मुहर्रम के महीने की दसवीं तारीख को यौम-ए-आशूरा मनाया जाता है. यौम-ए-आशूरा का अर्थ है (यौम यानी दिन और आशूरा यानी दसवां जो अशर या अशरा से बना है, जिसका अर्थ होता है दस) दसवां दिन. दरअसल इसी दिन कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन को उनके परिवार के साथ शहीद कर दिया गया था.

इस्लाम के प्रचार के दौरान कई कबीले दुश्मन बन गए

इस शहादत की कहानी वहीं से शुरू होती है जहां से हज़रत मुहम्मद की कहानी का आगाज होता है यानी जब उन्होंने इस्लाम का प्रचार शुरू किया था. इस्लाम के प्रचार के दौरान अरब के कई कबीले मुहम्मद साहब के दुश्मन बन गए. उनमें से कई ने मुहम्मद साहब की बढ़ती हुई ताकत को देखकर इस्लाम कबूल कर लिया लेकिन दिलों के अंदर दुश्मनी बाकी रखी.

इन्ही में से एक था अबु सुफियान का परिवार. ये वही अबु सुफियान था जिसकी हज़रत मुहम्मद के हाथों मक्का में हार हुई थी और उसने इस्लाम अपना लिया था. अबु सुफियान का बेटा था अमीर मुआविया जिसने हज़रत अली के बाद खिलाफत की गद्दी संभाली और पांचवा खलीफा बना.

इतिहासकर लिखते हैं कि हज़रत अली के बाद उनके बेटे इमाम हसन को खलीफा बनना था लेकिन अमीर मुआविया ने कुछ शर्तों के साथ खिलाफत हासिल कर ली. कुछ इतिहासकारों का मत है कि अमीर-ए-मुआविया को हज़रत मुहम्मद के परिवार से डर था कि कहीं ये लोग खिलाफत पर दावा न कर दें इसलिए उसने इमाम हसन को जहर देकर मरवा डाला. बाद में जब अमीर-ए-मुआविया ने अपने बाद अपने बेटे यज़ीद को खलीफा घोषित कर दिया. ये उन शर्तो का उल्लंघन था जिनके तहत मुआविया को खिलाफत दी गई थी. अमीर मुआविया की मौत के बाद यज़ीद खलीफा बन गया और उसने इमाम हुसैन से अपनी बैत (समर्थन) के लिए कहा. इमाम हुसैन ने यज़ीद को खलीफा मानने से इनकार कर दिया.

यज़ीद को मालूम था कि जब तक हज़रत मुहम्मद के नाती और हज़रत अली के बेटे इमाम हुसैन उसकी बैत नही करेंगे तब तक उसका खिलाफत का दावा अधूरा था. इसलिये यज़ीद किसी भी कीमत पर इमाम हुसैन का समर्थन चाहता था. मगर इमाम हुसैन को बेदीन (अधर्मी) यज़ीद का खलीफा बनना मंजूर नही था. उन्होंने कहा कि मेरे जैसा कभी तेरे जैसे कि बैत नही कर सकता.

अल्लाह के पाक घर में खून-खराबा नहीं चाहते थे

जब इमाम हुसैन हज करने के लिए मदीना से मक्का आए तो उन्हें मालूम हुआ कि यहां यज़ीद के लोग उनका कत्ल कर सकते हैं तो वो मक्का से बिना हज किए ही चले गए. क्योंकि वो अल्लाह के पाक घर में खून-खराबा नहीं चाहते थे. वो मक्का से इराक के शहर कूफा पहुंचे. उन्होंने कूफे के लोगों से मदद मांगी. यज़ीद के सैनिक इमाम हुसैन की तलाश में कूफा भी पहुंच गए. इमाम हुसैन ने अपने पैसों से कर्बला में कुछ जमीन खरीदी और वहां अपने तंबू गाड़ दिए और अपने परिवार के 72 सदस्यों के साथ इन तंबुओं में ठहर गए. यज़ीद का हजारों का लश्कर भी कर्बला के मैदान में पहुंच गया.

