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2019 में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का भाजपाई आधार है

 

क्या जम्मू-कश्मीर राज्य को धार्मिक और क्षेत्रीय आधार पर तीन भागों में विभाजित करने की योजना पर अमल करने की तैयारियां हो रही हैं. मीडिया रिपोर्ट्‌स पर भरोसा करें, तो मोदी सरकार 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले कश्मीर के विभाजन को अमली जामा पहनाने का फैसला कर चुकी है. ज्यादा आसानी से समझना हो, तो कहा जा सकता है कि मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर राज्य को तीन भागों यानि मुस्लिम बहुल घाटी, हिन्दू बहुल जम्मू और बौद्ध बहुल लद्दाख में बांट देगी.

मीडिया रिपोर्ट्‌स के मुताबिक, यह गैर मामूली काम लोकसभा के द्वारा जम्मू और लद्दाख को यूनियन टेरिटरी का दर्जा दिलाकर आसानी से किया जा सकता है. यानि जम्मू और लद्दाख को सीधे केन्द्र के नियंत्रण में दे दिया जाएगा. हालिया दिनों में इस तरह की खबरें प्रकाशित होने के साथ ही सियासी हलकों में इस विषय पर बहस शुरू हो गई है. इस बहस का सवाल यह है कि क्या जम्मू-कश्मीर को धार्मिक और क्षेत्रीय आधार पर विभाजित करना इतना आसान होगा?

हकीकत तो यह है कि जम्मू-कश्मीर को तीन भागों में बांटने का सुझाव बहुत पुराना है. पूर्व एनडीए सरकार ने राज्य के विभाजन की योजना पर खुलकर इजहार भी किया है. वर्ष 2000 में तत्कालीन गृहमंत्री एलके आडवाणी ने लेह के दौरे के दौरान लद्दाख और जम्मू को सीधे केन्द्र के नियंत्रण में देने की अपनी सरकार की ख्वाहिश का इजहार किया था. दरअसल, इससे पहले प्रधानमंत्री वाजपेयी सिन्धु दर्शन मेले में शिरकत के लिए लद्दाख गए थे. जहां लद्दाख बौद्धिष्ट एसोसिएशन ने प्रधानमंत्री से इस क्षेत्र को यूनियन टेरेटरी का दर्जा देने की मांग की थी. अडवाणी ने गृहमंत्री के बतौर उस सुझाव का समर्थन किया था. उन्होंने सात जून 2000 को लेह में पहली बार अपनी हुकूमत के इरादे का इजहार किया कि लद्दाख को सीधे केन्द्र सरकार के नियंत्रण में लाया जाएगा.

आम धारणा यही है कि राज्य को धार्मिक आधार पर तीन हिस्सों में बांटने की योजना आरएसएस की है. एनडीए सरकार की तरफ से इस मामले में पहली बार अपना इरादा जाहिर करने से महज चंद महीने पहले यानि 18 मार्च 2000 को आरएसएस की जनरल बॉडी मीटिंग में एक प्रस्ताव पारित किया गया था, जिसमें जम्मू-कश्मीर को तीन भागों में विभाजित करने की मांग करते हुए कहा गया कि इस कदम से सुरक्षा बलों को केवल मुस्लिम बहुल घाटी वाले कश्मीर की तरफ ध्यान देना पड़ेगा.

क्योंकि बुनियादी तौर पर घाटी में ही हालात खराब हो जाते हैं. इस प्रस्ताव में आरएसएस ने कहा था कि अगर जम्मू और लद्दाख को घाटी से अलग किया गया, तो इन दोनों क्षेत्रों में तेजी से विकास होगा और फिर इन्हें धारा 370 की आवश्यकता भी नहीं रहेगी. यानि इन दो क्षेत्रों का देश में पूरी तरह विलय होगा. इन्हीं दिनों में कश्मीर पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर और लद्दाख बोद्धिष्ठ एसोसिएशन ने संयुक्त रूप से प्रधानमंत्री वाजपेयी को एक मेमोरेडंम पेश किया था, जिसमें उन्होंने लद्दाख और जम्मू को अलग राज्य का दर्जा देने की मांग की थी.

अब जबकि राज्य के विभाजन की बातें नए सिरे से सामने आ रही हैं, तो पिछले हफ्ते लद्दाख में ज्वाइंट एक्शन कमिटी नामक संगठन ने एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें लद्दाख क्षेत्र को यूनियन टेरेटरी का दर्जा देने की मांग करते हुए कहा गया कि लद्दाख का घाटी के साथ सांस्कृतिक, भाषायी सम्बन्ध नहीं हैं. इसलिए इसे घाटी से अलग किया जाना चाहिए. इतना ही नहीं, 23 सितंबर को नई दिल्ली में 100 प्रमुख हस्तियों ने एक मीटिंग में हिन्दू सिविलाइजेशन को संरक्षण देने के लिए मोदी सरकार के सामने जो प्वाइंट रखने का फैसला किया है, उनमें जम्मू-कश्मीर राज्य को तीन भागों में बांटने का सुझाव भी शामिल है.

