देश में नए राजनीतिक हालात पैदा हो रहे हैं, लेकिन उस पर मुंबई, कोलकाता, चेन्नई एवं बंगलुरु में बैठे बड़े पैसे वाले और दिल्ली सहित विभिन्न राज्यों की राजधानी में बैठे राजनीति चलाने वाले राजनीतिक नेता ध्यान नहीं दे रहे हैं. मैं न नक्सलवाद की वकालत कर रहा हूं, न माओवाद की और न विद्रोह की, लेकिन मुझे लगता है कि जो हालात पैदा हो रहे हैं, उन्हें देखते हुए अग़र अन्ना हजारे की बात दिल्ली, मुंबई, कोलकाता एवं बंगलुरु में बैठे उद्योगपतियों और राजनीति चलाने वालों ने नहीं सुनी तो वे देश को नक्सलवाद, माओवाद या विद्रोह या फिर अराज़कता के हवाले कर देंगे. इसे आज ये सारे लोग अनसुना कर सकते हैं, लेकिन  वाला कल इनके लिए ख़तरा बनकर आने वाला है.

भ्रष्टाचार का विश्‍लेषण करना या यह बताना कि वह कहां है, कहां नहीं है, आज बेमतलब हो गया है. 1991 के बाद बाज़ार ने और सरकार ने योजनापूर्वक देश में ऐसी योजनाएं चलाईं, जिनसे रोज़गार के अवसर नहीं बढ़े, लेकिन लोगों को भ्रष्टाचार में लिप्त होने की अफीम सरकार ने गांव-गांव पहुंचा दी. ग़रीबों के लिए ऐसी योजनाएं चलाई गईं, जिनसे उनमें मेहनत करने की और अपने पैरों पर खड़ा होने की इच्छा ही समाप्त हो गई.

देश में लगभग 272 जिले नक्सलवाद की चपेट में हैं. सन् 1991 में जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने थे, तब लगभग 55 या 60 जिले नक्सलवाद की चपेट में थे. उस समय मनमोहन सिंह ने कहा था कि आने वाले 20 वर्षों में इस देश में बिजली आएगी, सड़कें बनेंगी, रोज़गार पैदा होंगे और गरीबी कम होगी. इन तर्कों के साथ उन्होंने देश को ख़ुशहाल बनाने के बहुत सारे वादे संसद में किए थे, क्योंकि इसी के साथ देश में बाजार आधारित नव उदारवादी नीतियां लागू की गई थीं. इन नीतियों के लागू होने के साथ संविधान के मूलभूत उद्देश्यों का पराभव हो गया. हमारे संविधान ने देश में रहने वाले हर नागरिक की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति का जिम्मा सरकार को दिया था. संविधान में लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना है और समाजवादी समाज के निर्माण का संकल्प है, लेकिन मनमोहन सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव के नेतृत्व में जो नीतियां लागू कीं, उन्होंने संविधान की इस मूल भावना को बदल दिया और देश की जनता को इसका एहसास भी नहीं होने दिया. जिस मध्यम वर्ग पर यह जिम्मेदारी थी कि वह इस तरीके से, चालाकी से किए गए बदलाव के बारे में देश को बताए, वह ख़ुद इस मोहजाल में फंस गया कि उसके बच्चे अमेरिका जाएंगे और उसके घर में ख़ुशहाली एवं पैसों की रेलमपेल हो जाएगी.
