देश की मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा की मौजूदा हालत किसी से छिपी नहीं है. संगठन के अंदरखाने चल रही उठापटक जितनी उच्चस्तरीय है, उतनी ही दोयम दर्जे की है. भाजपा को लेकर संघ में निराशा चरम पर है, क्योंकि सिद्धांतों और मर्यादाओं को तिलांजलि देने के मामले में भाजपा अब कांग्रेस से चार क़दम आगे निकल गई है. संघ की चिंता और पार्टी की दयनीय हालत पर रोशनी डाल रही है इस बार की आमुख कथा.

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ लोगों से बातचीत करके अगर भारतीय जनता पार्टी के बारे में लिखा जाए, तो वह बहुत अच्छा शायद न हो, क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के असरदार लोगों का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में बहुत ज़्यादा अंतर नहीं है. संघ के लोग अपनी अनदेखी से दु:खी हैं और अपने सिद्धांतों की हत्या करने वाले नेताओं से नाराज़ भी हैं. वे दरअसल, अब उस मानसिक स्थिति में पहुंच गए हैं, जहां बूढ़ा शेर शिकार को सामने से जाते हुए देखकर भी उस पर हमला नहीं कर पाता. उसकी बेबसी ज़रूर होती है, लेकिन वह इसका एक रास्ता निकालता है और वह रास्ता यह है कि वह बच्चे से जवान होते हुए शेरों को नए सिरे से शिकार के लिए ट्रेनिंग देता है. भारतीय जनता पार्टी के बारे में इन बूढ़े, निराश और गुस्से से भरे हुए कुछ शेरों से जब हमारी बातचीत हुई, तब हमें लगा कि इनका दर्द भी लोगों के सामने आना चाहिए. भारतीय जनता पार्टी की यह कहानी इन बूढ़े, असहाय, निराश, लेकिन नाराज़ संघ के लोगों की व्यथा कथा है. यह व्यथा तब और बढ़ जाती है, जब ये लोग गोवा में भाजपा कार्यकारिणी की बैठक के दौरान एक दूसरे को गिराने की रणनीति खुलेआम बनाते और उस पर अमल करते दिखते हैं.
भारतीय जनता पार्टी आज अंदरूनी तौर पर कई हिस्सों में बंटी हुई है. हर आदमी दूसरे को पटकने में लगा है. स्थिति ऐसी हो गई है कि दूसरे भले ही डूब जाएं, मैं बच जाऊं. श्री लालकृष्ण आडवाणी ज़िंदगी में मिले इस आख़िरी मौ़के को गंवाना नहीं चाहते. नरेंद्र मोदी और उनके साथी मान रहे हैं कि ऐसा मौक़ा उन्हें ज़िंदगी में दोबारा नहीं मिलेगा. सुषमा स्वराज और राजनाथ सिंह सबके सिर पर सवार होना चाहते हैं. वहीं राजनाथ सिंह मोदी का इस्तेमाल कर सीटें तो लाना चाहते हैं, पर ऐसी स्थितियां भी पैदा कर रहे हैं, जिनसे मोदी के सर्वसम्मत प्रधानमंत्री बनने में संदेह पैदा हो जाए. नरेंद्र मोदी का सहारा लेकर सीटें लाना और फिर ख़ुद प्रधानमंत्री बनना राजनाथ सिंह की रणनीति का सूत्र वाक्य है. ऐसा ही उन्होंने 2004 में आडवाणी जी के समय भी किया था और सभी से कहा था कि मैं पार्टी अध्यक्ष हूं, इसलिए मेरे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने में किसी को क्या दिक्कत हो सकती है. संयोग है कि 2014 के आम चुनावों से पहले राजनाथ सिंह फिर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बन चुके हैं.
