Santosh-Sirभारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की मुलाकात सितंबर में अमेरिका में होने वाली है. अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी इसकी पूर्व तैयारी के लिए भारत आए हैं. दरअसल, अमेरिकी विदेश मंत्री की इस भारत यात्रा का उद्देश्य भारतीय प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा की पूर्व तैयारी के साथ-साथ नरेंद्र मोदी को थोड़ा लचीला रुख अपनाने के लिए तैयार करना है. अमेरिका ने नरेंद्र मोदी को पिछले 12 सालों से दंगों का दोषी करार देते हुए वीजा नहीं दिया था. अब नरेंद्र मोदी को भारत की जनता ने प्रधानमंत्री चुना है, इसलिए अमेरिका चाहता है कि नरेंद्र मोदी के साथ बदले हालात में रिश्ते सामान्य किए जाएं. पर इसके पीछे अमेरिका की अदालत में हुआ यह खुलासा भी है कि अमेरिका ने यूरोपीय देशों के साथ-साथ भारत के कुछ नेताओं की भी जासूसी कराई, जिसमें तत्कालीन वित्त मंत्री एवं वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गड़करी और संभवत: अरुण जेटली का नाम शामिल है. इस खुलासे से यूरोपीय देशों में शोर-शराबा हुआ, काफी ख़बरें आईं, लेकिन हिंदुस्तान में काफी संयत ख़बरें आईं और इस ख़बर को दबाने की कोशिश हुई, क्योंकि अब हालात बदले हुए हैं. अगर कांग्रेस की सरकार होती, तो भारतीय जनता पार्टी इस पर काफी शोर मचाती, लेकिन भारतीय जनता पार्टी की सरकार होने के नाते इस सारे मामले को सिरे से ख़ारिज करने का प्रयास किया गया. पर जब भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी के साथ बातचीत में इस मुद्दे को उठाया, तब यह साफ़ हो गया कि भारत सरकार संसद में इस जासूसी कांड को देश में हुई जासूसी के साथ जोड़ रही है, अमेरिका द्वारा हुई जासूसी के साथ नहीं जोड़ रही है.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका जाने से पहले अगस्त के आख़िरी हफ्ते में इस्लामाबाद जाएंगे और वहां उनकी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ बातचीत होगी. इस बातचीत में सारे विवादास्पद मुद्दे होंगे और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि कश्मीर पर उसमें बातचीत नहीं होगी. कश्मीर पर भी बातचीत होगी. इस बातचीत का एक ही नतीजा निकलेगा कि कश्मीर पर बातचीत जारी रहे, लेकिन व्यापार के रास्ते खोलने की पहल हो. अगर ऐसा होता है, तो भारत और पाकिस्तान के बीच नए रिश्ते बनेंगे. अगर दोनों देश खुलेआम पर्यटकों को एक-दूसरे के यहां आने की अनुमति देते हैं या पर्यटन वीजा थोड़ा आसानी से देना प्रारंभ करते हैं, तो यह भी दोनों देशों के रिश्ते सुधारने की दिशा में काफी सार्थक पहल होगी, दोस्ती बढ़ेगी. भारत और पाकिस्तान यह बात अच्छी तरह समझते हैं कि दोनों देशों में आतंकी गतिविधियां करने के लिए किसी को भी वीजा की ज़रूरत नहीं है और न पासपोर्ट की. आतंकी गतिविधियों या जासूसी गतिविधियों में लिप्त लोग बिना वीजा-पासपोर्ट काम करते हैं. अब दुनिया भर में संचार साधन इतने विकसित हो गए हैं और आने-जाने के इतने रास्ते खुल गए हैं कि जिन ट्रेडिशनल बातों का जिक्र होता है, जिसमें वीजा एवं पासपोर्ट प्रमुख है, उनका कोई महत्व नहीं रह गया है. दरअसल, वीजा और पासपोर्ट की बात दोनों देशों के हुक्मरान अपनी-अपनी जनता को मूर्ख बनाने के लिए करते हैं, इसलिए जनता को मूर्ख बनाने की जगह उसे आपस में मिलने देने की कोशिश अगर दोनों सरकारें करें, तो अच्छे रिश्ते बहाल होने की दिशा में यह सबसे बड़ा सार्थक क़दम होगा.
जिस चीज की मुझे आशंका है, वह पिछले कुछ दिनों से पाकिस्तान और अमेरिका में होने वाली गतिविधियां देखने से पैदा हुई है. ऐसा लगता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान अमेरिका उन्हें यह सलाह दे सकता है कि भारत कश्मीर का मसला हल करने की दिशा में थोड़ी सार्थक या ठोस पहल करे. इसका मतलब यह हुआ कि अगर भारत चाहता है कि कश्मीर का मसला हल हो, तो उसे अमेरिका की मध्यस्थता स्वीकार करनी चाहिए. अब तक भारत की यह नीति रही है कि पाकिस्तान के साथ किसी भी तरह की बातचीत में, चाहे वह कश्मीर का मसला हो, आपसी संबंधों का हो या व्यापार का, उसमें किसी भी तीसरे देश की दखलंदाजी कभी स्वीकार नहीं की गई. भारत स्पष्ट राय देता रहा है कि द्विपक्षीय बातचीत होगी, त्रिपक्षीय नहीं. लेकिन, अब शायद अमेरिका यह मानता है कि यदि वह कश्मीर के मसले के हल के लिए कोई पहल करे, तो भारत के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसका समुचित अनुकूल उत्तर देंगे.
