अन्ना हज़ारे की जनतंत्र यात्रा सुपर फ्लॉप हो सकती है, क्योंकि कई लोग यह मानते हैं कि हिंदुस्तान के लोगों को देश से कोई मतलब नहीं है. उन्हें अपने पेट के लिए रोटी और अपने भविष्य की चिंता ज़्यादा होती है. हर जगह लोग जाति और संप्रदाय में बंटे हैं. हर जगह बैकवर्ड-फॉरवर्ड की लड़ाई है. दलित और पिछड़ों की लड़ाई है. दलितों में भी दलित और महादलित की लड़ाई है. फॉरवर्ड में भी इस बात की लड़ाई है कि कौन सबसे बड़ा फॉरवर्ड है. हर जगह समाज में द्वंद्व ही चल रहा है. हर कोई हर किसी से लड़ रहा है. इसके अलावा जो युवा वर्ग है, जो बदलाव का एक कारक हो सकता है, लेकिन वह सुषुप्तावस्था में है और उसके सामने कोई आदर्श नहीं है. सलमान खान, शाहरुख खान एवं कटरीना कैफ जैसे लोग आज के नौजवानों के आदर्श हैं. नौजवानों ने अब देश के बारे में सोचना बंद कर दिया है, इसलिए भारत में जनता की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. अब देश में आंदोलन नहीं हो सकते. ऐसी स्थिति में आसानी से यह नतीजा निकाला जा सकता है कि अन्ना हज़ारे की जनतंत्र यात्रा सुपर फ्लॉप हो सकती है, लेकिन क्या यह आकलन सही है? अगर यह यात्रा फ्लॉप हो गई, तो क्या होगा?
देश के हालात स़िर्फ नाजुक नहीं, बल्कि भयावह हैं. हिंदुस्तान अराजकता, विद्रोह और हिंसा के मुहाने पर खड़ा है. यह किसी अंधे को ही नज़र न आए, वरना आंख बंद कर लेने से सच्चाई नहीं बदल जाती है. देश की राजनीतिक शक्तियां कुछ परिवारों में सीमित हो रही हैं. इन्हीं चंद परिवारों ने देश के लोकतंत्र को हाईजैक कर लिया है. ज़्यादातर पार्टियां किसी न किसी परिवार की लिमिटेड कंपनी बन गई हैं. लोकतंत्र के नाम पर जो कुछ बचा है, वह भी किसी न किसी परिवार में सीमित होने की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है. लोकतंत्र स़िर्फ नाम का बचा रह गया है, क्योंकि आज कोई आम आदमी संसदीय चुनाव तो दूर, मुखिया (प्रधान-सरपंच) का चुनाव भी नहीं लड़ सकता. दरअसल, राजनीतिक दलों ने चुनाव को जानबूझ कर इतना महंगा बना दिया है कि आम आदमी चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता. जहां तक बात आर्थिक व्यवस्था की है, तो यह भी चंद परिवारों के बीच ही सिमटती जा रही है. सरकार देश के छोटे व्यापारियों को बर्बाद करने वाली नीतियों को प्राथमिकता देती है. विदेशी पूंजी को दावत देकर सरकार ने देश की कंपनियों को ही ख़त्म करने का बीड़ा उठा लिया है. आश्‍चर्य की बात तो यह है कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं पर भी राजनीतिक-आर्थिक सत्ता का असर दिख रहा है, क्योंकि यहां भी दलालों का बोलबाला है. बड़े ही दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि पिछले 67 सालों में हिंदुस्तान ने अपने ही संविधान के साथ धोखा किया है.

देश के हालात स़िर्फ नाजुक नहीं, बल्कि भयावह हैं. हिंदुस्तान अराजकता, विद्रोह और हिंसा के मुहाने पर खड़ा है. यह किसी अंधे को ही नज़र न आए, वरना आंख बंद कर लेने से सच्चाई नहीं बदल जाती है. देश की राजनीतिक शक्तियां कुछ परिवारों में सीमित हो रही हैं. इन्हीं चंद परिवारों ने देश के लोकतंत्र को हाईजैक कर लिया है.

हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों ने देश को इसलिए आज़ाद कराया था कि राजनीतिक एवं आर्थिक शक्तियां लोगों के हाथों में रहें, कोई ग़रीब न रहे, कोई बेरोज़गार न रहे और किसानों एवं मज़दूरों का शोषण बंद हो. आज़ादी का मतलब तो यही था कि हर गांव, शहर और ग़रीब का विकास हो. स्वतंत्रता सेनानियों ने लोकतंत्र को इसलिए भी अपनाया था, क्योंकि उन्हें विश्‍वास था कि लोकतंत्र देश के विकास और बदलाव का एक मजबूत हथियार बनेगा, लेकिन किसे पता था कि गांधी, नेहरू, अंबेडकर एवं मौलाना आज़ाद का यह सपना देश के राजनीतिक दल चकनाचूर कर देंगे. पिछले 67 सालों में राजनीतिक दलों ने लोकतंत्र को भ्रष्टाचार, महंगाई, शोषण, लूट, बेईमानी, व्याभिचार, बलात्कार, अराजकता और बेरोज़गारी का पर्याय बना दिया है. आज के नेताओं एवं राजनीतिक दलों ने विकास और बदलाव के इस हथियार को भी भ्रष्टाचार, बेईमानी और लूट का माध्यम बना दिया है. राजनीतिक पार्टियां एवं सरकारें जिसे विकास कहती हैं, वह स़िर्फ एक छलावा है. 85 फ़ीसदी जनता विकास के किसी भी तरह के लाभ से वंचित है और उसे अब इस सरकार से कोई आशा भी नहीं है. जितने मॉल दिखाई देते हैं, जितनी कारें दिखाई देती हैं और जितने घर बन रहे हैं, वे सब इस देश के 15 फ़ीसदी लोगों के लिए ही हैं, क्योंकि देश का सारा पैसा इन्हीं 15 फ़ीसदी लोगों के पास संचित होता जा रहा है. इसका नतीजा यह है कि देश के 200 से ज़्यादा जिलों में नक्सलवादी हथियारों से लैस होकर दिन-रात टहलते हैं. यहां न तो सरकार की पुलिस पहुंचती है और न ही प्रशासन. नक्सलवादी बेखौफ़ होकर जन-अदालतें लगाते हैं, सभाएं करते हैं और सिस्टम के ख़िलाफ़ हथियार लेकर खड़े होने के लिए लोगों का आह्वान भी करते हैं. हैरानी की बात तो यही है कि लोग उनका साथ भी दे रहे हैं. आश्‍चर्य की बात तो यह है कि इन इलाक़ों में सरकारी अधिकारी अपनी जान बचाने के लिए नक्सलवादियों को पैसे तक देते हैं. दरअसल, यहां पर भारत सरकार का नहीं, बल्कि नक्सलवादियों का राज चलता है. हैरानी तो इस बात की है कि न तो इस स्थिति से सरकार चिंतित है और न ही विरोधी दल.
भारत का लोकतंत्र दो-दो भयानक ख़तरों की चपेट में है. एक तो देश की राजनीतिक एवं आर्थिक शक्तियां चंद परिवारों में सीमित होती चली जा रही हैं, तो वहीं दूसरी तरफ़ हिंसक आंदोलनों की वजह से गृहयुद्ध जैसा माहौल तैयार हो रहा है और इस ख़तरे के बीच जनता पिस रही है. ऐसी स्थिति में लोगों का विश्‍वास लोकतंत्र से उठता जा रहा है. राजनीतिक दलों एवं सरकार से तो लोगों का विश्‍वास पहले ही ख़त्म हो चुका है, क्योंकि महंगाई की मार ने देश की जनता को असहाय कर दिया है. लोगों की नाराज़गी तब और भी बढ़ जाती है, जब लाखों-करोड़ों रुपये के घोटाले सामने आते हैं. राजनीतिक दलों ने बेशर्मी की इंतिहा कर दी है. भ्रष्टाचार ने पूरे तंत्र को खोखला कर दिया है, लेकिन न तो किसी की ज़िम्मेदारी तय हो पाती है और न ही किसी को सजा होती है. देश चलाने वालों के लिए यह शर्म की बात है कि देश की जनता ने भ्रष्टाचार को जीवन शैली मान लिया है. लोग हतोत्साहित हो चुके हैं और इसीलिए अब वे कहने लगे हैं कि भ्रष्टाचार को तो वैधता प्रदान कर ही देनी चाहिए, ताकि सारे भ्रष्टाचारी एवं घूसखोर घूस लें और उस पर टैक्स देकर उसे व्हाइट कर लें.

भारत का लोकतंत्र दो-दो भयानक ख़तरों की चपेट में है. एक तो देश की राजनीतिक एवं आर्थिक शक्तियां चंद परिवारों में सीमित होती चली जा रही हैं, तो वहीं दूसरी तरफ़ हिंसक आंदोलनों की वजह से गृहयुद्ध जैसा माहौल तैयार हो रहा है और इस ख़तरे के बीच जनता पिस रही है.