नरेंद्र मोदी अपने साथ संसदीय बोर्ड में अमित शाह को ले आए. हालांकि उनका क़द भारतीय राजनीति में कभी ऊंचा था ही नहीं. उनकी साख गुजरात में मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक बड़े खलनायक की रही है और उन्हें गुजरात में छोटा प्रमोद महाजन माना जाता रहा है. अब उन्हें नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनवा दिया है. नरेंद्र मोदी का मानना है कि उत्तर प्रदेश में जितनी ज़्यादा सीटें उनके अपने उम्मीदवारों को मिलेंगी, उनके प्रधानमंत्री बनने में उतनी ही सहूलियत होगी. नरेंद्र मोदी के इस हित की देखभाल अमित शाह को उत्तर प्रदेश में करनी है, पर मोदी की इस चाल का जवाब बहुत जल्दी भारतीय जनता पार्टी के असरदार लोगों ने राम जेठमलानी को पार्टी से निकाल कर दे दिया. राम जेठमलानी मोदी के आदमी हैं और उन्हें गुरुमूर्ति इस तर्क के साथ संसद में लेकर आए थे कि जेठमलानी मोदी के लिए सारे देश में अच्छी ज़मीन तैयार करेंगे. उन्होंने यह भी कहा था कि गुजरात दंगों में किसी भी चूक की वजह से मोदी जेल न जाएं, क्योंकि यही संघ परिवार के हित में है, इसीलिए राम जेठमलानी को पार्टी और संसद में लाना चाहिए. हमें भारतीय जनता पार्टी के बुद्धिजीवियों की मूर्खता के बारे में बताया गया और कहा गया कि राम जेठमलानी वकील हैं और वह पैसा लेकर मुक़दमा लड़ते हैं, इसलिए उन्हें पैसा देकर नरेंद्र मोदी का मुक़दमा लड़वाया जा सकता था. इसके लिए उन्हें पार्टी में लेने की क्या ज़रूरत थी. एक दूसरा उदाहरण हमें बताया गया कि भारतीय जनता पार्टी में संघ से आए प्रतिनिधि मदनदास देवी ने पार्लियामेंट्री बोर्ड में यह तर्क दिया कि महेश चंद्र शर्मा के पास रहने के लिए घर नहीं है, इसलिए उन्हें राज्यसभा का टिकट दे दिया जाए और उन्हें रहने के लिए घर न होने के कारण टिकट भी मिल गया. इसी तरह गुरुमूर्ति ने तर्क दिया और वह तर्क भी मान लिया गया. राम जेठमलानी अधिवक्ता हैं. उन्होंने वही किया, जो उन्हें करना चाहिए था. उन्होंने तर्क दिए, अब चाहे वे तर्क किसी निशाने पर लगें. हमें एक अच्छा उदाहरण दिया गया कि कोयला अगर हथेली पर रखें, तो यदि वह गरम होगा, तो हाथ जलाएगा और ठंडा होगा, तो हाथ काला करेगा.
पार्लियामेंट्री बोर्ड की उस बैठक में सभी लोग थे, जिसमें राम जेठमलानी को निकालने का फैसला लिया गया. अनंत कुमार ने प्रस्ताव रखा और सबने इस प्रस्ताव को माना. इस प्रस्ताव के पीछे आडवाणी जी थे, जिन्होंने मोदी को स्पष्ट संदेश दिया. आडवाणी जी ने अनंत कुमार के ज़रिए जेठमलानी को निकलवा कर मोदी को बता दिया कि भले ही वह पार्लियामेंट्री बोर्ड में आ गए हों, लेकिन उनके पर बहुत सुरक्षित नहीं हैं.
भारतीय जनता पार्टी में इस तरह की राजनीति बताती है कि नरेंद्र मोदी कहीं पहुंच भी पाएंगे या नहीं, क्योंकि न तो अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता भारतीय जनता पार्टी में हैं और न ही 89-90 जैसा माहौल अब देश में है. मज़े की बात यही है कि न नेतृत्व है और न माहौल है. इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी यह सोच रही है कि वह 200 सीटें पा जाएगी. हालांकि जब माहौल था, नेता था, उस समय भी 190 सीटें नहीं आ पाई थीं. इन दावों का खोखलापन भारतीय जनता पार्टी के लोग जानते हैं, पर इसके बाद भी रणनीति यह चल रही है कि अगर सीटें आ गईं, तो मैं क्यों पीछे रहूं, मैं अपनी दावेदारी अभी से क्यों न ठोक दूं. राजनाथ सिंह जब सीटें आएंगी, तब दावा ठोकेंगे, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ने सीटें आने से पहले ही दावा ठोकना शुरू कर दिया है.
