भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नरेंद्र मोदी का समर्थन करने और विरोध करने वाली कुछ ताकतें हैं, जिन पर पार्टी का कोई नियंत्रण नहीं है. एक दौर था, जब भारतीय जनता पार्टी और उसका पूर्ववर्ती संस्करण जनसंघ अपने अनुशासन के लिए जाना जाता था. समूचे काडर को इस बात के लिए जाना जाता था कि ये बिना किसी अनबन के पार्टी लाइन पर ही चलते रहे हैं. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी एक सम्मानित संगठन है, जहां कभी एक ही आवाज से सारी समस्याएं सुलझ जाती थीं, लेकिन इन दोनों के ही भीतर यह अनुशासन खो-सा गया है. अब भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी अंतर्कलह मची हुई है और यह उसकी छवि को और खराब करेगी. आरएसएस ने भी जो भूमिका निभाई, उसकी भी उम्मीद नहीं थी. मौजूदा समय में भारतीय जनता पार्टी के भीतर नि:संदेह लालकृष्ण आडवाणी सबसे कद्दावर नेता हैं और पूरा देश उन्हें सम्मान भी देता है, लेकिन एक बात, जिस पर देश की जनता गौर नहीं कर रही है, वह यह कि धनबल ने बाकी सब चीजों पर कब्जा कर लिया है.

राजनीति अब विशुद्ध राजनीति न होकर आर्थिक राजनीति में तब्दील हो गई है. यह स्थिति देश के लिए दुखद है. अब भारतीय जनता पार्टी के भीतर अंतर्कलह मची हुई है और यह उसकी छवि को और ख़राब करेगी. आरएसएस ने भी जो भूमिका निभाई, उसकी भी उम्मीद नहीं थी.