हकीकत में जनता की यह कुंठा और घोर निराशा देश के लोकतंत्र के लिए उचित नहीं है. ऐसे में तो देश के लोकतंत्र पर ही सवालिया निशान खड़ा हो जाएगा. राजनीतिक दलों एवं नेताओं को पता नहीं क्यों यह बात समझ में नहीं आ रही है. क्या राजनीतिक दल यह चाहते हैं कि उनके कार्यकर्ताओं को लोग पकड़ कर यह पूछें कि बताओ, पिछले 15 सालों में तुम्हारी पार्टी ने हमारे लिए क्या किया? उनके नेताओं को कमरे में बंद करके यह पूछें कि बताओ, हमने क्या पाप किया है कि महंगाई हमारे सिर पर नाच रही है? क्या हमारे नेता यह चाहते हैं कि देश के नौजवान उनके अंगरक्षकों के हथियार छीनकर उनसे इस बात का जवाब मांगें कि हम बेरोजगार क्यों हैं? हमारे मां-बाप ने क्या गुनाह किया है कि इतनी मेहनत के बावजूद हमें रोटी नहीं मिलती? हमारी बहन ने क्या जुर्म किया है कि दहेज की वजह से उसकी शादी नहीं हो रही है? क्या राजनीतिक दल यह चाहते हैं कि उनके नेता जहां से गुजरें, वहां लोग उनकी गाड़ियों पर पत्थर मारें और डर के चलते ये नेता अपनी गाड़ियों से पार्टी का झंडा उतार कर घूमें? क्या राजनीतिक दल यह चाहते हैं कि जिस तरह रूस में लाखों लोग डूमा में घुस गए थे या हाल में जिस तरह लोगों ने सीरिया या मिस्र में किया, वही सब कुछ हिंदुस्तान में भी हो? क्या वे यह चाहते हैं कि लाखों की संख्या में लोग संसद, राष्ट्रपति भवन और सुप्रीम कोर्ट में घुस जाएं? अगर हमारे राजनीतिक दल और नेता अपनी चाल, चरित्र और चेहरा नहीं सुधारते हैं, तो इस बात को हकीकत में तब्दील होने से कोई नहीं रोक सकता, क्योंकि पिछले 67 सालों में देश के लोगों के दु:ख-दर्द दूर ही नहीं हुए हैं. राजनीतिक दलों को यह भी समझना पड़ेगा कि पिछले कुछ सालों में मतदान का प्रतिशत अचानक बढ़ गया है. हाल में हुए चुनावों में 70 से 90 फ़ीसदी तक मतदान हुआ है. हालांकि यह गौरव की बात है कि लोगों को आज भी यह विश्‍वास है कि चुनाव के जरिए उनकी समस्याएं हल हो सकती हैं, लेकिन चुनकर आने वाली हर सरकार जिस तरह से लूट-खसोट में जुट जाती है, उससे लोगों का गुस्सा और भी बढ़ जाता है. अगर हालात नहीं बदले, तो लोगों को लगने लगेगा कि मतदान करने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता है. एक कटु सत्य यह भी है कि जनता की समस्याओं के प्रति राजनीतिक दलों की संवेदनहीनता लोगों को हिंसक बनने का न्यौता दे रही है और यही वर्तमान समय का सबसे बड़ा ख़तरा है.
जनतंत्र यात्रा 2013 – अब बदलाव ज़रूरी है
लोकतंत्र पर छाए ख़तरों, जनता की कुंठा और घोर निराशा के बीच जब अन्ना हज़ारे ने दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन किया, तो देश भर में जनसैलाब उमड़ पड़ा. इस अनशन ने देश के लोगों को झकझोर कर रख दिया. पूरे देश के गली-मुहल्लों में पुरुष, महिलाएं, बच्चे, यहां तक कि बुजुर्ग भी सड़क पर निकल आए और भ्रष्टाचार का खुलेआम विरोध करने लगे. अन्ना हज़ारे के उस तेरह दिन के अनशन ने स़िर्फ एक काम किया और वह था कि लोगों को यह समझ में आ गया कि उनमें भी कुछ ताकत है. लोगों को यह एहसास हो गया कि अगर वे मिलकर खड़े हो जाएं, तो सरकार और राजनीतिक दल कांप सकते हैं. वैसे इसका असर राजनीतिक दलों पर साफ़ दिखा. लोगों को खड़ा देखकर पूरी संसद डर गई और उसे आधी रात तक बैठकर सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास करना पड़ा. यह प्रस्ताव वही था, जो अन्ना हज़ारे की मांग थी. प्रधानमंत्री को लिखित रूप से अन्ना हज़ारे को आश्‍वासन देना ही पड़ा. इसके बावजूद सरकार एवं राजनीतिक दल अपने दोहरे चाल, चरित्र और चेहरे से बाज नहीं आए और वे संसद में पारित हुए प्रस्ताव से अंतत: मुकर गए. जन लोकपाल की जगह एक ऐसे लोकपाल की पेशकश की गई है, जिससे न तो भ्रष्टाचार कम होगा और न ही भ्रष्ट अधिकारियों को सजा मिल पाएगी. ऐसा लगता है कि राजनीतिक दलों का अपने कार्यकर्ताओं से संपर्क छूट गया है, क्योंकि कार्यकर्ता किस हाल में जी रहे हैं और किस तरह वे रोज लोगों द्वारा अपमानित हो रहे हैं, उसकी ख़बर दिल्ली में बैठे लोकतंत्र के इन तानाशाहों को नहीं है. दरअसल, राजनीतिक दलों का ज़मीनी हकीकत से अब वास्ता ही ख़त्म हो गया है.