भारतीय जनता पार्टी में कई गुट बन गए हैं. पहला गुट आडवाणी जी का है, जिसके अब तक नरेंद्र मोदी भी हिस्सा रहे हैं, लेकिन अब इसके दो हिस्से हो गए हैं. एक का नेतृत्व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं और दूसरे का लालकृष्ण आडवाणी. नरेंद्र मोदी को इस समय राजनाथ सिंह ताक़त दे रहे हैं. सत्यता तो यह है कि राजनाथ सिंह बैलेंस साधने का खेल खेल रहे हैं. एक तरफ़ उन्होंने नरेंद्र मोदी के अमित शाह को उत्तर प्रदेश भेजा और दूसरी तरफ़ उन्होंने उमा भारती को उत्तर प्रदेश में दबाया और साथ ही वरुण गांधी को महत्वपूर्ण रोल दिया. उमा भारती ने फौरन बयान दिया कि आडवाणी जी ही प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं. भाजपा के नेतृत्व में कहा जाने वाला हर व्यक्ति बिना दूसरे की चिंता किए खुद को पानी से ऊपर रखने की कोशिश कर रहा है और ऐसी स्थिति में संगठन मार खा रहा है, यही संघ की सबसे बड़ी चिंता है.
राजनाथ सिंह राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं. उन्हें पता था कि नरेंद्र मोदी को अमित शाह नामक मोहरे का उत्तर उमा भारती से कैसे दिलाया जा सकता है. उन्होंने उमा भारती को जानबूझ कर इतना दबाया कि वह आडवाणी जी की गोद में जाकर बैठ गईं और उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए आडवाणी जी का नाम ले लिया. उमा भारती भारतीय जनता पार्टी की सक्रिय राजनीति में नहीं हैं. वह इस समय गंगा यात्रा कर रही हैं. दरअसल, भाजपा में हर चेहरे के पीछे एक और चेहरा है. चेहरा कुछ है, सत्य कुछ है. शिवराज सिंह चौहान ज़ाहिरा तौर पर कहते हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री पद से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन वह मध्य प्रदेश में इसलिए भी ज़्यादा से ज़्यादा सीटें लाना चाहते हैं, ताकि वहां के लोग उनका भी नाम प्रधानमंत्री पद के लिए ले सकें. यही हाल वसुंधरा राजे का है. हर आदमी अपना घर पक्का करने में लगा हुआ है. उसकी सोच केंद्र में आने वाली भाजपा की सरकार के लिए कम और अपनी सत्ता कैसे बने, इसके लिए ज़्यादा है.
भारतीय जनता पार्टी पिछलग्गू भी बन गई है. किस्सा राष्ट्रपति पद के चुनाव में उम्मीदवारी को लेकर है. लालकृष्ण आडवाणी और नवीन पटनायक बैठे बात कर रहे थे. नवीन पटनायक ने कहा कि हर बार हम आपके उम्मीदवार का समर्थन करते हैं, इसलिए इस बार आप हमारे उम्मीदवार का समर्थन कर दीजिए. उन्होंने इसके लिए संगमा का नाम सामने किया और आडवाणी जी ने उसका समर्थन किया. इसके बाद नवीन पटनायक ने आडवाणी से यह भी कहा कि अगले चुनाव में कांग्रेस को उखाड़ने के लिए उन्हें उनके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का समर्थन करना पड़ेगा, क्योंकि सरकार तीसरे मोर्चे की ही बनेगी. भारतीय जनता पार्टी अब नेतृत्व करने की जगह समर्थक की भूमिका में आ गई है.
दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के बहुत सारे कार्यकर्ता आम आदमी पार्टी में चले गए हैं. संघ का मानना है कि इन कार्यकर्ताओं को अब इस बात का विश्‍वास नहीं रहा कि भारतीय जनता पार्टी का दिल्ली नेतृत्व कांग्रेस को हटाने में कोई गंभीर भूमिका निभा पाएगा. कार्यकर्ताओं को इस बात का दु:ख है कि जिन्हें भी भाजपा में पहले सिर पर बैठाया गया, उन्हें बाद में जूते से रौंदा भी गया. ऐसे लोगों की एक लंबी सूची है, जिसमें मदन लाल खुराना, उमा भारती, वसुंधरा राजे, शांता कुमार, भगत सिंह कोश्यारी, बी सी खंडूरी और ख़ुद राजनाथ सिंह का नाम है. इनमें स़िर्फ राजनाथ सिंह ऐसे सौभाग्यशाली हैं, जो मुख्य धारा में फिर वापस आ गए.