इसी भ्रमजाल में देश का मीडिया भी फंस गया. किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि देश में बेरोज़गारी के आंकड़े दिन दूनी-रात चौगुनी की दर से बढ़े हैं, किसान की खेती बरबाद हुई है और किसान खेती छोड़कर शहरों की ओर भाग रहा है. खेती घाटे और कर्ज का एक अंधा कुआं बनती जा रही है, जिसकी वज़ह से लाखों किसानों ने आत्महत्या कर ली. विदेशी पूंजी आई, लेकिन प्राइमरी सेक्टर की जगह कंज्यूमर सेक्टर में लगी, जिसकी वज़ह से किसानों की जमीन छीनने का अभियान सरकार की मदद से बड़े पूंजीपतियों ने प्रारंभ कर दिया. देश के नौजवानों को पढ़ने के बाद भी रोज़गार नहीं मिले और उनकी आवाज़ भी मीडिया ने अनसुनी कर दी, बल्कि नौजवानों को धर्म के नाम पर बांटने की कोशिश की गई. आज नौजवान अपने को ठगा महसूस कर रहा है. मजदूरों का हाल तो और बुरा है. उनके संगठन बेदम हो चुके हैं, उन्हें उत्पादन के मुना़फे में हिस्सेदारी नहीं मिलती और वे अपनी आवाज भी नहीं उठा पाते. महंगाई ने देश में जो हाहाकार मचाया है, उसकी आवाज़ न पैसे वालों के कानों में पहुंच रही है, न राजनीतिज्ञों के और न नौकरशाहों के. इन तीनों का यह मानना है कि जितनी महंगाई बढ़ेगी, उससे परेशान होकर मध्यम वर्ग का वह हिस्सा जो नौकरीपेशा है, भ्रष्टाचार में ज्यादा लिप्त होगा, क्योंकि उसे अपना घर चलाना है और उसके भ्रष्टाचार में लिप्त होने से राजनेताओं, पूंजीपतियों एवं नौकरशाहों के भ्रष्टाचार को एक तार्किक रास्ता मिलेगा और वे कह सकेंगे कि भ्रष्टाचार तो सब जगह है. महंगाई ने लोगों की जिंदगी को नर्क बना दिया है और मजे की बात यह है कि राजनीति में जो विपक्ष में हैं और मीडिया, जिस पर इस तकलीफ को सामने लाने की ज़िम्मेदारी है, दोनों ही अंधे और बहरे हो चुके हैं.
भ्रष्टाचार का विश्‍लेषण करना या यह बताना कि वह कहां है, कहां नहीं है, आज बेमतलब हो गया है. 1991 के बाद बाज़ार ने और सरकार ने योजनापूर्वक देश में ऐसी योजनाएं चलाईं, जिनसे रोज़गार के अवसर नहीं बढ़े, लेकिन लोगों को भ्रष्टाचार में लिप्त होने की अफीम सरकार ने गांव-गांव पहुंचा दी. ग़रीबों के लिए ऐसी योजनाएं चलाई गईं, जिनसे उनमें मेहनत करने की और अपने पैरों पर खड़ा होने की इच्छा ही समाप्त हो गई. वे उस भ्रष्टाचार का हिस्सा बन गए, जिसमें फंसकर उनके पुरुषार्थ को लकवा मार गया. कुल मिलाकर इस मुल्क में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ कोई आवाज न उठ सके, इसका माहौल बाज़ार और सरकार ने मिलकर बना दिया. शिक्षा व्यवस्था का ढांचा जान-बूझकर तोड़ा गया. स्वास्थ्य सेवाओं को जान-बूझकर बदहाल किया गया. ऐसा इसलिए किया गया कि विदेशी पूंजी गांव-गांव में जाए और गांव में दो प्रतिशत लोगों को महंगी शिक्षा और महंगी स्वास्थ्य सेवाओं का फ़ायदा मिले और बाक़ी लोग उनके गुलाम बन जाएं. सन् 1991 से लेकर आज तक ऐसा ही हो रहा है और चूंकि अख़बार स़िर्फ राजधानियों तक केंद्रित हो गए हैं और उनके मालिक पैसे कमाने-खाने के खेल में सरकार, पूंजीपतियों एवं नौकरशाहों के चौथे हिस्सेदार बन गए हैं, इसलिए अख़बारों में देश में इस लूट और अन्याय के ख़िला़ङ्ग चल रहे संघर्षों की आवाज नहीं आती और टेलीविजन चैनल जान-बूझकर नॉन इश्यू को इश्यू बनाने में लगे रहते हैं. लोगों की तबाही को उन्होंने मनोरंजन का साधन बना दिया है.

देश में लगभग 272 ज़िले नक्सलवाद की चपेट में हैं. सन् 1991 में जब मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने थे, तब लगभग 55 या 60 ज़िले नक्सलवाद की चपेट में थे. उस समय मनमोहन सिंह ने कहा था कि आने वाले 20 वर्षों में इस देश में बिजली आएगी, सड़कें बनेंगी, रोज़गार पैदा होंगे और ग़रीबी कम होगी. इन तर्कों के साथ उन्होंने बहुत सारे वादे देश को ख़ुशहाल बनाने के संसद में किए थे, क्योंकि इसी के साथ देश में बाज़ार आधारित नवउदारवादी नीतियां लागू की गई थीं.