नरेंद्र मोदी के पास धनबल है. करिश्माई व्यक्तित्व का होना अपनी जगह है, लेकिन बिना धनबल के ताकतवर बने रहना संभव नहीं है. नरेंद्र मोदी ने अपनी छवि को उभारने के लिए खुद का एक सिस्टम बनाया. उन्होंने ऐसे युवाओं को अपने पक्ष में किया, जो हमेशा इंटरनेट पर सक्रिय रहते हैं. उनके पास बिहार के सुशील मोदी जैसे नेता हैं, जिनका पहले नीतीश कुमार ने इस्तेमाल किया और अब उन्हें धनबल राजनीति के ब्रांड बन चुके नरेंद्र मोदी द्वारा सहारा दिया जा रहा है. नरेंद्र मोदी ने राजनाथ सिंह को यह सुनिश्‍चित किया है कि चुनाव में जितना भी पैसा लगेगा, वह वहन करेंगे. और यह सब अब इतना बढ़ चुका है कि निश्‍चित रूप से यह भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संस्कृति के विपरीत है. वास्तव में यह दिखाता है कि 1991 के बाद जब देश ने नव-उदारवादी मॉडल को स्वीकारा, तब देश को बड़ी मात्रा में धन लाभ का प्रलोभन मिला था.
मौजूदा समय में देश में 50 से ज्यादा औद्योगिक घराने हैं. इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारे के पहले देश की समस्त पूंजी 10 या बीस घरानों के हाथों में केंद्रित थी, यही वहज थी कि बैंक उन घरानों के नियंत्रण में थे. इस अवस्था को देखते हुए उन्होंने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का साहसिक निर्णय लिया. कॉर्पोरेट सेक्टर ने उनके इस फैसले का स्वागत भले ही न किया हो, लेकिन हकीकत तो यह है कि इस कदम के बाद से ही देश में स्वउद्यमिता को बढ़ावा मिला. देश के भीतर कई छोटे और बड़े उद्योगपति स्थापित होने लगे और 1991 तक उद्योग जगत में यह सिलसिला चलता रहा. 1991 के बाद देश ने अमेरिकी नक्शेकदम पर चलते हुए एक नये, नवउदारवादी मॉडल को अपनाना करना शुरू कर दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि एक बार फिर वही स्थितियां लौटकर आने लगीं. थापर, मोदी और साहूजी जैसे घराने की जगह नये घराने भी आने लगे. टाटा और बिड़ला तो निश्‍चित रूप से थे ही. आर्थिक शक्तियां फिर से उन्हीं दस घरानों के बीच सीमित होने लगीं. अगर सरकार विनिवेश करना चाहती है तो फिर से वही औद्योगिक घराने होंगे, जिनका उद्धरण दिया जाएगा. अगर कोई नई परियोजना शुरू होती है तो वही चुनिंदा औद्योगिक घराने ही उसे चलाते हैं और ये बड़ी आर्थिक ताकतें राज्यों के मुख्यमंत्रियों को अपने ढंग से नियंत्रित करने लगीं, क्योंकि मुख्यमंत्रियों के लिए यह उद्यमी बड़े आर्थिक साधन बन रहे थे. इस तरह से समूची स्थितियां बदलने लगीं. ऐसे में किसी भी दल, मसलन भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष खुद को असहाय महसूस करने लगा, क्योंकि आर्थिक संसाधनों के लिए वह पूरी तरह से किसी एक मुख्यमंत्री पर निर्भर हो गया. यही वजह है कि राजनीति अब विशुद्ध राजनीति न होकर आर्थिक राजनीति में तब्दील हो गई. यह स्थिति देश के लिए दुखद है. मुझे नहीं लगता कि बीजेपी सत्ता में आना चाहती है और मुझे यह भी नहीं लगता कि वे इस तरह आर्थिक प्रलोभन के रास्ते पर चलकर इसे हासिल कर सकते हैं.
नरेंद्र मोदी का तथाकथित करिश्माई व्यक्तित्व दरअसल प्रचार की देन है. हालांकि, प्रचार आपको उतनी दूर तक लेकर नहीं जा सकता. इंटरनेट पर नरेंद्र मोदी के प्रशंसक कहते हैं कि यहां पर उनके प्रशंसकों की भारी जमात है, लेकिन अगर आंकड़ों पर गौर करें तो इंटरनेट की पहुंच देश की आठ प्रतिशत आबादी तक ही है और गांवो में जहां बिजली ही नहीं रहती, वो भला इंटरनेट का प्रयोग कैसे करेंगे. यही वजह है कि प्रसिद्धि के ये सभी तर्क विश्‍वास करने योग्य नहीं हैं, बल्कि उन्माद ज्यादा है, जबकि नेशनल मीडिया जो निश्‍चित रूप से बिकाऊ हो चला है, वह दिखाता है कि नरेंद्र मोदी देश का प्रधानमंत्री बनने के रास्ते पर हैं. निश्‍चित रूप से यह संभव नहीं है.
अगर भारतीय जनता पार्टी गंभीर है तो उन्हें धनबल को कम महत्व देना होगा. अपने काडर के लिए काम करना होगा. ऐसी सरकार के बारे में सोचना होगा, जैसा अटल बिहारी वाजपेयी के समय में थी. एक उदारवादी सरकार के बारे में सोचना होगा, न कि हिंदू अंधराष्ट्रीयता को बढ़ावा देने वाली सरकार के बारे में. ऐसा सोचने पर देश बंटेगा और हिंसा के रास्ते पर बढ़ेगा, जैसा कि उन्होंने मुजफ्फरनगर में किया.
दूसरा प्रमुख मुद्दा अर्थव्यवस्था और बाजार है. रघुराम राजन आरबीआई के नये गवर्नर बने. रुपये में कुछ मजबूती दिखी. बाजार भी संभलता दिखा, लेकिन यह सब केवल तात्कालिक है. यह तब तक नहीं संभलेगी, जब तक कि हमारा चालू वित्तीय घाटा ठीक नहीं होता. जब तक हम सोने के आयात पर रोक नहीं लगाते, तब तक हम अपने आयात-निर्यात के आंकड़ों का प्रबंधन नहीं कर पाएंगे. हमें अपने आयात और निर्यात के आंकड़ों को नियंत्रित करना होगा और यह अंकगणित की तरह आसान है. हम अपने साधनों के बगैर इस उम्मीद के साथ नहीं रह सकते कि रुपये और बाजार की हालत ठीक हो. जब तक रघुराम राजन वित्त मंत्री का विश्‍वास नहीं हासिल कर लेते, तब तक दोनों को मिलकर हालात को काबू में रखने के लिए काम करना होगा, सरकार को नीति बनानी होगी और रिजर्व बैंक को उस पर काम करना होगा. अगर सरकार आयात पर रोक लगाती है, असंतुलन को ठीक करती है तो रिजर्व बैंक को चाहिए कि वह दरों को कम करे और प्राइवेट सेक्टर को मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्र में प्रोत्साहित करे. जब तक यह सब होगा, तब तक काफी वक्त बीत चुका होगा और हम दूसरे देशों की तुलना में अपना प्रभुत्व खो देंगे. सरकार अपना प्रभाव खो देगी.

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