25 नवंबर, 1949 को संविधान बनकर तैयार हो चुका था. संविधान सभा संविधान बनाने की अपनी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी पूरी कर चुकी थी. हज़ारों विषयों पर बहस हुई. हज़ारों संशोधन आए. कुछ माने गए और कुछ नहीं माने गए. इसी दिन, यानी 25 नवंबर को डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में भाषण दिया था. अपने भाषण में बहुत सारी बातों के अलावा, उन्होंने न केवल कुछ ऐसी बातें कहीं, बल्कि कुछ ऐसी आशंकाएं भी जताई थीं, जो मौजूदा समाज, राजनीतिक हालात एवं लोकतंत्र के बारे में सही और सटीक साबित होती दिख रही हैं. आइए, ऐसी ही कुछ आशंकाओं एवं चेतावनियों पर एक नज़र डालते हैं और उन्हें मौजूदा परिदृश्य के मुताबिक समझने की कोशिश करते हैं.
dr.-ambedkar
संविधान सभा में दिए गए अपने अंतिम भाषण में डॉ. अंबेडकर ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी. उन्होंने जॉन स्टुअर्ट मिल की एक उक्ति का उदाहरण देते हुए कहा था, भारतीयों को एक महान व्यक्ति के पैर में अपनी स्वतंत्रता गिरवी नहीं रखनी चाहिए और उन शक्तियों के साथ उस महान व्यक्ति पर विश्‍वास नहीं करना चाहिए, जिनसे वह संस्थाओं का नाश करने में सक्षम हो जाए. उन्होंने कहा, इसमें कुछ भी गलत नहीं है कि हम उन लोगों के प्रति आभारी बनें, जिन्होंने देश के लिए जीवन भर सेवाएं दीं, लेकिन कृतज्ञता की भी एक सीमा होनी चाहिए. डॉ. अंबेडकर चिंता जताते हुए कहते हैं, भक्ति (किसी व्यक्ति की) या नायक पूजा लोकतंत्र के क्षरण और संभावित तानाशाही के लिए एक मार्ग प्रशस्त करती है.
बहरहाल, अगर 64 साल पहले दी गई इस चेतावनी पर नज़र डालें, तो हम पाएंगे कि आज भारतीय राजनीति में वही सब कुछ दिख रहा है. और स़िर्फ आज की ही बात नहीं, नेहरू युग के वक्त और उसके बाद भी भारतीय राजनीति में भक्ति और नायक पूजा की जो परंपरा शुरू हुई, वह आज तक कायम है. इसी भक्ति परंपरा का ही परिणाम था कि इंदिरा गांधी के समय तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने एक नारा दिया कि इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा. इसी भक्ति परंपरा का ही परिणाम रहा कि देश को आपातकाल के रूप में तानाशाही के दिन देखने पड़े. यानी भक्ति या कहें कि व्यक्ति पूजा के आगे देश का लोकतंत्र भी बौना पड़ गया. इसके बाद से भारतीय राजनीति में जिस वंश परंपरा की नींव पड़ी, वह आज तक जारी है. कांग्रेस में इंदिरा गांधी की विरासत को बढ़ाने के लिए आज भी राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी की भक्ति जारी है. आज कुल 20 से 25 ऐसे राजनीतिक दल इस देश में हैं, जो 120 करोड़ लोेगों पर शासन करते हैं और क़रीब-क़रीब ये सारे दल फैमिली प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह काम करते हैं. नेता बूढ़ा हो जाता है, तो उसका बेटा मुख्यमंत्री बन जाता है. पार्टी के ज़मीनी कार्यकर्ताओं की अहमियत एक बंधुआ मज़दूर जैसी होती है. पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर भद्दा मजाक होता है. एक ही व्यक्ति आजीवन अध्यक्ष बने रहना चाहता है. उसके विरोध में कोई चुनाव तक लड़ने की हिम्मत नहीं दिखाता. और अगर दिखाता भी है, तो समझिए कि उसका राजनीतिक करियर चौपट. कांग्रेस के जितेंद्र प्रसाद और सीताराम केसरी का उदाहरण सामने है. सीताराम केसरी सोनिया गांधी के लिए कांग्रेस अध्यक्ष का पद नहीं छोड़ना  चाहते थे और जितेंद्र प्रसाद ने सोनिया गांधी के ख़िलाफ़ कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा था. आज इन दोनों नेताओं का नामलेवा तक आपको कांग्रेस में ढूंढने से भी नहीं मिलेगा. यह हाल है, राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतंत्र का. जब पार्टी के भीतर ही आंतरिक लोकतंत्र न हो, तो देश में किस तरह का लोकतंत्र होगा, इसकी स़िर्फ कल्पना ही की जा सकती है.