देश के ग़रीबों में सबसे बुरी और पसोपेश वाली हालत मुस्लिम समाज की है. उसने सालों साल लोगों को जिताने या हराने का काम किया, लेकिन उसे ख़ुद क्या चाहिए, इसका उसने फैसला ही नहीं किया. अन्ना हज़ारे की आवाज़ पर मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा यह सोचने लगा है कि उसे भी बदलाव के लिए शुरू होने वाले इस नए आंदोलन में न केवल बराबर की हिस्सेदारी करनी चाहिए, बल्कि शिक्षा, रोज़गार और मुल्क की ज़िंदगी पर असर डालने वाले सवालों के फैसलों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना चाहिए. मुस्लिम नौजवान, लड़के-लड़कियां, पुरानी बेड़ियों से आज़ाद होना चाहते हैं और यह छटपटाहट मुस्लिम समाज के भीतर होने वाले बदलाव का ख़ुशनुमा संकेत है, किन क्या यही सच्चाई है? मैं मुंबई, कोलकाता, चेन्नई एवं बंगलुरु में बैठे बड़े पैसे वालों, जिनमें अग्रणी नाम मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी का है, कुमार मंगलम बिड़ला का है, रतन टाटा का है, बजाज का है, बाक़ी नाम आप ख़ुद जोड़ सकते हैं, उन्हें बताना चाहता हूं कि अगर आपकी उदारवादी नीतियों का ़ङ्गायदा हिंदुस्तान की जनता को हुआ होता तो 60 से बढ़कर 20 सालों में 272 ज़िले नक्सलवाद के प्रभाव में नहीं आ जाते. राजधानियों के बाहर न सड़कें हैं, न अस्पताल हैं, न स्कूल हैं, न रोज़गार के साधन हैं और न कुछ भविष्य में इन्हें मिलने की आशा है. इसलिए इन 272 ज़िलों के 400 ज़िलों में बदलने की आशंका बलवती है. नक्सलवाद सिद्धांत ग़रीब जनता को यह बता रहे हैं कि सरकार, राजनेता, पैसे वाले और मीडिया उनकी तकलीफों को कभी दूर नहीं करेंगे. इसलिए उन्हें हाथ में हथियार उठाकर इस व्यवस्था का प्रतिकार करना चाहिए. सरकार, राजनेताओं और पैसे वालों द्वारा किए जा रहे काम नक्सलवादियों के तर्क के पक्ष में जनता को खड़ा कर रहे हैं.
यहीं पर अन्ना हज़ारे की प्रासंगिकता दिखाई देती है. अन्ना हज़ारे गांधीवादी हैं, 75 वर्ष के हैं और वह देश की इस स्थिति से दु:खी हैं. इसीलिए जब उन्होंने 2011 में भूख हड़ताल की तो सारा देश उनके साथ खड़ा हो गया. अन्ना हज़ारे का कहना है कि इस देश में ऐसी संसद चाहिए, जो जनता के प्रति जवाबदेह हो. जनता के प्रति जवाबदेही का मतलब है कि व्यवस्था को इस तरह तत्काल बदला जाए कि वह आम जनता के पक्ष में खड़ी हो. अन्ना हज़ारे का कहना है कि गांव को एक स्वावलंबी इकाई बनाया जाए और एक ब्लॉक के गांवों का फेडरेशन बने, ताकि एक गांव में जिस चीज़ की कमी हो, दूसरे गांव के साधन से उसकी पूर्ति की जाए. सारे ब्लॉकों के गांवों का आपस में तालमेल हो और ज़िला आख़िरी को-ऑर्डिनेशन की इकाई हो. पहला आधार हर गांव में पानी, खेती, फसल की मार्केटिंग और रोज़गार के साधन हों. उनका को-ऑर्डिनेशन ज़िले में बैठा आईएएस अफसर करे और अगर ज़िले में एक भी आदमी बेरोज़गार रहता है, एक भी आदमी भूखा मरता है, किसी की भी फ़सल बरबाद होती है या कहीं पर पानी उपलब्ध नहीं होता तो उसके करियर का ख़ात्मा वहीं मान लेना चाहिए. गांव अपने विकास की योजना बनाकर ज़िला स्तर पर आपस में को-ऑर्डिनेशन करें. ज़िला ़फैसला लेने वाली इकाई न हो, को-ऑर्डिनेशन करने वाली इकाई हो. ज़िले में स्कूलों, अस्पतालों, सड़कों, पुलों, संचार साधनों एवं बाज़ार की व्यवस्था का नेटवर्क विकसित करने का ज़िम्मा डिस्ट्रिक्ट को-ऑर्डिनेशन यूनिट पर हो.