आडवाणी जी ने भाजपा में यह कहकर कि नितिन गडकरी लोकसभा का चुनाव निर्देशित करेंगे, एक नए सत्ता केंद्र का निर्माण कर दिया. दरअसल, ये छोटी-छोटी घटनाएं ज़रूर हैं, लेकिन ये घटनाएं नरेंद्र मोदी को संदेश देती हैं कि वह अपनी हद में रहें. संघ का दूसरा सबसे बड़ा दु:ख यह है कि उसके पास दुनिया में सबसे ज़्यादा समर्पित कार्यकर्ता हैं, लेकिन बावजूद इसके, भारतीय जनता पार्टी चुनाव हारती रही है. इसकी जड़ में अपना ही अपनों को मारता है, का मनोविज्ञान दिखाई दे रहा है. नरेंद्र मोदी को भी अपने ही मारेंगे, ऐसा उनका मानना है. आज भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं में ज़रा भी उत्साह नहीं है. शायद इसके पीछे कारण उन लोगों का नेतृत्व है, जिनका भारतीय जनता पार्टी से रिश्ता नहीं रहा. इसका उदाहरण भारतीय जनता पार्टी की मौजूदा कार्यकारिणी है. इसमें कई सारे लोग ऐसे भी हैं, जिनका भाजपा से कभी लेना-देना ही नहीं रहा. संघ के यह नेता कहते हैं कि अरुण शौरी, जसवंत सिंह, सुषमा स्वराज और यशवंत सिन्हा का भाजपा से क्या लेना-देना? कहा जाता है कि संघ भाजपा को नियंत्रित करता है, पर अब भाजपा में न तो संघ की विचारधारा है और न ही संघ के कार्यकर्ताओं का नेतृत्व. यह भी उदाहरण दिया जा रहा है कि गोविंदाचार्य और संजय जोशी जैसे लोगों को तो भाजपा से निकाल दिया जाता है, लेकिन रामलाल जैसे लोगों को रखा जाता है, जिनके ज़माने में भाजपा के केंद्रीय कार्यालय से तीन करोड़ रुपये गायब हो गए और उनका आज तक पता नहीं चला. न तो आज तक इसकी ज़िम्मेदारी तय हो पाई और न ही किसी ने इस पर कोई सवाल उठाया. संघ के इस निराश नेता का कहना है कि पूत के पांव पालने में ही दिखाई दे रहे हैं.
कांग्रेस के भीतर शक्ति एक व्यक्ति के हाथ में रहती है, भले ही उस शक्ति का इस्तेमाल सिंडिकेट करता है, लेकिन यह सिंडिकेट कांग्रेस के सर्वोच्च नेता के नाम पर काम करता है. सोनिया गांधी स्वयं ताक़तवर नहीं हैं, लेकिन उन्हें सिंडिकेट ने ताक़तवर बना रखा है. यह सिंडिकेट इस बात को सुनिश्‍चित करता है कि हर फैसला सोनिया गांधी के नाम से देश में जाए और जाना जाए. इसका परिणाम यह होता है कि तंत्र और अधिकार जनता के सामने स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं और कोई कन्फ्यूजन नहीं रहता. इसका दूसरा पहलू यह है कि जो भी राजनीतिक सौदेबाज़ी होती है, वह पहले निचले स्तर पर हो जाती है और नेता उस पर मुहर लगा देता है. यह एक प्रकार का सत्ता केंद्र है. दूसरे प्रकार का सत्ता केंद्र कम्युनिस्ट पार्टियों का है, जिसमें सब मिलकर फैसला लेते हैं.
