उत्तर प्रदेश के सोनभद्र ज़िले में ग़ैर-क़ानूनी रूप से निर्मित कनहर बांध और अवैध तरीके से किए जा रहे भूमि अधिग्रहण का मामला पिछले एक माह से गरमाया हुआ है. बीते 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती के अवसर पर प्रदर्शन कर रहे आदिवासी आंदोलनकारी अकलू चेरो पर चलाई गई गोली उसके सीने से आर-पार हो गई और कई अन्य लोग गंभीर रूप से घायल हो गए. 18 अप्रैल को एक बार फिर आदोलनकारियों पर लाठीचार्ज किया गया. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा सात मई, 2015 को दिए गए फैसले में कनहर बांध का मौजूदा काम पूरा करने की बात कही गई है, लेकिन नए निर्माण पर पूर्ण रूप से रोक लगा दी गई है. कनहर बांध निर्माण के खिला़फ यह याचिका ओडी सिंह एवं देबोदित्य सिन्हा द्वारा एनजीटी में दिसंबर 2014 में दायर की गई थी, जिसमें याचियों द्वारा पेश किए गए तथ्य न्यायालय ने सही करार दिए हैं. कनहर बांध परियोजना के लिए वन-अनुमति नहीं है. अदालत ने यह भी माना कि परियोजना चालकों के पास न तो 2006 का पर्यावरण अनुमति पत्र है और न 1980 का वन अनुमति पत्र. अदालत ने यह तथ्य भी स्थापित किया कि 2006 और 2014 में बांध परियोजना का काम शुरू नहीं हुआ था, इसलिए ऐसे प्रोजेक्ट की शुरुआत बिना पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति और पर्यावरण प्रभाव आकलन के नोटिफिकेशन के नहीं हो सकती.

सोनभद्र ज़िला प्रशासन द्वारा लगातार यह कहा जा रहा था कि बांध से प्रभावित होने वाले गांवों में आदिवासी की संख्या नाममात्र है. यह तथ्य भी अदालत द्वारा ग़लत ठहराया गया और कहा गया कि इस परियोजना से बड़े पैमाने पर विस्थापन होगा, जिसमें सबसे बड़ी संख्या आदिवासियों की है. 25 गांवों के लगभग 7,500 परिवार विस्थापित होंगे, जिनके पुनर्वास की योजना बनाने की आवश्यकता पड़ेगी. अदालत ने अपने फैसले में सबसे गहरी चिंता पर्यावरण के संदर्भ में जताई है, जिसमें कहा गया है कि कनहर नदी सोन नदी की एक मुख्य उप-नदी है, जो गंगा नदी की मुख्य उप-नदी है. रिहंद एवं बाणसागर जैसे कई बांधों के निर्माण और पानी की धारा में परिवर्तन के चलते सोन नदी का अस्तित्व भी आज काफी खतरे में है. बड़े पैमाने पर मछली की कई प्रजातियां लुप्त हो गई हैं और विदेशी मछली प्रजातियों ने उनकी जगह ले ली है. इस निर्माण के चलते नदी के बहाव, गति, गहराई, तल, पारिस्थितिकी और मछलियों के प्राकृतिक वास पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है.
