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रोहतासः सीमेंट फैक्ट्री बन्द होने से नक्सलवाद ने पसारे पांव

रोहतास जिला मुख्यालय सासाराम से करीब सौ किलोमीटर दक्षिण नौहट्‌टा प्रखंड के कैमूर पहाड़ी की तराई क्षेत्र व सोन नदी के ऊपर करीब 25 वर्ष से पत्थरों से भरी लोहे की ट्रॉलियां लटकी हैं, जो गवाही देती हैं कि कैमूर पहाड़ी की तराई का यह क्षेत्र पहले आर्थिक रूप से काफी समृद्ध था. हवा के थपेड़ों से जब ट्रॉलियां हिलती हैं, तो यदा-कदा उनमें भरे पत्थर के टुकड़े या जिन लोहे की तारों पर ट्रॉलियां टंगी हैं, उन तार के टुकड़े जमीन पर गिर पड़ते हैं. अगर उस समय बरबस ट्रॉलियों पर वहां के निवासियों की निगाहें चली जाती हैं, तो उनके चेहरे पर एक अजीब सी कसक उभर आती है.

ये ट्रॉलियां जब से रूकी हैं, इस क्षेत्र के लोगों के घरों में आर्थिक तंगी ने पांव पसार लिया है. हवा व पानी के थपेड़ों से काली पड़ चुकी ट्रॉलियों को देख बुजुर्गों को अपने वे दिन याद आने लगते हैं, जब झारखंड के जपला में स्थापित सोन वैली पोर्टलैंड सीमेंट कारखाने के लिए यहां की पहाड़ियों की खदानों से इन्हीं ट्रॉलियों में भर कर चूना पत्थर सोन नदी के ऊपर से जाता था. उस समय इन ट्रॉलियों की आवाज लोगों को खुशी का पैगाम देती थीं.

खदानों में बड़ी संख्या में मजदूर काम करते थे. घर में समृद्धि थी, तो बाजारों में चहल-पहल बनी रहती थी. लेकिन जब से ट्रॉलियांं रूकीं, नक्सलवाद ने ऐसा पांव पसारा कि पूरा क्षेत्र कराह उठा. तंगी की मार झेल रहे युवा नक्सलवाद की ओर मुखातिब हुए. आज बड़ी संख्या में युवा नक्सल के रास्ते पर चलकर अपना जीवन बर्बाद कर चुके हैं. हालांकि, हाल के दिनों में कुछ माहौल बदला है, नक्सली अब नाम के रह गए हैं. लेकिन वह पुरानी समृद्धि लौटने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है. किसी सरकार से यह खबर नहीं आ रही है कि चूना पत्थर के खदानों में मजदूरों की कोलाहल फिर सुनाई देगी.

बंद हुआ काऱखाना तो रास्ते में ही रुक गई ट्रॉलियां

वर्ष 1921 में वर्तमान झारखंड के जपला में सोन वैली पोर्टलैंड सीमेंट का कारखाना खुला था. कारखाने के लिए सोन नदी के पश्चिम रोहतास जिले के नौहट्‌टा क्षेत्र की पहाड़ियों में अकूत चूना पत्थरों के खदानों से चूना पत्थर ले जाने के लिए इन ट्रॉलियों का निर्माण हुआ था. ये ट्रॉलियां नौहट्‌टा के खदानों से चूना पत्थर लेकर सोन नदी को पार कर जपला के कारखाने में जाती थीं. जहां चूना पत्थरों से सीमेंट बनता था. करीब 70 वर्षों तक ये ट्रॉलियां चलती रहीं. कारखाने में क्या हुआ, इसका तो स्पष्ट कारण नहीं पता, लेकिन कुछ दिनों तक रुक-रुक कर चलने वाली ये ट्रॉलियांं 1992 से जो हवा में रुकीं तो आज तक रुकी ही हैं. बुजुर्ग अपने से छोटों को ट्रॉलियों को दिखा कर अपनी समृद्धि की कहानी सुनाते हैं. कैसे खदानों में काम होता था, बाजार कैसे गुलजार रहते थे, जपला और नौहट्‌टा के गांवों के बीच कैसे रिश्ते बनते थे.

करीब पांच हज़ार मज़दूर हुए बेरोज़गार

1992 में जब पूर्ण रूप से पोर्टलैंड सीमेंट फैक्ट्री बंद हो गई और खदानों में काम ठप्प हो गया, तो उस समय करीब पांच हजार मजदूर बेरोजगार हो गए थे. बेरोजगारी से हताश बड़ी संख्या में मजदूर रोजगार के लिए दूसरे राज्यों की ओर पलायन कर गए. जो बचे उनमें से कई नक्सलवाद की ओर आकर्षित हो गए. कारखाने की बंदी ने नक्सलवाद के लिए खाद का काम किया. स्थानीय बेरोजगारों के दम पर नक्सली दो दशक तक इस क्षेत्र में पांव जमाए रहे. जिसका खामियाजा समाज के साथ पुलिस को भी झेलना पड़ा था. कई पुलिस कर्मियों की शहादत हुई थी. बड़ी संख्या में युवा नक्सली घोषित हो गए. कई परिवार बिखर गए.

आज भी स्थिति बेहतर नहीं कही जा सकती है. लगभग हर चुनाव में चूना पत्थर के खदान चुनावी मुद्दा बनते रहे हैं. नेता इस मुद्दे को भूनाकर विधानसभा व संसद तक पहुंच जाते हैं. लेकिन खदान की चुप्पी अबतक नहीं टूटी. अपनी सेवा यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इन खदानों के समीप स्थित कैमूर पहाड़ी के प्राचीन ऐतिहासिक रोहतासगढ़ किले को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की बात कही थी, जिससे बंद पड़े खदानों के बेरोजगार परिवार के लोगों को रोजगार की आश दिखी. लेकिन कई वर्ष बीतने के बाद भी रोहतासगढ़ किले तक पहुंचने के रास्ते को आसान नहीं बनाया जा सका है. पिछले कई वर्षों से किले तक रोप-वे बनने की बात हो रही है, लेकिन उसका काम कब शुरू होगा, यह बताने में कोई समर्थ नहीं है.

 

 

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