इस बार भारत में हमने रामनवमी कैसे मनाई ? हमने रामनवमी को रावणनवमी में बदल दिया। देश के कई शहरों और गांवों में एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय से भिड़ गए। यहां तक की जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्र, जिन्हें देश में अत्यंत प्रबुद्ध माना जाता है, वे भी आपस में भिड़ गए। कई शहरों में लाठियां, ईंट और गोलियां भी चलीं। कुछ प्रदर्शनकारी पुलिस की ज्यादती के भी शिकार हुए। यह सब हुआ है, उसके जन्म दिन पर, जिसे अल्लामा इक़बाल ने ‘इमामे हिंद’ कहा है। इकबाल का शेर है- है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज़। अहले-नज़र समझते हैं इसको इमामे हिंद!! राम को भगवान भी कहा जाता है और मर्यादा पुरुषोत्तम भी। लेकिन राम के नाम पर कौनसी मर्यादा रखी गई? राम को सांप्रदायिकता के कीचड़ में घसीट लिया गया। इसके लिए हमारे देश के वामपंथी और दक्षिणपंथी तथा हिंदू और मुसलमान, दोनों जिम्मेदार हैं। यदि रामनवमी का उत्सव मना रहे पूजा-पाठी छात्र कह रहे हैं कि पूजा-स्थल के तंबू के पास ही छात्रावास में मांस पकाया और खिलाया जा रहा है तो उससे हमें दुर्गंध आती है तो उनका दिल रखते हुए मांसाहार कहीं और भी उस समय करवाया जा सकता था और यदि मांसाहारी छात्र चाहते तो पूजा के घंटे भर पहले या बाद में भी भोजन कर सकते थे लेकिन यह झगड़ा तो न राम से संबंधित था और न ही मांसाहार से! इसके मूल में संकीर्ण राजनीति थी। वामपंथ और दक्षिणपंथ की! मांसाहार का समर्थन करनेवालों में हिंदू छात्र भी थे। हिंदू मांसाहारी तो अपना औचित्य ठहराने के लिए भवभूति के ग्रंथ ‘उत्तरराम चरित्रम’, प्रसिद्ध तांत्रिक मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ और चार्वाक के मद्यं, मांसं, मीनश्च, मुद्रा, मैथुनमेव च श्लोक तथा उपनिषदों के कई प्रकरणों को भी उद्धृत कर डालते हैं। वे वेदमंत्रों के भी मनमाने अर्थ लगा डालते हैं लेकिन वे वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों के उन तथ्यों और तर्कों को मानने के लिए कभी भी तैयार नहीं होते कि मांसाहार स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था के लिए घाटे का सौदा है। इसी तरह कुछ शहरों में मंदिरों और मस्जिदों के आगे भी बम फोड़े गए, पत्थर मारे गए और गोलियां तक चलीं। आप क्या समझते हैं कि यह काम किसी सच्चे ईश्वरभक्त या अल्लाह के बंदे का हो सकता है? बिल्कुल नहीं! यदि कोई सच्चा ईश्वरभक्त या अल्लाह का बंदा है तो उसके लिए ईश्वर और अल्लाह अलग-अलग कैसे हो सकते हैं? वह तो एक ही है। बस, उसकी भक्ति के रुप अलग-अलग हैं। ये रूप देश-काल और परिस्थितियों से तय होते हैं। यदि सारे विश्व में देश-काल और परिस्थितियां एक-जैसी होतीं तो इतने सारे धर्म, मजहब, रिलीजन होते ही नहीं। इस विविधता को धर्मांध लोग नहीं समझ पाते हैं। इसीलिए वे रामनवमी को रावणनवमी बना डालते हैं। किसी शायर ने क्या खूब लिखा हैः

आए दिन होते हैं, मंदिरों-मस्जिद के झगड़े,
दिल में ईंट भरी हैं, लबों पर खुदा होता है।

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