा करता है और कंपनियां सपना बेचते मसीहा की. ज़ाहिर है कि इसमें प्रभावित जनता का कोई रोल नहीं होता. जनता के वेश में लोग हांककर लाए जाते हैं, जो आख़िर में परियोजना के पक्ष में हंसी-ख़ुशी अपनी सहमति का ठप्पा लगा देते हैं और नाटक का सुखद अंत हो जाता है. मिसाल के तौर पर गत 12 अक्टूबर को जगदलपुर में हुए नाटक को लें. प्रेक्षागृह था बस्तर के कलेक्टर का कार्यालय. बहुत बड़ा इलाक़ा सुरक्षा के घेरे में था. लगभग 50-60 दर्शकों के सामने टाटा के प्रतिनिधि ने बताना शुरू किया कि एक सौ पच्चीस साल पहले जमशेदजी टाटा ने झारखंड के एक गांव को ख़ुशहाल बनाने का सपना देखा था और आज वह जमशेदपुर है. वह गांव तो बस्तर से भी बदहाल था. इस तरह स्वप्न लोक की सैर हुई और परियोजना की पीठ थपथपाई गई कि उसकी तकनीक पूरी दुनिया में अव्वल होगी. लेकिन हां, यह आकलन रिपोर्ट पेश नहीं की गई कि इस्पात संयंत्र से पर्यावरण पर कितना प्रभाव पड़ेगा और उसे रोकने या कम करने का तरीक़ा क्या होगा. क्यों? इसलिए कि उसे समझ पाना दर्शकों के लिए टेढ़ी खीर होगा. हालांकि जन सुनवाई इसी रिपोर्ट के आधार पर होनी थी. अंत में कलेक्टर ने पूछा कि किसी को कोई आपत्ति? किसी ने हाथ नहीं उठाया. आ़खिर उठता भी क्यों? जिनका हाथ उठ सकता था, उनका तो प्रवेश ही वर्जित था.
मालूम हो कि दस हज़ार करोड़ रुपये की इस परियोजना के लिए टाटा को ज़िले के लोहांडीगुंडा ब्लॉक के 11 गांवों की पांच हज़ार एकड़ ज़मीन चाहिए. साथ ही संयंत्र के लिए सबरी एवं इंद्रावती के पानी का अंधाधुंध दोहन और उसे प्रदूषित करने का अधिकार चाहिए. इस परियोजना के लिए 2005 में राज्य सरकार के साथ करार हो चुका है. दबाव, तिकड़म और प्रलोभन से कोई दो तिहाई ज़मीन भी अधिग्रहीत की जा चुकी है, लेकिन भारी विरोध के चलते परियोजना फाइलों से बाहर नहीं आ सकी है. सरकार नहीं चाहती कि किसी जन सुनवाई की उसकी रची पटकथा में कोई तब्दीली हो कि वह सचमुच जन सुनवाई में बदल जाए. तब, ज़ाहिर है कि भूमिकाएं बदल जाएंगी. सरकार और कंपनी ख़लनायक नज़र आएंगे. विकास का दावा और माओवाद का हौव्वा फुस्स हो जाएगा. माओवादी हिंसा पर भी सवाल उठेंगे, लेकिन उससे पहले और सबसे ज़्यादा पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों, सलवाजुड़ूम एवं एसपीओज के ज़ोर-ज़ुल्म पर गुस्सा फूटेगा. सरकार जानती है कि ग़ैर सरकारी जन सुनवाई होगी तो विकास का फरेबी लबादा उतरेगा और माओवादी ख़तरे के इश्तहार के पीछे का यह नज़ारा सामने आ जाएगा कि किस तरह मछलियां बूंद-बूंद पानी के लिए तड़प रही हैं और बहुराष्ट्रीय मगरमच्छ बेधड़क तालाब पर तालाब गटक रहे हैं या अपना नंबर आने के इंतज़ार में हैं. यह कंपनियों की सेहत के लिए ठीक नहीं होगा.