प्राचीन परंपराओं के अनुसार कर्बला का अर्थ है ईश्वर की पवित्र भूमि. कहते हैं ये बस्ती कई बार उजड़ी और कई बार आबाद हुई. जब यज़ीद की सेना कर्बला पहुंची तो इमाम हुसैन को मालूम हुआ कि फौजी प्यासे हैं तो उन्होंने फौज को पानी पिलवाया. इमाम हुसैन का कहना था कि हमारी लड़ाई खिलाफत के पद की नही बल्कि नाना (हज़रत मुहम्मद) के दीन को बचाने की है. कुछ इतिहासकारों का मत है यज़ीद ने अपने कमांडर उमरे साद को आदेश दिया था कि वो इमाम हुसैन और उनके परिवार को शाम (सीरिया) ले कर आए और वो यहां उनसे बैत करने को कहेगा. लेकिन इसी दौरान शिम्र, इब्ने जियाद का खत लेकर पहुंचता है जिसमे लिखा था कि तुम इमाम हुसैन को कत्ल कर दो नहीं तो शिम्र को सेनापति बना दो.

बहरहाल हुकूमत हो या खिलाफत हमेशा षडयंत्र करने वाले सक्रिय रहते हैं. इसी कर्बला के मैदान में जहां इमाम हुसैन ने अपने विरोधी की सेना को पानी पिलवाया. वहीं उनके विरोधियों ने फुरात नदी से निकली नहर पर कब्जा कर लिया और इमाम हुसैन के परिवार का पानी बंद कर दिया. इमाम हुसैन जानते थे कि हजारों फौजियों के मुकाबले में उनके 72 साथी शहीद हो जाएंगे. वो चाहते तो खुद समेत सबको बचा सकते थे लेकिन उनकी नजर में दीनी उसूल ज्यादा अहम थे.

बेटे का कत्ल कर दिए जाने के बावजूद अपना इरादा न बदला

इमाम हुसैन तीन दिन तक भूखे-प्यासे औरतों और बच्चों से सब्र करने को कहते रहे. वो अपने छह महीने के बेटे को पानी पिलाने नहर पर ले गए. उनको उम्मीद थी कि इस बच्चे को तो पानी मिल ही जाएगा. लेकिन जालिम फौजियों ने उस बच्चे को भी नही बख्शा और एक तीन कीलों वाला तीर उसके गले मे दे मारा जो आर-पार होकर इमाम हुसैन के बाजू में जा धंसा. इमाम हुसैन के सामने उनके छह महीने के बेटे को कत्ल कर दिया गया लेकिन उन्होंने अपना इरादा न बदला.

नौ मोहर्रम की रात को इमाम हुसैन अपने परिवार के लोगों के साथ रात भर दुआ करते रहे. वो अल्लाह से दुआ करते रहे कि अल्लाह उनकी कुर्बानी को कबूल कर ले और दीन व शरीयत को बचा ले.

अगले दिन 10 मोहर्रम 61 हिजरी यानी 10 अक्टूबर, 680 ई. को कर्बला के मैदान में एक अजीब जंग हुई जिसमें हजारों प्रशिक्षित सैनिकों का मुकाबला छोटे-छोटे बच्चों और और औरतों समेत 72 भूखे-प्यासे लोगों से था. नतीजा सबको मालूम था. फिर भी लड़ना था. इंसानियत के लिए, सच्चाई के लिए, ईमान के लिए और शहादत के लिए.

सभी मर्दों को कत्ल कर दिया गया. बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया. औरतों को कैदी बना लिया गया. इमाम हुसैन का कटा सिर नेजे (भाले) पर शहर की गलियों में घुमाया गया. जालिमों ने अपने जुल्म की हर इंतेहा का प्रदर्शन किया लेकिन इमाम हुसैन से बैत न करा सके.

मुहर्रम की 10वीं तारीख को यौम-ए-आशूरा का एहतमाम

इस तरह पैगंबर हज़रत मुहम्मद के नवासे और हज़रत अली के बेटे हज़रत इमाम हुसैन ने शहादत देकर अधर्मी और अत्याचारी के खिलाफ न सिर्फ अपनी बहादुरी का परिचय दिया बल्कि अपनी धर्मपरायणता का भी उदाहरण दिया. तभी से मुहर्रम की दसवीं तारीख को यौम-ए-आशूरा का एहतमाम किया जाता है और इस मौके पर मातम किया जाता है.

इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद करते हुए दुःख भरे गीत गाए जाते हैं. सीनाजनी करते हुए ताजिया उठाया जाता है जिसका मकसद इमाम हुसैन के गम में शिरकत करने के साथ-साथ उनकी शहादत की याद को जिंदा रखते हुए अत्याचार और निरंकुशता के खिलाफ जद्दोजहद को जारी रखने की परंपरा को बचाए रखना भी है.

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