अमेरिका भारत पर दबाव बनाने के लिए चीन का साथ ले सकता है और चीन भी अपनी महत्ता दिखाने के लिए अमेरिका का साथ देने में शायद हिचकिचाए नहीं और दोनों मिलकर भारत पर दबाव डालें, पर मुझे पूरी आशा है कि भारत के प्रधानमंत्री इस दबाव को पूरी आसानी के साथ न स़िर्फ अस्वीकार करेंगे, बल्कि दोनों को अपनी हद में रहने की मित्रतापूर्ण चेतावनी भी दे देंगे. भारत के लिए कश्मीर एक ज़मीन का टुकड़ा नहीं है, भारत के लिए कश्मीर धर्मनिरपेक्षता की मिसाल है, क्योंकि इस तर्क के आधार पर कि कश्मीर में मुसलमान ज़्यादा हैं, इसलिए कश्मीर को पाकिस्तान में मिल जाना चाहिए या वहां के मुसलमानों को आत्मनिर्णय का अधिकार दे देना चाहिए कि अगर वे पाकिस्तान के साथ मिलना चाहें तो मिल सकते हैं, तो यह ख़तरनाक सिद्धांत होगा. भारत के हर गांव में मुसलमान रहते हैं और अगर कहें तो पाकिस्तान से ज़्यादा मुसलमान हिंदुस्तान में रहते हैं. भारत 125 करोड़ लोगों का देश है, गांवों का देश है. हर गांव में मुसलमानों के 10 से 500 तक घर हैं. घर ज़रूर 10 से 500 तक हैं, लेकिन वहां पर सारे मुसलमान अल्पसंख्या में हैं. अगर इस तर्क को मान लें, तो फिर सांप्रदायिक ताकतें यह सवाल खड़ा करेंगी कि जो सिद्धांत कश्मीर में लागू हो रहा है, उसे भारत के गांवों में क्यों नहीं लागू किया जाए? इसलिए हमारे गांव से मुसलमान जाएं चाहे जहां और रहना चाहें तो रहें. इससे हिंदुस्तान के गांवों में दंगा फैलने का ख़तरा पैदा हो जाएगा. भारत के पास न इतनी सेना है और न पुलिस कि हर गांव में सुरक्षाबलों को लगाया जाए, जिससे मुसलमानों की रक्षा हो सके. दरअसल, यह सिद्धांत भारत में गांव-गांव में दंगा कराने का एक सुनियोजित षड्यंत्र है, जिसके पीछे विदेशी ताकतें हैं, कुछ देश की ताकतें हैं और ज़्यादातर पाकिस्तान स्थित वे ताकतें हैं, जो दोनों देशों में शांति नहीं कायम होने देना चाहतीं.
मेरा ऐसा मानना है कि अगर भारत कश्मीर को अपने साथ रखना चाहता है, तो स़िर्फ इसलिए, क्योंकि कश्मीर उसके लिए धर्मनिरपेक्षता का एक मुद्दा है. अगर कश्मीर धर्मनिरपेक्ष रहेगा, भारत के साथ रहेगा, तो भारत के हर गांव में मुसलमानों की 16-17 प्रतिशत आबादी सुरक्षित रहेगी. हिंदुस्तान में मुसलमान उतने ही आज़ाद हैं, जितने पाकिस्तान में हैं. पाकिस्तान में तो फिर भी मुसलमानों के बीच दंगे, मुसलमानों के बीच आपसी लड़ाइयां सुर्खियां बनती हैं, लेकिन हिंदुस्तान में मुसलमान प्यार-मोहब्बत से रहते हैं और अपने हक़ों की प्राप्ति के लिए बाकायदा आंदोलन चलाते हैं. हिंदुस्तान में मुसलमान दोयम दर्जे के नागरिक नहीं हैं. हिंदुस्तान में मुसलमान राजनीति में उसी तरह हिस्सा ले सकते हैं, जिस तरह कोई दूसरा ले सकता है. अब यह मुसलमानों के ऊपर है कि वे अपनी इस ताकत का इस्तेमाल किस तरह से किसके साथ करते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे हिंदुस्तान में अल्पसंख्यक ग़ैर मुसलमानों के विभिन्न तबके, जिनमें दलित शामिल हैं, ईसाई शामिल हैं, पिछड़े शामिल हैं, सवर्ण शामिल हैं, ये सब कहीं न कहीं अल्पसंख्यक हैं. पर चूंकि सत्ता के ऊपर हिंदुस्तान में इतने सालों से जिस समर्थ वर्ग का कब्जा रहा है, उस वर्ग के कब्जे से आज़ादी भी मिल रही है और शिरकत भी तेजी से बढ़ रही है. हिंदुस्तान में पिछला चुनाव ऐसा रहा है, जिसमें मुसलमानों की अपनी रणनीतिक कमियों की वजह से उनकी हिस्सेदारी संसद और विधानसभाओं में कम हुई है. लेकिन, इस बात की आशा करनी चाहिए कि मुसलमान अपनी जद्दोजहद, अपनी लड़ाई, अपने हक़ों की प्राप्ति और अपने ग़रीब तबके की आर्थिक एवं शैक्षिक बदहाली ख़त्म करने के लिए एक बेहतर रणनीति बनाएंगे.
पर इसके लिए सबसे से ज़्यादा आवश्यक है कि भारत के प्रधानमंत्री और अमेरिका के राष्ट्रपति के बीच बराबरी के स्तर पर बातचीत हो. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह सबसे बड़ी परीक्षा है कि वह विश्‍व नेताओं की कतार में स्वयं को कहां खड़ा करते हैं और अग्रिम पंक्ति में खड़े होने की एक ही शर्त है कि भारत के हितों के साथ न खुला, न छुपा किसी तरह का समझौता न हो. शायद यही वक्त की मांग है और यही भारत और पाकिस्तान के संबंधों में खुशहाली आए, इसकी भी मांग है.

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