इसके अलावा, आज हाईकमान की एक ऐसी थ्योरी राजनीति में आ चुकी है, जो आपको स्व-घोषित ईमानदार एवं पारदर्शी राष्ट्रीय पार्टियों में भी दिख जाएगी. राष्ट्रीय पार्टियों से अलग जितने भी क्षेत्रीय दल हैं, वहां भी सभी जगह क़रीब-क़रीब पार्टी से बड़ा एक व्यक्ति ही है. जद (यू) के अध्यक्ष भले ही शरद यादव हों, लेकिन जलवा, जादू और आदेश नीतीश कुमार का ही चलता है. जद (यू) के लोगों के लिए नायक नीतीश कुमार ही हैं. या फिर चाहे राजद हो, सपा हो, दक्षिण की क्षेत्रीय पार्टियां हों, सबका एक ही हाल है. दिलचस्प रूप से बसपा, जो डॉ. अंबेडकर की नीति पर राजनीति करने की बात करती है, वहां भी नायक पूजा का क्या हाल है और इस वजह से लोकतांत्रिक मूल्यों का क्या हाल है, इसे सब जानते हैं. किसी राज्य की जनता अमुक नेता को अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहती है और वह चुनाव भी जीत जाता है, लेकिन पार्टी हाईकमान दिल्ली में बैठे-बैठे ही एक ऐसे मुख्यमंत्री की घोषणा कर देता है, जो सालों से अपने गृह-राज्य में गया भी न हो या जिसने चुनाव भी न लड़ा हो. लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया के मुताबिक जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है, लेकिन भक्ति एवं नायक पूजा परंपरा ने जनता के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक अधिकार का भी मजाक बनाकर रख दिया है.
डॉ. अंबेडकर की एक और चेतावनी पर ध्यान दीजिए. यह चेतावनी आज बिल्कुल सच साबित होती जा रही है. संविधान सभा में दिए गए अपने अंतिम भाषण में वह कहते हैं, क्या इतिहास खुद को दोहराएगा? यह बात मुझे चिंतित करती है. मेरी चिंता इस बात को लेकर है कि जात-पात, पंथ जैसे अपने पुराने शत्रु के अलावा, आगे हमारे पास विविध एवं विरोधी मानसिकता के राजनीतिक दल होंगे. क्या भारतीय लोग उनके मत के ऊपर देश को जगह देंगे या वे लोग देश से ऊपर अपने मत को जगह देंगे? मुझे यह नहीं मालूम, लेकिन इतना तय है कि अगर ये राजनीतिक दल देश के ऊपर अपने मत को रखते हैं, तो निश्‍चित ही हमारी स्वतंत्रता ख़तरे में दूसरी बार पहुंच जाएगी और शायद हम हमेशा के लिए इसे खो दें. इस स्थिति से बचने के लिए हम सबको सख्ती से उठ खड़ा होना होगा.
अब जरा इस चेतावनी को आज के हालात से जोड़कर देखें, तो क्या लगता है? आज इस देश में जितने भी राजनीतिक दल हैं, उनके अस्तित्व का आधार क्या है? जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा. अपनी डफली-अपना राग. एक ही उद्देश्य. किसी भी तरह सत्ता पर काबिज हो जाएं. कुकुरमुत्तों की तरह उग आए राजनीतिक दलों का एजेंडा भी अजीब है. कोई मुंबई से बिहारियों को भगाना चाहता है. किसी को हिंदी को राष्ट्रभाषा मानने से ऐतराज है. किसी को हर ग़रीब नक्सली नज़र आता है. कुछ दल ऐसे हैं, जो केंद्र सरकार से खुल्लमखुल्ला सौदेबाजी करते दिखते हैं. समर्थन के एवज में विशेष पैकेज की मांग! लेकिन इस सबके बीच जनता क्या चाहती है, क्या सोचती है, इसका ख्याल किसी को नहीं है. जाहिर है, डॉ. अंबेडकर ने जैसी आशंकाएं जताई थीं कि जैसे ही राजनीतिक दल अपने मत को देश के ऊपर लादेंगे, वैसे ही हमारी स्वतंत्रता ख़तरे में पड़ जाएगी, आज ठीक वैसा ही हो रहा है. सरकार की नीतियां जनाकांक्षाओं के अनुरूप नहीं, बल्कि कॉरपोरेट हाउसेज और विदेशी कंपनियों के हितों के हिसाब से बन रही हैं. रिटेल में एफडीआई इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है. रिटेल में एफडीआई आने से लाखों लोगों के रोज़गार का क्या होगा, इसकी चिंता क्या सरकार में शामिल किसी राजनीतिक दल ने की? क्या आज ऐसा नहीं लगता कि सारे राजनीतिक दलों ने अपना-अपना मत देश के ऊपर लाद दिया है? बिल्कुल, आज यही हो रहा है. राजनीतिक दलों के मत के आगे जनता का मत मूल्यहीन हो चुका है. तो क्या ऐसे में, हमें डॉ. अंबेडकर की उस चेतावनी पर ध्यान नहीं देना चाहिए कि इस सबसे हमारी स्वतंत्रता ख़तरे में पड़ सकती है?