अन्ना का यह भी कहना है कि बिना जाति, धर्म एवं संप्रदाय का भेद किए हुए देश को खड़ा करने में जो भी अधिकारी अड़चन बनता है, उसे फ़ौरन सेवामुक्त करके उसके घर भेज दिया जाना चाहिए. नौजवानों को न केवल रोज़गार मिले, बल्कि उन्हें निर्णायक जगहों में हिस्सेदारी भी मिले, यह आवश्यक है. अन्ना हज़ारे का कहना है कि अगर 18 साल की उम्र में नौजवान को सेना में भेजकर सीमा पर जाकर जान देने की अपेक्षा समाज करता है तो उस नौजवान पर फैसला लेने वाली इकाइयों में शामिल करने का विश्‍वास भी समाज में होना चाहिए. अन्ना का कहना है कि आज ऐसे अर्थशास्त्रियों की भरमार है, जो बाज़ार आधारित समाज को बांटने वाले रास्तों की तलाश करते हैं. उन्होंने ऐसे अर्थशास्त्रियों का आह्वान किया है, जो आज के चुनौतीपूर्ण वातावरण में गांव को मुख्य इकाई मानकर नई अर्थव्यवस्था का ख़ाका देश के सामने रखें. देश के जल, जंगल एवं ज़मीन को बचाते हुए उद्योगों का ऐसा जाल बिछे, जिसमें देश के कच्चे माल का पूरा इस्तेमाल हो सके. अन्ना का यह भी कहना है कि आठवीं कक्षा के बाद शिक्षा रोज़गारपरक हो और हर स्कूल के साथ, कॉलेज के साथ प्रोडक्शन यूनिट भी बनाई जाए. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट के हिसाब से अगले 20 वर्षों तक हमारे देश में दूध और दुग्ध आधारित वस्तुओं का अभाव रहने वाला है. इसलिए नदियों के किनारे के सारे स्कूलों-कॉलेजों को दूध और दुग्ध आधारित उद्योगों के साथ जोड़ देना चाहिए. इन स्कूलों-कॉलेजों को यह ज़िम्मेदारी सौंपनी चाहिए कि वे अगले साल भर में पांच या दस मील के दायरे के भीतर किसी को भी निरक्षर न रहने दें. इन स्कूलों एवं कॉलेजों में निर्मित वस्तुओं-उत्पादों को क्वालिटी कंट्रोल के आधार पर सरकार ख़रीदे, क्योंकि सरकार के पास सेना एवं पैरा मिलिट्री फोर्सेज सहित बहुत सारे ऐसे संगठन हैं, जहां पर इन उत्पादों को खपाया जा सकता है. अन्ना का कहना है कि इससे तत्काल करोड़ों लोगों को न केवल रोज़गार मिलेगा, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा भी मिलेगी. इसी तरह स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा जिस भी ज़िले में कमज़ोर होता है, वहां के अधिकारियों को इसका दंड भुगतना पड़ेगा.
अन्ना का यह सोचने का ढंग बताता है कि ये व्यवस्था परिवर्तन के पहले क़दम हैं. अन्ना व्यवस्था परिवर्तन की बात इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि वह नहीं चाहते कि इस देश में विद्रोह या अराजकता फैले, वह नहीं चाहते कि इस देश में दंगे हों, वह नहीं चाहते कि इस देश में क़त्लेआम हो. अन्ना के बताए हुए ये संकेत देश के सभी वर्गों के ग़रीबों एवं वंचितों को एक नई आशा दिखाते हैं. अन्ना को जिस तरह सारे देश में समर्थन मिल रहा है, उससे लगता है कि अब जो संसद आएगी, वह ऐसे क़दम उठाने के लिए बहुत सारे क़ानूनों को समाप्त करेगी और नए क़ानून बनाएगी. अन्ना का कहना है कि सारे राजनीतिक दलों को इन सवालों पर अपना रुख़ सा़ङ्ग करना चाहिए. साथ ही उनका कहना है कि लोकसभा के उम्मीदवारों को एक पक्का अदालती शपथपत्र (एफिडेविट) देना चाहिए कि मैं इन सिद्धांतों पर काम करूंगा और अगर मैं इन पर काम करता हुआ न पाया जाऊं तो मेरा इस्ती़ङ्गा लोकसभा अध्यक्ष स्वीकार कर लें. शायद यह राइट टू रीकॉल का पहला क़दम हो सकता है. अगर किसी क्षेत्र के 35 प्रतिशत मतदाता कहें कि उन्हें अपने प्रतिनिधि पर भरोसा नहीं है तो उस प्रतिनिधि को रीकॉल के लिए उसके क्षेत्र में दोबारा मतदान कराया जाए. यहां एक नई संभावना दिखाई देती है. अगर देश के राजनीतिक दल अन्ना द्वारा उठाए गए इन सवालों पर चुप रहते हैं या इनका विरोध करते हैं तो फिर देश में एक नए राजनीतिक आंदोलन का सूत्रपात हो सकता है, जिसमें जनता ख़ुद एक राजनीतिक दल के रूप में बदल जाए और ऐसे उम्मीदवार चुने, जो उसके लिए सचमुच एक नई व्यवस्था का निर्माण करें.
