उत्तर बंगाल की हरे सोने वाली धरती डुआर्स में बवाल मचा है. गोरखालैंड की आग से निकलती चिंगारियां हरी पत्तियों को झुलसाने लगी हैं. विमल गुरुंग इस आदिवासी बहुल इलाक़े को गोरखालैंड के ऩक्शे में शामिल करना चाहते हैं, जबकि यहां के बहुसंख्यक आदिवासी जैसे हैं-जहां हैं के आधार पर बंगाल में ही रहना चाहते हैं. बंद चाय बागानों की वजह से इस इलाक़े में पहले से ही भुखमरी के हालात हैं,उस पर गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (गोजमुमो)के पथावरोध आंदोलन ने जले पर नमक रगड़ने का सिलसिला शुरू किया है. इस आंदोलन से चाय की ढुलाई भी ठप है और पर्यटन के साथ-साथ तमाम आर्थिक गतिविधियां रुक गई हैं. साल के आ़खिरी दिन का सूरज भी तनाव के माहौल में ही डूबा. थोड़ी भी उम्मीद की लालिमा नहीं दिखी. एक तरफ़ जहां दार्जिलिंग में बर्फ़ पड़ी, वहीं मैदानी इलाक़े में राजनीतिक टकराव की गर्मी बढ़ी. राजमार्गों पर अवरोध आंदोलन कर रहे गोजमुमो कार्यकर्ताओं ने मालबाज़ार में एक एंबुलेंस के ड्राइवर एवं खलासी को पीटा तो सिलीगुड़ी और डुआर्स के बंगाली संगठनों ने दार्जिलिंग जाने वाले तीनों रास्तों को रोक दिया. नाराज़ विमल गुरुंग ने तुरंत 2 जनवरी को बंद का आह्वान कर दिया, हालांकि कुछ घंटों बाद दिल्ली से संदेश आने के बाद उन्होंने फैसला वापस ले लिया. गुरुंग राजनीतिक स्तर की बातचीत जल्द से जल्द शुरू करने के लिए अपना आंदोलन जारी रखे हुए हैं. सिलीगुड़ी और डुआर्स इलाक़े में गोरखालैंड विरोधियों ने लालगढ़ की तरह जनसाधारण कमेटी बना ली है तथा आदिवासियों के साथ मिलकर गोजमुमो को करारा जवाब देने की ठान ली है. इनमें बांग्ला एवं बांग्ला भाषा बचाओ समिति, आमरा बंगाली एवं जनजागरण मंच जैसे संगठन हैं.  पिछले साल 16 जनवरी को ही जलपाईगुड़ी ज़िले में गोजमुमो और अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के कार्यकर्ताओं के बीच हुई झड़पों में एक पुलिसकर्मी समेत 10 लोग घायल हो गए थे. मालबाज़ार इलाक़े में हुई एक झड़प को रोकने के लिए पुलिस को पहले लाठीचार्ज करना पड़ा और बाद में हवा में गोलियां दागनी पड़ीं. यहां मोर्चा की रैली को रोकने के लिए विकास परिषद ने बंद का आह्वान किया था. इसके पहले दोनों दलों के बीच हुई झड़पों के बाद दर्ज़नों घरों में आगजनी हुई. टकराव टालने के लिए एक दिसंबर को जलपाईगुड़ी ज़िले के मालबाज़ार में आयोजित एक शांति बैठक में परिषद ने गोजमुमो नेताओं को अपने रु़ख के बारे में बता दिया.

15 नवंबर को गोजमुमो के आग्रह पर ही यह बैठक आयोजित हुई थी और उसमें डुआर्स में अमन बहाल रखने पर दोनों दलों के बीच सहमति बनी. हालांकि यह सहमति अब टूटने के कगार पर है, क्योंकि गोजमुमो ने 26 दिसंबर से फिर गोरखालैंड की मांग के समर्थन में रास्ता रोको अभियान चला रखा है. आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं. इस आंदोलन से आम जनजीवन पर असर पड़ रहा है.