अदालत ने बड़े पैमाने पर वनों के कटान पर ध्यान आकर्षित कराते हुए कहा कि आदिवासियों के तीखे विरोध के बावजूद इस परियोजना के लिए बहुत बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए, जो 1980 के वन संरक्षण क़ानून का सीधा उल्लंघन है. कनहर बांध परियोजना की धनराशि में हो रहे घोटाले को भी अदालत ने बेनकाब किया कि शुरुआत में परियोजना का कुल लागत आकलन 27.75 करोड़ रुपये किया गया, जो 1979 में अंतिम स्वीकृति देने तक 69.47 करोड़ रुपये हो गया. केंद्रीय जल आयोग की 106वीं बैठक में 14 अक्टूबर, 2010 में इस परियोजना की लागत 652.59 करोड़ रुपये आंकी गई, जो अब बढ़कर 2259 करोड़ रुपये हो गई है. उत्तर प्रदेश सरकार एवं सिंचाई विभाग द्वारा अदालत में बताया गया कि दुद्धी और राबट्‌र्सगंज के इलाके सूखाग्रस्त हैं, इसलिए इस परियोजना की ज़रूरत है, जबकि इस क्षेत्र में बहुचर्चित रिहंद एक वृहद सिंचाई परियोजना का बांध है, लेकिन आज उसका उपयोग सिंचाई के लिए न करके ऊर्जा संयंत्रों के लिए किया जा रहा है. यही नहीं, जो गांव डूब क्षेत्र में आएंगे, उनकी पूरी सूची उपलब्ध नहीं कराई गई और संबद्ध परिवारों की सूची भी ग़लत उपलब्ध कराई गई. सरकार द्वारा इस जनहित याचिका को यह कहकर खारिज करने की अपील की गई कि याची द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक और रिट दायर की गई है, लेकिन अदालत ने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि उसके यहां दायर याचिका का दायरा पर्यावरण क़ानूनों से संबंधित है और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर मामला भूमि अधिग्रहण से संबंधित है. ये दोनों मामले अलग हैं, इसलिए हरित न्यायालय में वादियों द्वारा दायर याचिका खारिज नहीं की जा सकती.
हरित न्यायालय ने कहा कि ज़िला सोनभद्र में बड़े पैमाने पर औद्योगिक विकास के चलते न तो लोगों का स्वास्थ्य बेहतर हुआ और न समृद्धि आई. अभी तक इस क्षेत्र की स्थिति काफी पिछड़ी हुई है. किसी भी परियोजना का ध्येय यह होना चाहिए कि वह लोगों को जीवन जीने की बेहतर सुविधाएं और बेहतर पर्यावरणीय सुविधाएं मुहैया कराए. सोनभद्र उत्तर प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्रों में सबसे बड़ा विकसित ज़िला है, उसे ऊर्जा की राजधानी कहा जाता है, लेकिन वही सबसे पिछड़े ज़िले के रूप में भी जाना जाता है. नया निर्माण रुके, पर्यावरण एवं वन आकलन के सभी नियम पूरी तरह से लागू हों, इसके लिए हरित न्यायालय ने एक उच्चस्तरीय सरकारी कमेटी का गठन तो ज़रूर किया है, लेकिन उक्त कमेटी में किसी भी विशेषज्ञ, विशेषज्ञ संस्थान एवं जन-संगठनों को शामिल नहीं किया गया है. ऐसे में चिंता का विषय यह है कि इस बात की निगरानी कौन करेगा कि नया निर्माण नहीं होगा और सभी शर्तों का पालन किया जाएगा?
क्षेत्र में वनाधिकार क़ानून 2006 लागू है, लेकिन उसका कभी पालन नहीं होता है. ग्राम सभा से इस क़ानून के तहत अभी तक अनुमति का प्रस्ताव तक नहीं भेजा गया है. इससे बड़ा मसला भूमि अधिग्रहण की सही प्रक्रिया को लेकर अटका हुआ है. संसद द्वारा पारित 2013 का क़ानून लागू ही नहीं हुआ और उसके ऊपर 2015 का भू-अध्यादेश लाया जा रहा है, जो 2013 के क़ानून के कई प्रावधानों के विपरीत है. कनहर बांध से प्रभावित पांच ग्राम पंचायतों ने उच्च न्यायालय में भूमि अधिग्रहण क़ानून 2013 की धारा 24, उपधारा 2 के तहत एक याचिका भी दायर कर रखी हैै, जिसके तहत प्रावधान है कि अगर उक्त किसी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण किया गया और यदि अधिग्रहीत भूमि पांच साल के अंदर संबंधित परियोजना के लिए इस्तेमाल न की गई, तो वह भू-स्वामियों के कब्ज़े में वापस चली जाएगी. भू-अभिलेखों में भी अभी तक ग्राम समाज और आबादी की भूमि ग्रामीणों के खाते में ही दर्ज है, जो अधिग्रहीत नहीं है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि उत्तर प्रदेश सरकार इन तमाम क़ानूनी प्रावधानों की अनदेखी करके ऐसी किसी परियोजना पर जबरन अमल क्यों कर रही है, जो ग़ैर-संवैधानिक और पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक है?

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