भाजपा पहले कम्युनिस्टों की तरह दिखाई देती थी, जिसमें सभी मिलकर फैसला लेते हैं. इसमें संघ और भाजपा के लोग मिलकर बैठते थे और एक फैसला ले लेते थे, लेकिन आज की तारीख़ में भाजपा में फैसले कौन लेता है और कौन उन फैसलों को पलट देता है, इसका पता किसी को नहीं चलता. एक महीने पहले तक लगता था कि मोदी एक बड़ी ताक़त के रूप में उभर रहे हैं, पर अब भाजपा के शातिर लोगों ने मोदी को भी छीलना शुरू कर दिया है. संघ के लोगों का मानना है कि चूंकि इंडिविजुअल पॉवर सेंटर नहीं है, इसलिए यूनिटी ऑफ कमांड भी नहीं है. गु्रप बैठता नहीं है, इसलिए फैसले भी दाएं-बाएं होते हैं. कांग्रेस और भाजपा में पहले एक समानता थी कि जहां कांग्रेस में एक व्यक्ति फैसला लेता था, वहीं भाजपा में गु्रप बैठकर ़फैसले लेता था. अब एक समानता और हो गई है, जैसे कांग्रेस में अगर कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार में फंस जाए, तो सभी उसका समर्थन कर उसे बचाने की कोशिश करते हैं, वैसा ही अब भाजपा में भी हो रहा है. भाजपा में भी कांग्रेस की तरह पैसे खाए जा रहे हैं. इसका उदाहरण संघ के लोग देते हैं. उनका कहना है कि पहाड़ों पर बहुत ज़्यादा बांध नहीं बनने चाहिए, इसका सबसे ज़्यादा शोर भाजपा ने मचाया, लेकिन सबसे ज़्यादा बांध भाजपा की सरकार के समय बने. संघ परिवार और सेना ने सबसे ज़्यादा शोर मचाया कि श्रीलंका पर बने पुल के निशान को नहीं तोड़ा जाना चाहिए, क्योंकि नक्शा और नासा, दोनों कहते हैं कि यहीं पर रामसेतु था और इसे नहीं टूटना चाहिए, लेकिन उसे तुड़वाने का काम भाजपा की सरकार ने शुरू किया, क्योंकि उसके पीछे आर्थिक स्वार्थ था.
भाजपा ने ऐसे कई काम किए, जिन्हें कांग्रेस सपने में भी नहीं सोच सकती थी. जैसे, कांग्रेस सपने में भी हिंदुस्तान ज़िंक को पांच सौ करोड़ रुपये में नहीं बेच सकती थी, लेकिन भाजपा ने उसे बेच दिया. हिंदुस्तान ज़िंक का जो तीस प्रतिशत हिस्सा बचा हुआ है, उसे प्रसिद्ध उद्योगपति अनिल अग्रवाल 20 हज़ार करोड़ में लेने को तैयार हैं. आख़िर पिछले बारह सालों में ऐसा क्या हुआ कि 70 प्रतिशत हिस्से की क़ीमत 452 करोड़ और 30 प्रतिशत हिस्से की क़ीमत 20 हज़ार करोड़ रुपये? मारुति बिकेगी, यह कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था. सिकंदर बख्त भाजपा के मंत्री थे, उन्होंने एक हज़ार करोड़ रुपये में मारुति बेच दी. जो फैसला कांग्रेस नहीं कर सकती, वह फैसला भारतीय जनता पार्टी कर सकती है.
हम एक नया रहस्योद्घाटन कर रहे हैं. जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तो उनके दामाद रंजन भट्टाचार्य एवं उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा मिलकर पाकिस्तान और अमेरिका से बातचीत कर रहे थे. बातचीत जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों को लेकर थी कि उन्हें पाकिस्तान को दे दिया जाए और उसके साथ एक स्थायी सीमा समझौता कर लिया जाए. संघ के लोगों का मानना है कि देश के साथ यह सबसे ख़तरनाक समझौता होने वाला था, जो नहीं हो पाया. उस समय गोविंदाचार्य ने यह शोर मचाया और भारतीय जनता पार्टी से कहा कि अगर देश का एक भी हिस्सा उसने पाकिस्तान को दिया, तो वह ज़िंदगी में कभी भी सत्ता में वापस नहीं आ सकेगी. उस समय गोविंदाचार्य द्वारा विरोध करने पर अमेरिकन राजदूत बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने बाहर निकल कर कहा कि गोविंदाचार्य वाजपेयी को मुखौटा कह रहे हैं. दरअसल, गोविंदाचार्य को पार्टी से बाहर अमेरिका के कहने पर किया गया. नतीजा यह निकलता है कि भाजपा वह कर सकती है, जो कांग्रेस भी नहीं कर सकती और शायद इसीलिए, भ्रष्टाचार में भाजपा कई जगहों पर कांग्रेस से बहुत आगे है. कर्नाटक में येदियुरप्पा और राजस्थान में वसुंधरा राजे के शासनकाल की कहानियां इसकी पुष्टि करती हैं. पैसे खाने, काम न करने और अपने आदमियों के काम न करने के मामले में भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस से बहुत ज़्यादा आगे है.