डुआर्स इलाक़े के गोरखालैंड विरोधियों ने सरकार की इंतज़ार करो और देखो की नीति के प्रति ना़खुशी ज़ाहिर करते हुए अपने बूते पर गोरखालैंड आंदोलन का मुक़ाबला करने की बात कही है. वैसे उत्तर बंगाल के आईजीपी के एल टामटा ने प्रभावित इलाक़ों में रास्ता रोको आंदोलनकारियों से निपटने की बात कही है. डुआर्स इलाक़े में गोजमुमो समर्थकों का मनोबल इसलिए बढ़ा हुआ है कि हाल ही में हुए कालचीनी विधानसभा उपचुनावों में गोरखालैंड समर्थक निर्दलीय उम्मीदवार चंपामारी ने आदिवासी विकास परिषद के प्रत्याशी को हराकर जीत हासिल की.
अभी हाल में ही भूटान से सटे जयगांव के विधायक विल्सन चंपामारी सहित 200 गोजमुमो समर्थकों को पुलिस ने हिरासत में लिया. रास्ता रोकने के कुछ घंटों बाद ही स्थानीय लोगों ने विरोध शुरू कर दिया और पुलिस को मजबूर होकर यह कार्रवाई करनी पड़ी. गिरफ़्तारी के विरोध में गोजमुमो कार्यकर्ताओं ने मटियाली, जयगांव एवं वीरपाड़ा थानों का घेराव किया और अपना आंदोलन जारी रखने का फ़ैसला लिया.
ग़ौर करने की बात यह है कि इलाक़े की 70 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी आदिवासियों की है और परिषद अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए हिंसा का रास्ता भी अपना सकती है. परिषद के राज्य अध्यक्ष विरसा तिर्की ने चौथी दुनिया से बातचीत के दौरान उन कारणों को साफ़ किया, जिससे उनका गोरखालैंड में शामिल होना बेमानी होगा. उनके मुताबिक़, आदिवासी समुदाय के हित की गारंटी भारत के संविधान में दी हुई है. वह कहते हैं कि 200 साल पहले हमारे पुरखे यहां आए. ज़मीन को समतल कर हमने चाय बागानों को अपने पसीने से सींचा. डुआर्स तराई की 70 से 75 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है और 8 से 10 प्रतिशत की आबादी गोरखाओं की है. फिर हमारे गोरखालैंड का समर्थन करने का कहां सवाल उठता है? गत वर्ष 29 जनवरी को परिषद ने मुख्यमंत्री को एक 13 सूत्री ज्ञापन दिया. सरकार ने जलपाईगुड़ी और डुआर्स में एक हिंदी हाईस्कूल, एक कॉलेज एवं एक पॉलीटेक्निक संस्थान खोलने का आश्वासन दिया है. आदिवासियों ने ज़मीन का पट्टा देने की भी मांग रखी है. मालूम हो कि लीज बागान मालिकों को ज़मीन देने के बाद भी जो सरकारी ज़मीन बची है, उस पर उनका ज़बरन क़ब्ज़ा है. अगर यह ज़मीन भूमिहीन आदिवासियों को दे दी जाए तो इलाक़े की तस्वीर बदल सकती है. इस पहल को लटकाने के इरादे से बागान मालिकों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया है.
वैसे गोजमुमो नेताओं ने इलाक़े के पिछड़ेपन को उजागर कर आदिवासियों को साथ लेने की पहल की. पिछले 21 दिसंबर को गोजमुमो ने पहाड़ के शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ने वाले ग़रीब आदिवासी छात्रों को आर्थिक मदद मुहैया कराने का प्रस्ताव रखा. इसके लिए जल्दी ही संस्थानों के प्रधानाचार्यों के साथ एक बैठक होने वाली है. इसे आदिवासियों को लुभाने की कोशिश माना जा रहा है. परिषद की राष्ट्रीय संयुक्त सचिव जुलियानी टोप्पो ने चौथी दुनिया को बताया कि आदिवासियों को गोरखालैंड में जाने की ज़रूरत नहीं है. अब तक अशिक्षा एवं पिछड़ेपन का फ़ायदा उठाते हुए इनका शोषण किया गया है. उन्होंने स्वीकार किया कि वाममोर्चा के 33 वर्षों के शासन में उत्तर बंगाल के आदिवासियों की उपेक्षा की गई. इसके लिए वह एक हद तक अफ़सरशाही को ज़िम्मेदार मानती हैं, जो कल्याण योजनाओं को निचले तबके तक पहुंचने नहीं देते.
आंकड़ों का आईना
नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) की ओर से जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक़, पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाक़ों में प्रति 10 हज़ार में 106 परिवार ऐसे हैं, जिन्हें पर्याप्त भोजन नहीं मिलता. आंध्र में यह आंकड़ा प्रति हज़ार 6 परिवारों का है. इनमें से भी 13 परिवारों को पूरे साल पर्याप्त मात्रा में भोजन नहीं मिलता. पूरे साल आधा पेट खाने वाले परिवार आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, राजस्थान और महाराष्ट्र में एक भी नहीं हैं. पश्चिम बंगाल उड़ीसा से थोड़ा बेहतर हालत में हैं, जहां एक हज़ार में 13 परिवारों को भरपेट भोजन नहीं मिलता.
वर्ष 2004 में प्रकाशित वेस्ट बंगाल ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट, जिसे राज्य सरकार ने भी मंजूरी दी, के मुताबिक़ उत्तर बंगाल के दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी, कूचबिहार, मालदा, उत्तर दिनाजपुर एवं दक्षिण दिनाजपुर और पश्चिमी हिस्से के तीन आदिवासी बहुल पुरुलिया, बांकुड़ा एवं वीरभूम तथा दोनों 24 परगनाओं के सुंदरवन में पड़ने वाले इलाक़े सबसे ज़्यादा पिछड़े हैं.
योजना आयोग के अनुमान के अनुसार, बंगाल के 24.7 प्रतिशत लोग ग़रीबी रेखा के नीचे रहते हैं. बंगाल की वाम सरकार के 33 सालों के शासन पर कांग्रेस की ओर से प्रकाशित की गई एक पुस्तिका के मुताबिक़, पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाक़ों के 42.4 प्रतिशत आदिवासी ग़रीबी रेखा के नीचे रह रहे हैं. एनएसएस के 1999-2000 के आंकड़ों के मुताबिक़, पुरुलिया की 78.7 प्रतिशत ग्रामीण आबादी ग़रीबी रेखा के भार से दबी थी. वेस्ट बंगाल राइट टू फूड एंड वर्क की अनुराधा तलवार के मुताबिक़, किसी भी दूसरे संगठित क्षेत्र के श्रमिक कुपोषण के उतने शिकार नहीं हैं, जितने चाय श्रमिक हैं. पश्चिम बंगाल खेत मजदूर श्रमिक समिति के मुताबिक़, बंद बागानों के श्रमिकों को हर रोज़ 200 कैलोरी (निम्नतम ज़रूरत 850 कैलोरी) का भोजन ही मिल पा रहा है, जबकि बागान खुले रहने के समय उन्हें 1000 से 1200 कैलोरी का भोजन मिलता था.

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