Santosh-Sir

बीजेपी और कांग्रेस की आर्थिक नीतियां और उनके विकास का मॉडल एक जैसा है. इसलिए देश को लगता है कि एक बार फिर देश में गैर भाजपा और गैर कांग्रेस की सरकार बननी चाहिए. हालांकि ऐसा होना असंभव है, क्योंकि प्रधानमंत्रियों की जितनी संख्या भाजपा और कांग्रेस में है, उससे ज्यादा प्रधानमंत्री भाजपा और कांग्रेस से बाहर चहलकदमी कर रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी में नेतृत्व का झगड़ा इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि 75 साल से ऊपर के लोगों के लिए राजनीतिक फांसी का हुकुमनामा संघ द्वारा लिखा जा चुका है. इसका पालन नरेंद्र मोदी को करना है. इसका यह मतलब कतई नहीं है कि हम नरेंद्र मोदी को जल्लाद कह रहे हैं. हम सिर्फ राजनीति की उस व्यथा या विडंबना को उजागर करना चाहते हैं, जो कुर्सी की क्रूर लड़ाई से उपजती है. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग राजनीति से बाहर वो लोग कर रहे हैं, जो देश को पश्‍चिम का गुलाम बनाना चाहते हैं और भारतीय जनता पार्टी के भीतर वो लोग कर रहे हैं, जो लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे लोगों की समझदारी का अतीत में शिकार हो चुके हैं. स्वयं नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के लिए आतुर नहीं दिखाई देते. हालांकि वे अपने भाषणों में सीधे प्रधानमंत्री को निशाना बना रहे हैं. नरेंद्र मोदी न मुलायम सिंह यादव पर टिप्पणी कर रहे हैं और न ममता बनर्जी पर. नीतीश कुमार को तो वे किसी लायक ही नहीं समझते हैं. भाजपा के लोग नरेंद्र मोदी को उस हाथी के रूप में प्रचारित कर रहे हैं, जो चींटियों को रौंदता हुआ चलता है.
लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी का दर्द यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और शत्रुघ्न सिन्हा समझते हैं. इसलिए ये तीनों लालकृष्ण आडवाणी के साथ ख़डे हैं, पर इन तीनों के सामने भी यह स्पष्ट है कि इन्हें अगले चुनाव में टिकट नहीं मिलने वाला. हालांकि इस पर इन तीनों को ही विश्‍वास नहीं है. वैसे तो भारतीय जनता पार्टी की अंदरूनी घटनाओं पर चिंतित नहीं होना चाहिए, क्योंकि ऐसी घटनाएं दलों में घटती रहती हैं, लेकिन जब दलों की घटनाएं देश में घटने वाली घटनाओं के पूर्व संकेत के रूप में प्रचारित की जाने लगें, तब कुछ तथ्यों के बारे में बात अवश्य  करनी चाहिए.
भारत के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार में विनम्रता का होना अति-आवश्यक है. वह स्वभाव से विनम्र भले ही न हो, लेकिन उसके शरीर की भाषा विनम्र होनी चाहिए. उसमें इतनी व्यवहार कुशलता होनी चाहिए कि वह पंद्रह दिन में एक बार देश के प्रमुख राजनीतिज्ञों से फोन पर बात कर ले. कभी-कभी उन्हें चाय या खाने पर बुला ले. जिसमें देश की समस्याओं पर अन्य दलों से बात करने की समझदारी हो. मनमोहन सिंह से पहले तक जितने प्रधानमंत्री हुए उन सबमें यह गुण मौजूद था. मनमोहन सिंह के शासन के दस साल इतिहास किस रूप में याद करेगा, यह सोच कर भी डर लगता है, लेकिन नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए बिताया गया समय यह नहीं बताता कि नरेंद्र मोदी का दूसरे दलों के नेताओं को छोड़ दें, स्वयं अपने नेताओं से भी कोई अंतरंग संवाद हुआ हो. अंतरंग संवाद की सिर्फ एक घटना याद आती है, जिसमें अमर सिंह, अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी तीनों शामिल थे. नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी के नेताओं को ही फोन नहीं करते और काम में इतना व्यस्त रहते हैं कि विपक्षी दलों का कोई नंबर ही संपर्क की सूची में नहीं आता.
लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी के साथ यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह ऐसे चेहरे हैं, जिनके देश के लगभग सभी राजनीतिक नेताओं के साथ संबंध हैं. इन्हें आडवाणी जी और जोशी जी द्वारा हमेशा सम्मान भी मिलता रहा है. इस कला में नरेंद्र मोदी अगर विश्‍वास नहीं करते तो फिर हमें मान लेना चाहिए कि एक सामान्य व्यक्ति प्रधानमंत्री पद की ओर बढ़ रहा है. हो सकता है कि नरेंद्र मोदी यह मानते हों कि विपक्षी नेताओं से और अपनी पार्टी के नेताओं से ज्यादा बात करने में संशय बढ़ता है और वक्त भी बर्बाद होता है, लेकिन जो भी प्रधानमंत्री पद की ख्वाहिश रखे, उसे अपने समकक्ष या अपने वरिष्ठ लोगों को सम्मान देना तो आना ही चाहिए. अगर नरेंद्र मोदी इस कसौटी पर खरे उतरते हैं, जिसका हमें ज्ञान नहीं है तो हम अपनी इस समझ के लिए उनसे क्षमा-याचना कर लेते हैं.
भारतीय जनता पार्टी में देश को लेकर अपनी समझ है, अपनी कल्पनाएं हैं. अब जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर उतारने का फैसला पार्टी ने ले लिया है तो पार्टी को एक और फैसला लेना चाहिए. उसे देश में यह साफ घोषणा करनी चाहिए कि अगर वह सत्ता में आएगी तो धारा 370 खत्म करेगी. कॉमन सिविल कोड लागू करेगी और राम मंदिर बनाएगी. उसे यह भी घोषणा करनी चाहिए कि वह जीतने के छह महीने के भीतर पाकिस्तान पर हमला करेगी और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को आजाद कराकर भारत में मिलाएगी. उसे यह भी साफ घोषणा करनी चाहिए कि अगर उसे दो तिहाई बहुमत मिलता है तो इस देश में मुसलमान दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रहेंगे. वे अपने लिए कोई मांग नहीं उठा सकेंगे, उन्हें जो सरकार देगी उसी में खुश रहना पड़ेगा. यानी मुसलनाम दूसरे दर्जे का नागरिक बनकर रहना चाहे तो इस देश में रह सकता है. इसके साथ भारतीय जनता पार्टी सरकार बनने के बाद दलितों को सत्ता में कितनी हिस्सेदारी देगी, इसकी भी घोषणा करनी चाहिए.
पिछले साठ सालों से इस देश में भारतीय जनता पार्टी इन्हीं मुद्दों को लेकर हमेशा चिंतित रही है. अब जब चुनाव में नरेंद्र मोदी के बहाने भाजपा अपने सिद्धांतों के आधार पर हिंदुओं को संगठित करना चाहती है और वोट लेना चाहती है तो उसे अपने मुद्दे भी देश के सामने साफ तौर पर रखने चाहिए. हमें विश्‍वास है कि देश इन मुद्दों पर भारतीय जनता पार्टी का साथ देगा और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में यह देश न केवल बदल जाएगा, बल्कि पूर्ण हिंदू राष्ट्र का दर्जा भी हासिल करेगा, लेकिन अगर ऐसा नहीं होता है और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश भाजपा के खिलाफ वोट दे देता है तो भाजपा को और संघ को इन मुद्दों को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए और देश में भाईचारे, प्रेम-सौहार्द व विकास को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए. इसका फैसला 2014 में होने वाले चुनाव में होना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि देश में बहुत सारे लोग इन मुद्दों पर देश का फैसला देखना चाहते हैं. अगर देश पहली तरह का फैसला करता है तो भारतीय जनता पार्टी के 75 साल से ऊपर के नेता अपनी आखों में खुशी लिए इस संसार से विदा होंगे और स्वर्ग या नर्क में जहां भी उनके पुराने साथी हैं, उन्हें जाकर बताएंगे कि वे उनका सपना पूरा करके आए हैं.
आजादी के बाद अब फैसले की घड़ी है. एक अजीब संयोग बन गया है कि पहले लोग कांग्रेस के खिलाफ गठजोड़ बनाते थे, अब बीजेपी के खिलाफ गठजोड़ की बात नहीं हो रही है, बल्कि बीजेपी और कांग्रेस के खिलाफ गठजोड़ की बात हो रही है. दरअसल, दोनों पार्टियों की आर्थिक नीतियां और उनके विकास का मॉडल एक जैसा है. इसलिए देश को लगता है कि एक बार फिर देश में गैर भाजपा और गैर कांग्रेस की सरकार बननी चाहिए. हालांकि ऐसा होना असंभव है, क्योंकि जितनी प्रधानमंत्रियों की संख्या भाजपा और कांग्रेस में है, उससे ज्यादा प्रधानमंत्री भाजपा और कांग्रेस से बाहर चहलकदमी कर रहे हैं.
अभी कहानी का अंत दिखाई नहीं दे रहा, क्योंकि ऊपर बैठा भगवान 120 करोड़ लोगों के भाग्य की पटकथा पूरी तरह लिख नहीं पा रहा है. शायद ईश्‍वर भी इस पसोपेश में है कि वो पटकथा का अंत सुखद करे या दुखद.

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