डॉ. अंबेडकर ने अपने भाषण में एक महत्वपूर्ण चेतावनी देते हुए कहा था, सामाजिक स्तर पर हमारे पास भारत में असमानता के सिद्धांत पर आधारित एक समाज है, जिसका अर्थ है, कुछ के लिए विकास और कुछ का क्षरण. आर्थिक दृष्टि से, हमारे पास एक ऐसा समाज है, जहां कुछ लोगों के पास बहुत धन है, वहीं कुछ लोग घोर ग़रीबी में रहने को विवश हैं. 26 जनवरी, 1950 को एक लोकतांत्रिक संविधान अपनाकर, भारत एक आदमी-एक वोट और एक वोट-एक मूल्य के सिद्धांत को सही ठहराएगा. हालांकि, कब तक हम एक व्यक्ति-एक मूल्य का सिद्धांत खारिज करते हुए चल सकेंगे? कब तक हम सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में समानता से इंकार करते रहेंगे? अगर हम लंबे समय के लिए इंकार करते रहे, तो ऐसा हम स़िर्फ अपने राजनीतिक लोकतंत्र को ख़तरे में डालकर ही करेंगेे. जल्द से जल्द संभव समय में इस विरोधाभास को दूर करना होगा, अन्यथा जो इस असमानता से पीड़ित है, वह उस राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को ख़त्म कर देगा, जिसे इस असेंबली (संविधान सभा) ने इतनी मुश्किल से बनाया है.
अब सवाल यह उठता है कि हिंदुस्तान में एक आम आदमी का मूल्य क्या है? मूल्य से अर्थ यह है कि एक आम आदमी की व्यक्ति होने की गरिमा क्या है? उस मानवीय गरिमा का क्या मूल्य है? इस संदर्भ में प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में लोग भूख यानी अन्न की कमी से नहीं मरते, क्योंकि देश में अन्न तो इतना है, जिसे रखने के लिए गोदामों में जगह तक नहीं है. सेन बताते हैं कि लोग इसलिए भूख से मरते हैं, क्योंकि जन वितरण प्रणाली के तहत अन्न को इन लोगों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी जिन अफसरों पर है, वे इन्हें आदमी (मानव) समझते ही नहीं. यानी नौकरशाहों की नज़र में इनकी मानव होने और मानवीय गरिमा का अर्थ ही ख़त्म हो चुका है. अन्यथा ऐसी कोई वजह नहीं है कि एक ओर देश के गोदामों में अन्न सड़ता रहे और दूसरी तरफ़ लोग भूख से मरते रहें. डॉ. अंबेडकर ने जो सामाजिक एवं आर्थिक स्तर पर असमानता की बात कही और चेतावनी दी कि एक दिन असमानता से पीड़ित लोग राजनीतिक लोकतंत्र की संरचना को उखाड़ कर फेंक देंगे, क्या आज वह चेतावनी सही साबित होती नहीं दिखती? अभी छत्तीसगढ़ में जो कुछ भी हुआ (नक्सली हमला), वह क्या था? वे क्या इस देश के नागरिक नहीं हैं? हो सकता है कि उन्हें कहीं बाहर से समर्थन मिलता हो, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि उन्हें क्यों हाथ में बंदूक थामनी पड़ी? क्या कभी इस सवाल पर ईमानदारी से सोचने और विचार करने की ज़रूरत महसूस की गई?
बहरहाल, बिना किसी भक्ति या नायक पूजा के, यह कहना गलत नहीं होगा कि डॉ. अंबेडकर ने आज से 64 साल पहले जो आशंकाएं जाहिर की थीं, वे आज अक्षरश: सही साबित हो रही हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले 64 सालों में जितनी भी सरकारें आईं, सभी ने इन आशंकाओं को नज़रअंदाज करते हुए ऐसे काम किए, जिनसे कि आज ये आशंकाएं सच साबित हो रही हैं. शायद बहुत देर हो चुकी है या फिर अब भी वक्त बाकी है? इस पर फैसला आप सब ही करें.
अब सवाल यह उठता है कि हिंदुस्तान में एक आम आदमी का मूल्य क्या है? मूल्य से अर्थ यह है कि एक आम आदमी की व्यक्ति होने की गरिमा क्या है? उस मानवीय गरिमा का क्या मूल्य है? इस संदर्भ में प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में लोग भूख यानी अन्न की कमी से नहीं मरते, क्योंकि देश में अन्न तो इतना है, जिसे रखने के लिए गोदामों में जगह तक नहीं है. सेन बताते हैं कि लोग इसलिए भूख से मरते हैं, क्योंकि जन वितरण प्रणाली के तहत अन्न को इन लोगों तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी जिन अफसरों पर है, वे इन्हें आदमी (मानव) समझते ही नहीं.

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