पिछले वर्ष अगस्त महीने में वित्त मंत्री अरुण जेटली की अध्यक्षता वाले केंद्रीय मंत्रियों के समूह (जीओएम) ने बदलाव के कुछ सुझावों के साथ राष्ट्रीय मेडिकल आयोग बिल 2017 को अपनी मंज़ूरी दे दी थी. उसके बाद 29 दिसम्बर को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री जेपी नड्‌डा ने इस बिल को लोकसभा में पेश किया. लेकिन इंडियन मेडिकल काउंसिल के विरोध और डॉक्टरों के हड़ताल पर जाने की धमकी के बाद इस बिल को संसदीय स्थायी समिति (स्वास्थ्य) के विचार के लिए भेज दिया गया है. समिति अपनी रिपोर्ट बजट सत्र से पहले पेश कर सकती है.

बिल के प्रावधान

संसद की मंजूरी के बाद राष्ट्रीय मेडिकल आयोग, वर्ष 1956 में पारित मेडिकल काउंसिल ऑ़फ इंडिया अधिनियम की जगह ले लेगा. फ़िलहाल यह बिल संसद की स्थायी समिति के पास है. समिति के सुझावों के बाद एक बार फिर इस बिल को पारित करवाने की पुनः कोशिश की जाएगी. यह देखना दिलचस्प होगा कि स्थायी समिति अपनी रिपोर्ट में मूल बिल में कौन-कौन से सुझाव पेश करती है. लेकिन यहां बिल के कुछ प्रावधानों पर एक नज़र डालना उचित होगा. इस बिल में मेडिकल शिक्षा और उच्च गुणवत्ता वाले डॉक्टर मुहैया कराने, अत्याधुनिक शोध को अपने कार्य में सम्मिलित करने और मेडिकल संस्थाओं का समय-समय पर निरीक्षण करने से संबंधित कई प्रस्ताव रखे गए हैं. बिल में एमबीबीएस ग्रेजुएट्‌स को डॉक्टरी की प्रैक्टिस का लाइसेंस हासिल करने के लिए एक एग्जिट परीक्षा पास करने का प्रावधान रखा गया है. ये परीक्षा पोस्ट-ग्रेजुएट कोर्सेज में दाखिले के लिए नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट (नीट) का भी काम करेगी. इसके अलावा बिल में चार स्वायत्त बोर्ड गठित करने का भी प्रावधान है. स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा के संचालन, मेडिकल संस्थानों की रेटिंग और निरीक्षण, डॉक्टरों का रजिस्ट्रेशन और मेडिकल एथिक्स को लागू करना, बोर्ड की जिम्मेदारी होगी.

डॉक्टरों की पूर्ति नीम-हकीमों से

इस बिल को लेकर सबसे पहली आपत्ति यह है कि आयुष (आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी आदि) के चिकित्सक एक ब्रिज कोर्स पास कर लेने के बाद एलोपैथी की दवाएं देने के पात्र हो जाएंगे. इस तरह का एक क़ानून मध्यप्रदेश में लागू है, जहां तीन महीने की क्लास के बाद पारंपरिक चिकित्सा कर्मियों को 72 एलोपैथिक दवाएं देने का लाइसेंस दे दिया जाता है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) का मानना है कि इस प्रावधान की वजह से देश में नीम-हकीमों की बाढ़ आ जाएगी. ज़ाहिर है पारंपरिक चिकित्सा का अपना स्थान है. कई मामलों में आयुर्वेद, यूनानी और दूसरी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां कारगर साबित होती हैं और मरीज़ भी इस इलाज को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन महज़ कुछ महीनों की ट्रेनिंग के बाद एलोपैथिक पद्धति की प्रैक्टिस की इजाज़त दे देना गरीब जनता की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करना होगा.