संघ के लोगों का कहना है कि जब कोई कार्यकर्ता भाजपा के मंत्रियों के पास जाता था, या जाता है, तो चूंकि वे उससे पैसा नहीं मांग सकते, इसलिए उसका काम नहीं करते हैं और वहीं इसी काम को पैसे देने पर आसानी से होते देखा गया. भाजपा के राज में जितने बैंकों में डायरेक्टर बने, उनमें से आधे कांग्रेस के लोग थे, जो कभी कांग्रेस के शासन में भी डायरेक्टर नहीं बन पाए. उन दिनों कहा जाता था कि बैंकों के डायरेक्टर बनने वाले लोगों ने एक लाख या दो लाख रुपये दिए हैं. कांग्रेस इस मामले में ए टीम नहीं, बल्कि भाजपा कांग्रेस की ए टीम है. भाजपा में अब कभी भी किसी को निकाला जा सकता है. कांग्रेस में निकाले गए व्यक्ति को कभी वापस नहीं लिया जाता, लेकिन भाजपा में निकाला गया व्यक्ति कभी भी वापस आ सकता है. राम जेठमलानी चार बार पार्टी से बाहर गए और वापस आए. उत्तर प्रदेश में उमा भारती एवं कल्याण सिंह का वापस आना उतनी बड़ी घटना नहीं है, जितना पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान मायावती सरकार के एक मंत्री बाबुलाल कुशवाहा का भारतीय जनता पार्टी में शामिल होना है. भाजपा में सभी जानते हैं कि दिल्ली में मोटा पैसा लेकर इस व्यक्ति को पार्टी में लिया गया, जिसकी वजह से भारतीय जनता पार्टी बुरी तरह हार गई. यही नहीं, डी पी यादव भी मोटा पैसा देकर भारतीय जनता पार्टी में घुसना चाह रहे थे. संघ के यह शुभचिंतक बताते हैं कि डी पी यादव को पार्टी में न लेने का फैसला लेकर अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में जीत की बुनियाद रख दी. वहीं मायावती के भ्रष्टाचारी मंत्री को पार्टी में लेकर भाजपा ने अपने हाथों अपनी हार का भविष्य लिख लिया. भारतीय जनता पार्टी में एक कमाल की बात यह है कि जिस नेतृत्व के तहत पार्टी की सीटें घटती हैं, उसे कभी बदला ही नहीं जाता.
क्या भारतीय जनता पार्टी स्पैंट फोर्स हो गई है या फिर चुकी हुई ताक़त? सत्यता यह है कि संघ भारतीय जनता पार्टी की निर्णय प्रक्रिया से पूरी तरह बाहर है. संघ का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी कटी पतंग की तरह आकाश में उड़ रही है और यह धीरे-धीरे दस-पंद्रह सीटों पर सिमट जाएगी. जब भाजपा के नेता हताश हो जाएंगे और संघम शरणं गच्छामि हो जाएंगे, तब संघ के कार्यकर्ता दोबारा भाजपा को खड़ा करने में लगेंगे. संघ का कहना है कि आज जैसी महंगाई है, जितनी अनियमितताएं हैं, जितने घोटाले बाहर आ रहे हैं, इसके बावजूद अगर केंद्र सरकार नहीं गिर पा रही है, तो यह भारतीय जनता पार्टी का दोष है और यह स्थिति तब, जबकि सरकार के पास बहुमत नहीं है. देश का गृहमंत्री अमेरिका में अपनी आंख दिखाने जाए, तो इसका मतलब यह है कि 120 करोड़ लोगों की आंखें देखने वाले डॉक्टर नाकारा हैं. अगर इसे भी भाजपा अपना मुद्दा नहीं बना सकती, तो वह कुछ भी नहीं कर सकती. अगर सुशील कुमार शिंदे की आंखें इतनी ख़राब हैं, तो वह देश के गृहमंत्री कैसे हैं? उनकी बर्ख़ास्तगी की मांग भारतीय जनता पार्टी ने क्यों नहीं उठाई? देश जल रहा था और वह अमेरिका में अपनी आंखें दिखा रहे थे! संघ को इस बात का दु:ख है कि भारतीय जनता पार्टी ने कोई आवाज़ नहीं उठाई. संघ को इस बात का भी दु:ख है कि भारतीय जनता पार्टी ने मुख्य विपक्षी दल होते हुए भी विपक्ष की मर्यादा भंग कर दी. दरअसल, भाजपा में कोई धार नहीं है और न ही वे लोग बचे हैं, जो उसे धार दे सकें.

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