मैं एक पत्रकार के नाते, समाज विज्ञान का अध्ययनकर्ता होने के नाते दिल्ली, मुंबई, कोलकाता एवं चेन्नई में बैठे बड़े पैसे वालों और सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से यह आग्रह करना चाहता हूं कि आज वक्त है कि वे अन्ना हज़ारे की बात सुनें, क्योंकि अन्ना हज़ारे की बात इस देश के सौ करोड़ लोग सुन रहे हैं, उनके साथ जनरल वी के सिंह, पी वी राजगोपाल, राजेंद्र सिंह एवं मौलाना सैयद सूफी जीलानी जैसे लोग देश में घूमना शुरू कर चुके हैं. जितने भी संगठन देश में इस स्थिति के ख़िला़ङ्ग अकेले-अकेले संघर्ष कर रहे हैं, वे अब अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में एकजुट होने का संदेश भेज रहे हैं. इतना ही नहीं, राजनीतिक दलों के भीतर भी जो संवेदनशील लोग हैं, वे भी अन्ना हज़ारे को संदेश भेज रहे हैं कि वे उनकी मुहिम में शामिल होना चाहते हैं. अन्ना हज़ारे ने उनके लिए एक शपथपत्र बनाने की शुरुआत की है कि अगर वे उनके आंदोलन में शामिल होते हैं तो उन्हें किन-किन चीज़ों का शपथपूर्वक वादा जनता से करना होगा और यहीं से जनतंत्र उम्मीदवार का सिद्धांत भी विकसित होता दिखाई देता है.
अगर आज देश के उद्योगपति, राजनेता एवं नौकरशाह अन्ना की आवाज़ सुनते हैं और नई व्यवस्था लाने में मदद करते हैं तो उनकी जानें बच जाएंगी. देश एक ख़तरनाक मोड़ पर खड़ा है. समझदार राजनेता वह होता है, जो अगले 20 सालों में होने वाली घटनाओं का अंदाज़ा लगा सके और उनके हिसाब से देश को तैयार कर सके. ऐसे ही लोग इतिहास में अच्छे नेता के रूप में याद किए जाते हैं. वरना इतिहास की जूते खाने वाले नेताओं की लिस्ट में शामिल हो जाते हैं. आज देश के नेताओं एवं पैसे वालों को तय करना है कि वे इस देश में सभी लोगों के लिए नई व्यवस्था का निर्माण करने की अन्ना की कोशिश का समर्थन करते हैं या फिर देश को गृहयुद्ध, विद्रोह और अराजकता की चपेट में डालने के षड्यंत्र के हिस्सेदार बनते हैं.
30 जनवरी इस देश के लोगों की परीक्षा का दिन है. अगर बिना साधन दिए अन्ना की बदलाव की आवाज़ पर पटना के गांधी मैदान में स़िर्फ 50 हज़ार लोग भी पहुंचते हैं तो यह उन लोगों के लिए आख़िरी चेतावनी होगी, जो जनता के हितों के ख़िला़ङ्ग खड़े हैं, जो नौजवानों का भविष्य बर्बाद कर रहे हैं और जो इस राजनीतिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं, क्योंकि बहरे कानों को इंकलाब की आवाज़ सुनाने का दिन 30 जनवरी निश्‍चित हो चुका है.

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