स्वास्थ्य सेवा का बाजारीकरण

इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद देश में मेडिकल शिक्षा पर दूरगामी प्रभाव पड़ना लाजिमी है, लेकिन इसमें स्वास्थ्य सेवाओं में किसी विशेष बदलाव की गुंजाइश नज़र नहीं आ रही. केवल यह  कह देने से कि स्वास्थ्य क्षेत्र के निजीकरण से उच्च गुणवत्ता की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो जाएंगी, दूर की कौड़ी लगती है. व्यावसायीकरण ने इलाज इतना महंगा कर दिया है कि गरीब आदमी किसी निजी अस्पताल में इलाज कराने की सोच भी नहीं सकता है. निजी अस्पतालों में गरीबों के लिए मुफ्त इलाज का जो प्रावधान है, उसे भी अस्पताल प्रबंधन ने पैसे कमाने की लालच में छीन लिया है. इस काम में देश के बड़े-बड़े अस्पताल शामिल हैं. अस्पतालों द्वारा इलाज से मना करने की खबरें या इलाज में लापरवाही या केवल पैसे ऐंठने के लिए अनावश्यक इलाज के मामले अक्सर सुर्ख़ियों में रहते हैं. इन मामलों को लेकर ये विधेयक खामोश है. एथिक्स की बात केवल शिक्षा के स्तर पर है.

इस बिल में डॉक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए उच्च गुणवत्ता वाले डॉक्टर मुहैया कराने और अत्याधुनिक शोध को अपने कार्य में सम्मिलित करने के लिए फॉर-प्रॉफिट (लाभ कमाने वाले) मेडिकल कॉलेज खोलने का भी प्रस्ताव रखा गया है. ये कॉलेज ज़रूरत पड़ने पर सीटें बढ़ा-घटा सकते हैं. वहीं नेशनल मेडिकल कमिशन, निजी कॉलेजों के केवल 40 प्रतिशत सीटों की फीस को नियंत्रित करेगा. इसका मतलब यह होगा कि कॉलेज अपनी मर्जी से जितना फीस रखना चाहे, रख सकते हैं.

फिर कौन बनेगा डॉक्टर?

ऐसे में जब फिलहाल देश में फॉर-प्रॉफिट मेडिकल कॉलेज खोलने का प्रावधान नहीं है, तब यहां कॉलेजों द्वारा फीस के नाम पर करोड़ों रुपए ऐंठे जा रहे हैं. मनमानी फीस वसूलने की इजाज़त मिलने के बाद क्या स्थिति होगी, ये समझना मुश्किल नहीं है. व्यापम्‌ जैसे एडमिशन के दलालों का जो बाज़ार गर्म होगा, सो अलग. ज़ाहिर है, मेडिकल शिक्षा का खर्च बढ़ने से स्वास्थ्य सेवाएं और अधिक महंगी और गरीबों की पहुंच से दूर हो जाएंगी. सबसे महत्वपूर्ण ये है कि जब कॉलेजों की फीस करोड़ों रुपए होगी, तो निम्न आय वर्ग की श्रेणी में आने वाली देश की 80 फीसदी से अधिक आबादी के लिए शिक्षा का यह विस्तार बेमानी हो जाएगा. पिछड़ी, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग फीस का बोझ बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे.

एग्जिट परीक्षा के सम्बन्ध में यह दलील दी जा रही है कि इससे मुन्नाभाई टाइप के डॉक्टरों पर रोक लग सकेगी और देश की स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार हो सकेगा. अब सवाल ये उठता है कि जब किसी छात्र ने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, तो उसी तरह की परीक्षा से गुज़रने का क्या औचित्य है? ऐसे मेडिकल कॉलेज ही क्यों खुलने दिए जाएं, जहां शिक्षा की गुणवत्ता में शक की गुंजाइश हो? जाहिर है, सरकार ये मान कर चल रही है कि मेडिकल कॉलेज चाहे जो पढ़ाएं, हम एक परीक्षा के जरिए डॉक्टर की प्रतिभा जांच लेंगे. इसका मतलब ये है कि सरकार ये सुनिश्चित नहीं करेगी कि कोई मेडिकल कॉलेज करोडों रुपए लेकर किस स्तर की मेडिकल शिक्षा देगा. इसका एक और पहलू है कि मेडिकल में दाखिले के लिए अभिभावकों को बच्चों की कोचिंग पर लाखों रुपए खर्च करने पड़ते हैं. अब इस सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि एमबीबीएस की पढ़ाई में लाखों रुपए खर्च करने के बाद इस टेस्ट को पास करने के लिए भी कोचिंग का कारोबार शुरू हो जाएगा.

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