जन सुनवाई के लिए अनुकूल वातावरण बनाने की गरज से 12 दिन की पदयात्रा आयोजित की जानी थी, लेकिन हिटलरी तरीक़े से इस पर विराम लगा दिया गया. ऐसी फिजां बनाने की कोशिश की गई, गोया यह आयोजन माओवादियों के समर्थन में आयोजित किया जा रहा हो. इसके विरोध में सलवाजुड़ूम पार्ट-2 उ़र्फ दंतेश्वरी आदिवासी स्वाभिमान मंच को उतार दिया गया. पदयात्रा में शामिल होने के लिए जा रहे देश के 10 राज्यों की महिला प्रतिनिधियों के जत्थे को रोक दिया गया और उस पर आतंक और बदसलूकी का डंडा चलाया गया. वनवासी चेतना आश्रम से जुड़े आदिवासी कार्यकर्ता कोपा कुंजाम को छह माह पहले हुई एक एसपीओ की हत्या के मामले से जोड़कर जेल पहुंचा दिया गया. 14 दिसंबर को, जिस दिन से पदयात्रा शुरू होनी थी, हिमांशु कुमार की नज़रबंदी कर दी गई. सरकारी आतंक और हिंसा का यह ताज़ा क़िस्सा छत्तीसगढ़ और देश के बाहर तक पहुंचा. लोकतंत्र और मानव अधिकारों के पैरोकारों ने इसकी कड़ी निंदा की. नई दिल्ली से लेकर लखनऊ, मुंबई, बंगलूर, चेन्नई, कलकत्ता तक से आवाज़ें उठ रही हैं, लेकिन चिकने घड़ों पर पानी कहां ठहरता है. राज्य सरकार हक़ और इंसा़फ की आवाज़ को कुचल देने की जिद पर आमादा है. ठीक वैसे ही, जैसे राज्य सरकार पर तब भी कोई असर नहीं पड़ा था, जब डॉ. विनायक सेन की रिहाई के लिए पूरी दुनिया से मांग उठ रही थी कि उनकी क़ैद ज़म्हूरियत की क़ैद है.
दो साल पहले एसपीओज ने दंतेवाड़ा से सौ किलोमीटर दूर सुकुमा ब्लॉक के समसेट्टी गांव की चार लड़कियों के साथ बलात्कार किया था. वनवासी चेतना आश्रम ने उनमें हिम्मत और हौसला भरने का काम किया और मामला अदालत तक पहुंचा. गत 16 दिसंबर को उन्हीं बलात्कारियों ने इन आदिवासी लड़कियों को पीटा और उन्हें सादे काग़ज़ों पर अपने अंगूठे का निशान लगाने के लिए मजबूर किया. इसकी शिक़ायत आला अ़फसरों से की गई. असर यह हुआ कि एक बार फिर इन लड़कियों पर गाज़ गिरी. उन्हें पकड़ कर डोरनापाल थाने ले जाया गया, जहां उन्हें पांच दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया. यह कार्रवाई इसलिए की गई, ताकि उन्हें ज़ुबान न खोलने की हिदायत क़ायदे से दी जा सके. यातनाओं के चाबुक से उन्हें यह सबक याद कराया गया कि अगर वे धड़ पर अपना सिर सलामत चाहती हैं तो अपने साथ हुए बलात्कार को भूल जाएं.
जैसे-तैसे 24 दिसंबर को इन लड़कियों को रिहाई मिली. तबसे वे सलवाजुड़ूम की सख्त निगरानी में हैं और उन्हें किसी बाहरी व्यक्ति से बात करने की इजाज़त नहीं है. उधर बीते 25 सितंबर को समसेट्टी के बगल में स्थित परिया एवं बगरीगुडा गांव से पांच आदिवासियों को एसपीओज पूछताछ करने के बहाने उठा ले गए. सब जानते हैं कि एसपीओज अथवा सलवाजुड़ूम के कार्यकर्ता इसी तरह आदिवासियों को अपने साथ ले जाते हैं और बाद में पता चलता है कि उन्हें माओवादी बताकर जेल पहुंचा दिया गया या फर्ज़ी मुठभेड़ दिखाकर दुनिया से ही विदा कर दिया गया. कोपा कुंजाम को भी पूछताछ के नाम पर ले जाया गया था. अनहोनी का अंदेशा था, इसलिए वकील होने के नाते अलबन टोप्पो भी साथ हो लिए. अंदेशा सही निकला. दोनों की जमकर पिटाई हुई. कोपा को जेल रवाना कर दिया गया. अलबन के साथ हुए सलूक पर तमाम वकीलों ने अपनी सख्त नाराज़गी फौरन दर्ज़ की और तभी हवालात से उनकी रिहाई हो सकी. लेकिन, राज्यपाल की निगाह सरकारी दमन पर नहीं टिकती. उन्हें हत्या, बलात्कार, आगजनी और विस्थापन का दंश झेल रहे आदिवासियों की आह सुनाई नहीं देती. वह इस मांग पर ग़ौर फरमाना नहीं चाहते कि छत्तीसगढ़ में सामाजिक सुरक्षा की दुहाई देकर लागू किए गए काले क़ानून के डंडे पर रोक लगनी चाहिए, जिसके तहत एक हज़ार से अधिक लोग जेल में हैं और उनमें ज़्यादातर दिहाड़ी मज़दूर, खोमचे-रेहड़ी वाले, दर्ज़ी-धोबी-नाई जैसे मामूली लोग हैं.