इन प्रमुख हस्तियों में बुद्धिजीवी, प्रत्रकार, लेखक और धार्मिक गुरु इत्यादि शामिल हैं, जो देशभर के विभिन्न भागों से सम्बन्ध रखते हैं. जिस दिन ये मीटिंग हुई उसी दिन पंडित कॉन्फ्रेंस नामक संगठन ने अपने बयान में जम्मूृ-कश्मीर के विभाजन की मांग की. इन सारी घटनाओं की टाइमिंग को देखकर यही लगता है कि जम्मू-कश्मीर राज्य को धार्मिक और क्षेत्रीय आधार पर विभाजित करने की साजिश हो रही है. हालांकि कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा की मंजूरी के बगैर लोकसभा को इस राज्य की सीमाओं को फिर से निर्धारित करने का अधिकार नहीं है. ]

वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक ताहिर मुहियुद्दीन ने इस विषय पर चौथी दुनिया से बात करते हुए कहा कि गत चार वर्षों में नोटबंदी से लेकर राफेल डील तक मोदी सरकार ने जो कुछ भी किया है, इसके मुकाबले में जम्मू-कश्मीर की सीमाओं के साथ छेड़छाड़ करना एक मामूली बात है. दूसरी बात ये है कि 2019 के चुनाव जीतने के लिए ये सरकार किसी भी हद तक जा सकती है, क्योंकि वोटरों को लुभाने के लिए इसके पास कुछ भी नहीं है. इसलिए चुनाव जीतने के लिए इसे कोई गैर मामूली कदम उठाना होगा. इन सम्भावित कदमों में राम मंदिर निर्माण, धारा 370 या 35 ए का खात्मा या फिर जम्मू-कश्मीर की सीमाओं के साथ छेड़छाड़ आदि शामिल हैं. अगर सरकार ने चुनाव से पहले इनमें से कोई भी कदम उठाया तो उसे दोबारा सत्ता में आने से कोई नहीं रोक सकता है. इसलिए ऐसा लगता है कि ये सरकार राज्य के विभाजन की योजना पर अमल करने की कोशिश करेगी.

दिलचस्प बात यह है कि जम्मू और लद्दाख को घाटी से अलग करने के प्रस्ताव को घाटी में भी कई हलकों से समर्थन मिल रहा है. वरिष्ठ पत्रकार गुलाम नबी ख्याल ने राज्य के विभाजन को कश्मीर मसले के हल का बेहतर तरीका करार दिया है. उन्होंने इस बारे में कई अखबारों और पत्रिकाओं में भी लिखा है. ख्याल की दलील है कि ये राज्य के तीनों क्षेत्र कश्मीर, लद्दाख और जम्मू की एकता एक कृत्रिम बंधन है.

इसी के कारण डोगरा शासकों ने देश के लालच में अपनी तानाशाही कायम की. नहीं तो ये तीनों क्षेत्र ऐतिहासिक, भौगोलिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, वैचारिक, आस्था इत्यादि में एक फीसदी भी मिलान नहीं रखते. लिहाजा इस नकली बंधन का देर तक मौजूद रहना संभव नहीं है. इस वक्त भी स्थिति यह है कि लद्दाख की अपनी स्वायत सरकार है, जिसमें राज्य प्रशासन का कोई अमल दखल नहीं है. जम्मू में भी भीम सिंह एंड कंपनी के अलावा जम्मू स्टेट फॉर्म सक्रिय है, ताकि डोगरा लैंड को एक अलग राज्य का दर्जा दिया जाए.

विश्लेषकों का एक तबका ऐसा भी है, जो जम्मू और लद्दाख क्षेत्र में मुसलमानों की अच्छी खासी संख्या की मौजूदगी की वजह से इन क्षेत्रों को घाटी से अलग करना असंभव समझते हैं. उल्लेखनीय है कि 10 जिलों वाले जम्मू सूबे के तीन बड़े जिलों डोडा, पूंछ और राजौरी में मुसलमानों का बहुमत है. इन जिलों में क्रमशः 64 फीसदी, 88.87 और 60.97 फीसद मुस्लिम आबादी है. इसके अलावा ये जिले लाइन ऑफ कंट्रोल के साथ मिलते हैं. इसी तरह लद्दाख के सन 1979 में दो जिले करगिल और लेह बनाए गए.

इनमें भी बड़ी मुस्लिम आबादी मौजूद है. ऐसे हालात में लद्दाख और करगिल क्षेत्रों को घाटी से अलग करना कोई आसान बात नहीं है. वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक रियाज मसरुर ने इस विषय पर चौथी दुनिया से बात करते हुए कहा कि मेरे ख्याल से मोदी सरकार आने वाले लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल करने के लिए सांप्रदायिक कार्ड खेलने की कोशिश करेगी. इसके लिए न सिर्फ राम मंदिर की बातें की जाएंगी, बल्कि पाकिस्तान और कश्मीर मुखालिफ बयान और जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले कानून के खात्मे की बात की जाएगी. लेकिन अमली तौर पर इनमें से कोई भी कदम नहीं उठाया जाएगा. क्योंकि 2014 के विपरीत आज भाजपा की लोकप्रियता बहुत कम है. इसलिए मुझे लगता है कि सरकार जुबानी जमा खर्च के सिवा कुछ नहीं कर सकती है.

जम्मू-कश्मीर के हवाले से भाजपा नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार के पास क्या योजना है, सरकार क्या कर सकती है, इसका फैसला आने वाला समय ही करेगा. लेकिन ये बात तय है कि 2019 के चुनाव में अपनी जीत दर्ज कराने की कोशिश में भाजपा यकीनन कोई बड़ा और कोई गैर मामूली कदम उठाएगी. क्या इस तरह के संभावित कदमों का सम्बन्ध जम्मू-कश्मीर से भी हो सकता है. इसे खारिज भी नहीं किया जा सकता है.

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