दक्षिण भारत का मुसलमानों के साथ अनुभव व्यापारिक तौर पर रहा. उन्होंने मुलसमानों के साथ व्यापार का अनुभव लिया, न कि मुस्लिम शासन का. मुस्लिम शासन काफी बाद में वहां पहुंचा. इसी प्रकार किसी भी तरह के हिंदू इतिहास को लिखते समय भक्ति आंदोलन के बारे में सोचना ही होगा, जिसकी शुरुआत दक्षिण भारत में तमिल कवियों ने ही की थी. यह आंदोलन बाद में उत्तर भारत में पहुंचा. हिंदुत्व स़िर्फ संस्कृत के ज्ञान का उत्पाद नहीं है, क्लासिकल तमिल का भी इसमें काफी योगदान है. 
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नई नवेली भाजपा सरकार को लेकर तुरंत सुधार की अत्यधिक आशाएं अब धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं. बजट में ऐसा दिखाई दिया कि सरकार टेस्ट मैच की तैयारी कर रही है, न कि 20-20 की. इसका मतलब वह लंबे समय में सुधारों की तरफ़ देख रही है. देश की सीमाओं के मामले पर भी बहसें चल रही हैं, जिसमें सरकार अपने मंत्रियों और सांसदों पर उस सख्ती के साथ लगाम नहीं लगा पा रही है, जैसे वह दूसरे मामलों में लगाती है. वहीं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश मार्कंडेय काटजू ने भी पिछली सरकार पर उंगली उठाकर नई परेशानियां खड़ी कर दी हैं. यह बात पूर्णतया सही है कि जितनी उंगली पिछली यूपीए सरकार पर उठाई जानी चाहिए, उतनी ही न्यायपालिका की जवाबदेही पर भी.
भाजपा के गठबंधन में भी परेशानियां दिख रही हैं. शिवसेना लड़ाई के लिए बिल्कुल छटपटा रही है और निश्‍चित रूप से यह छटपटाहट आगामी महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सीट के बंटवारे को लेकर है. यह पार्टी कई मामलों पर भाजपा के मत से अलग होकर बोल रही है. यहां तक कि पत्रकार वेद प्रताप वैदिक द्वारा हाफिज सईद से मुलाकात जैसे छोटे मसले पर भी उसने ऐसा ही व्यवहार किया, जैसा वह दूसरे मसलों पर करती है. शायद शिवसेना अब भाजपा के लिए वैसी ही सिद्ध होने वाली है, जैसी यूपीए के लिए तृणमूल कांग्रेस हुई थी. यहां भाजपा के लिए सौभाग्य की बात यह है कि उसकी पूर्ण बहुमत की सरकार है. इस वजह से ऐसे सहयोगी उसके साथ कोई खेल नहीं
कर सकते.
इसके अलावा भी कुछ विवाद हैं, जैसे स्कूलों में संस्कृत शिक्षा. इसकी वजह से भाजपा की विचारधारा पर कुछ गंभीर प्रश्‍न खड़े हो रहे हैं. यह बात लगभग सभी के लिए स्पष्ट है कि भाजपा में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो संस्कृत को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की मातृभाषा मानते हैं. नई सरकार आने के साथ ही इस बात की उम्मीद की जा रही थी कि संस्कृत को विशेष वरीयता दी जाएगी, लेकिन इसे लेकर सरकार के तमिल सहयोगियों एवं पूर्व सहयोगियों, जैसे अन्नाद्रमुक में काफी रोष है. मामला यह है कि तमिल उतनी ही पुरानी भाषा है, जितनी संस्कृत. और, वह भारत में बोली जाने वाली सबसे पुरानी भाषा भी है.
ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदू राष्ट्र के बारे में सोचने वालों की दृष्टि काफी हद तक उत्तर भारत तक ही केंद्रित थी. वे ऐसा मानते थे कि आर्यावर्त ही पूरा भारत है, लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए, तो यह भारतीय इतिहास को दिल्ली सल्तनत के माध्यम से ही देखने का तरीका है. प्रधानमंत्री भी अपने शुरुआती भाषणों के दौरान कह चुके हैं कि देश 1200 सालों तक गुलाम रहा है. उस दौरान बहुत कम लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया होगा. उन भाषणों के अनुसार, भारत मुहम्मद बिन कासिम के समय से ही गुलाम है, लेकिन कासिम का असर स़िर्फ उत्तर भारत तक ही हुआ था, दक्षिण भारत में नहीं. यहां तक कि उत्तर भारत में भी पूरी तरह से मुस्लिम शासकों का प्रभुत्व नहीं था, जब तक कि मुगल शासन नहीं आया. मुहम्मद बिन कासिम की सिंध पर जीत को पूरे भारत पर जीत नहीं माना जा सकता. ठीक वैसे ही, जैसे ब्रिटिश सेना की प्लासी पर जीत को पूरे भारत पर जीत नहीं माना जा सकता. इसके बाद कई मुस्लिम शासकों को काफी समय लग गया पंजाब और दोआब जीतने में. जबकि असम हमेशा ही दिल्ली सल्तनत के शासकों के अधिकार क्षेत्र से दूर रहा. ठीक इसी तरह अंग्रेजों को भी लगभग 70 सालों का समय लग गया था भारत के अन्य हिस्सों पर कब्जा करने में.
दक्षिण भारत का मुसलमानों के साथ अनुभव व्यापारिक तौर पर रहा. उन्होंने मुलसमानों के साथ व्यापार का अनुभव लिया, न कि मुस्लिम शासन का. मुस्लिम शासन काफी बाद में वहां पहुंचा. इसी प्रकार किसी भी तरह के हिंदू इतिहास को लिखते समय भक्ति आंदोलन के बारे में सोचना ही होगा, जिसकी शुरुआत दक्षिण भारत में तमिल कवियों ने ही की थी. यह आंदोलन बाद में उत्तर भारत में पहुंचा. हिंदुत्व स़िर्फ संस्कृत के ज्ञान का उत्पाद नहीं है, क्लासिकल तमिल का भी इसमें काफी योगदान है. यह दक्षिण भारत का ही एक राजवंश चोल था, जिसने देश के बाहर भी विजय हासिल की, जबकि उत्तर भारत के शासक आपस में ही झगड़ रहे थे. अगर किसी नए भारत के निर्माण का विचार हिंदू सिद्धांत पर आधारित है, तो उसमें देश के सभी हिस्सों को शामिल करना चाहिए. भारत के इतिहास में ज़्यादातर उत्तर भारत के मुस्लिम शासकों को ही केंद्र में रखा गया है. इस वजह से हिंदू राष्ट्रवादी भारत के इस दिल्ली सल्तनत विचार से तंग आ चुके हैं. अगर ध्यान से देखा जाए, तो वर्तमान अखंड भारत ब्रिटिश शासन का ही नतीजा है. इसलिए अगर हम किसी नए भारत का विचार कर रहे हैं, तो हमें इसके लिए सभी को जोड़ना होगा और ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा मुस्लिम शासकों के महिमा मंडन से अलग हटना होगा. अब समय आ गया है कि नए भारत के निर्माण पर गंभीरता के साथ विचार किया जाए.

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