बीते 6 अक्टूबर को रायपुर में विस्थापन के ख़िला़फ राज्य के कोने-कोने से हज़ारों लोग जुटे थे. उस दिन उन्हें दुखियारों के प्रतिनिधियों से मिलने की ़फुर्सत नहीं मिली. बाद में जब मिले भी तो उन्होंने विस्थापन के सच को ही सिरे से नकार दिया. उन्होंने तालठोंकू दावा किया कि मुआवज़ा दिए और सहमति लिए बग़ैर कहीं भी ज़मीन का अधिग्रहण नहीं किया गया है. उनकी सलाह थी कि जन सुनवाई कहीं भी रखी जाए, प्रभावित लोगों को उसमें ज़रूर जाना चाहिए. कौन रोकता है उन्हें? तो, राजभवन के ख्याल से गांव का मौसम गुलाबी है. यह होहल्ला झूठा है कि पतझड़ का अंधड़ तेज़-दर-तेज़ होता जा रहा है. ख़ुशहाली की बारात में माओवादी खलल डाल रहे हैं. सरकार उन्हें देख लेने के नेक काम पर जुटी है.
दरअसल, राज्यपाल समझना ही नहीं चाहते कि मामला शीशे की तरह सा़फ है. कंपनियों को क़ुदरत की बेशक़ीमती नेमतों की खुली लूट का न्यौता बांटा जा रहा है. ये वे इलाक़े हैं, जहां आदिवासी बसते हैं और वे लोहा नहीं, अनाज चाहते हैं. ऐसा विकास नहीं चाहते, जिसकी क़ीमत उन्हें विनाश और विस्थापन से चुकानी पड़े. सीधी उंगली से घी नहीं निकल सकता, इसलिए माओवादियों के स़फाए के नाम पर आदिवासियों के स़फाए का अभियान है. उन्हें सताया और खदेड़ा जा रहा है. आदिवासियों को आदिवासियों से भिड़ाया जा रहा है. विरोध या प्रतिरोध की हर आवाज़ को बेरहमी से कुचला जा रहा है. आदिवासी इलाक़ों को छावनी में बदला जा रहा है. सच चीख रहा है कि छत्तीसगढ़ से लेकर उड़ीसा, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल तक की जलती हुई पट्टी कोई लाल गलियारा नहीं, दरअसल सरकार द्वारा कंपनियों के साथ किए गए क़रार का गलियारा है.
भले ही माओवादियों के ख़िला़फ मोर्चा सख्त हो रहा है और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कई बार माओवादियों को देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बता चुके हैं, लेकिन इधर गृहमंत्री पी चिदंबरम का सुर ज़रूर थोड़ा ढीला हुआ है. आख़िरकार, अमन-चैन की बहाली का रास्ता संवाद और संवेदनशीलता से होकर गुज़रता है, पगलाई ताक़त से नहीं.
सरकार इतना क्यों डरती है ?
विगत 17 मई को वनवासी चेतना आश्रम के परिसर को बुलडोज़र चलाकर ध्वस्त कर दिया गया था. तब से किराए के मकान में हिमांशु कुमार का आशियाना था. इधर मकान मालिक पर प्रशासन का दबाव था कि वह अपने मकान से उन्हें बाहर कर दे. आ़खिरकार, उपवास के दिन, 31 दिसंबर को उन्हें एक सप्ताह के भीतर मकान खाली कर देने की नोटिस मिल गई. प्रशासन ने ताक़ीद कर दी है कि उन्हें या वनवासी चेतना आश्रम को आश्रय देने की ज़ुर्रत कोई न करे, न कोई अपनी जगह उन्हें बेचे या किराए पर दे. दंतेवाड़ा में हिमांशु कुमार या वनवासी चेतना आश्रम की मौजूदगी से इतना डरती है सरकार.

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