महंगाई, बेरोजगारी, राजनीतिक दलों की संवेदनहीनता, लोकतंत्र पर छाए ख़तरों, विद्रोह व अराजकता की कगार पर खड़े भारत और जनता की कुंठा एवं घोर निराशा के बीच अन्ना हज़ारे जनतंत्र यात्रा कर रहे हैं. वह लोगों से यह कहने के लिए निकल पड़े हैं कि लोकतंत्र का मतलब विकास, विश्‍वास, रोज़गार एवं संपूर्ण परिवर्तन है. अन्ना यह समझाने के लिए निकल पड़े हैं कि लोकतंत्र का मतलब जनता को, नौजवानों को और ग़रीबों को ताकत देना है. अन्ना यह एहसास कराने के लिए निकल पड़े हैं कि अगर जनता खड़ी हो जाएगी, तो देश से अंग्रेजों का क़ानून ख़त्म हो जाएगा. संविधान की आत्मा एवं जनता की आकांक्षाओं के मुताबिक़ क़ानून बनेंगे. बेरोज़गारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, शोषण और अत्याचार से मुक्ति मिलेगी. किसानों की ज़मीन कोई छीन नहीं सकेगा और खनिजों को कोई लूट नहीं सकेगा. जल, जंगल और ज़मीन पर देश का अधिकार होगा. इस व्यवस्था में समाज के सबसे कमज़ोर वर्गों और सभी वर्गों के शोषितों-ग़रीबों को न्यायपूर्ण हिस्सेदारी मिलेगी तथा गांव एक स्वायत्त इकाई के रूप में विकसित होंगे. यह एक ऐसे जनांदोलन की शुरुआत है, जिसका मकसद है देश में सच्चे जनतंत्र की स्थापना, गांव को स्वशासित इकाई में बदलना, एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना, जिसमें संसद लोगों के प्रति सीधे तौर पर जवाबदेह हो और उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप चलने वाली सरकार दे, ताकि गांव में न कोई भूखा रहे, न बेरोज़गार रहे, बल्कि सब मिलकर देश को दुनिया की सबसे शक्तिशाली ताक़त में बदल सकें.
अन्ना हज़ारे की जनतंत्र यात्रा सुपर फ्लॉप होगी या सुपर हिट, यह तो देश की जनता के समर्थन से पता चलेगा, लेकिन इस सच को नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता है कि देश के राजनीतिक दलों से सकारात्मक बदलाव की अपेक्षा करना बेमानी है, क्योंकि न तो ये खुद सुधरेंगे और न ही हालात सुधारने की कोशिश करेंगे. तो क्या देश की जनता लोकतंत्र को चंद परिवारों की कठपुतली बनते देखती रहेगी, देश के संसाधनों को लुटने देगी, महंगाई की मार झेलती रहेगी, अपने बच्चों का भविष्य अंधकार में ढकेल कर भ्रष्टाचारियों को मनमानी करने देगी? अन्ना ने जब भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन किया, तो उसका असर दिखा, इसलिए अन्ना इस बार व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन करने निकले हैं. वह देश के युवाओं का भविष्य उज्ज्वल करने के लिए यात्रा कर रहे हैं. ऐसे में देश की जनता को फिर से अन्ना का साथ देना होगा, क्योंकि उनकी जनतंत्र यात्रा शायद इस देश में शांतिपूर्ण ढंग से परिवर्तन का आख़िरी मौक़ा है. यह आख़िरी मौक़ा इसलिए भी है, क्योंकि लोकतांत्रिक प्रणाली में जनमत ही बदलाव का सबसे बड़ा हथियार है. जो परिवर्तन होना है, वह अब होना है. लोगों को अब यह समझना होगा कि मरने के बाद किसी ने स्वर्ग नहीं देखा है, इसलिए यह लड़ाई देश की जनता को आज और अभी लड़नी है. खुद जागना है और दूसरों को भी जगाना है.

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