रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने ब्याज दर को 25 बेसिस प्वॉइंट घटा दिया है और अब यह 7.25 फीसद  है. प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक के बीच समन्वय की कमी दिखती है. रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कहा है कि यह समय सही नहीं है. असल में उन्होंने एक मजबूत बयान दिया है कि वह अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने के लिए और नीचे नहीं ले जा सकते. उनका एक मजबूत दृष्टिकोण है. हमारे पास अरविंद सुब्रह्मण्यम के रूप में एक आर्थिक सलाहकार हैं, वित्त मंत्री हैं, प्रधानमंत्री हैं. इन सबको रिजर्व बैंक के गवर्नर के साथ बैठकर एक ऐसा रास्ता तलाशना चाहिए, जिससे निवेश आए, ग्रोथ हो, क्योंकि इसके बिना सरकार वह सब नहीं हासिल कर सकती, जो पाना चाहती है….

.अखबारों में आ रहा ताजा विवाद दूषित मैगी नूडल्स का है. इस कहानी के दो पहलू हैं. एक यह कि मैगी नूडल्स के कुछ बैच आवश्यक मानकों के अनुसार न हों, ऐसा संभव हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसके लिए उसके ब्रांड एंबेसडर पर म़ुकदमा चलाया जाना चाहिए. इसके विपरीत यह सरकारी अधिकारियों का कर्तव्य था कि वे इन बैचों की जांच लगातार करते. उन्हें इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और संबंधित लोगों को निलंबित कर दिया जाना चाहिए. महाराष्ट्र में ऐसा कोई बैच नहीं पाया गया है. जाहिर है, पूरी ग़लती ब्रांड की नहीं है और इसलिए ब्रांड एंबेसडर की ग़लती ढूंढने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए. वे लोग प्रतिष्ठित और क्षमतावान लोग हैं, वे जानबूझ कर ऐसा काम नहीं करेंगे. एक और पक्ष है, जो थोड़ा चिंतित करता है कि नेस्ले एक स्विस कंपनी है और स्विस मानक बहुत ही उच्च होते हैं. ऐसी संभावना नहीं है कि वह (नेस्ले) अपने मानकों को कमज़ोर करेगी, लेकिन ये मल्टी नेशनल कंपनियां भारत के कमज़ोर मानकों को लेकर थोड़ी लापरवाही भी बरतती हैं. यहां पर पर्यवेक्षण, विनियमन एवं कार्यान्वयन थोड़ा ढीला है, इसलिए हर कोई लाभ लेने की कोशिश करता है. सरकार मामले की तह तक पहुंच कर उचित कार्रवाई करे, तो बेहतर होगा. बिहार की मुजफ्फरपुर अदालत द्वारा प्रतिष्ठित व्यक्तियों पर म़ुकदमा चलाने की कोशिश करना हास्यास्पद है. दिल्ली उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय को अपने हाथ में इस मामले को लेकर उचित दिशा-निर्देश देना चाहिए.

एक अन्य रोचक बात पढ़ने को मिली. फायर ब्रांड आरएसएस मैन विनय कटियार, जो राम मंदिर आंदोलन में सबसे आगे हैं, ने कहा है कि 1991 में चंद्रशेखर सरकार एक महीने और बनी रहती, तो राम मंदिर मुद्दे का हल हो जाता और मंदिर बन जाता. यह सही बात है. इस पर एक श्वेत-पत्र भी है, जिसका हवाला अक्सर श्री लालकृष्ण आडवाणी देते रहे हैं. हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों की सहमति से एक सौहार्द्रपूर्ण समाधान बस होने ही वाला था. अब उसके बाद नरसिम्हा राव ने क्यों उस पर अमल नहीं किया और उस श्वेत-पत्र को ठंडे बस्ते में डाल दिया, पता नहीं. लेकिन इससे हुआ यह कि मामला खटाई में पड़ गया. डेढ़ साल बाद छह दिसंबर, 1992 को उस ढांचे को ध्वस्त कर दिया गया. उसके बाद से आज 23 सालों बाद भी, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई बढ़ती चली गई. इसे देश की हानि के रूप में देखा गया. अभी भी दोनों पक्षों के अच्छी सोच वाले लोगों को एक साथ बैठकर एक फॉर्मूला विकसित करना चाहिए.
जाहिर है, चंद्रशेखर फॉर्मूला अब काम नहीं करेगा, क्योंकि अब वह ढांचा मौजूद नहीं है. मुसलमान पहले से ही अपमानित महसूस कर रहे हैं, लेकिन यदि मौजूदा सरकार विकास के लिए खुद को समर्पित मानती है, तो उसे किसी तरह से इस भावनात्मक मुद्दे का समाधान निकालना चाहिए. हम सभी जानते हैं कि विकास तब तक नहीं होगा, जब तक दो समुदाय आपस में टकराव पर समय खर्च करते रहें और व्यवहारिक मुद्दों की जगह भावनात्मक मुद्दे पर ज़ोर देते रहें. सीरिया या इराक या यमन या सऊदी अरब में क्या हुआ, इसे हम देख सकते हैं. राजनीतिक नेतृत्व का काम गुस्सा नीचे लाना है, न कि वास्तविक या काल्पनिक, छोटे या बड़े मतभेद को बढ़ावा देना, जो कि चीजों को बदतर बना देता है. मैं आशा करता हूं कि विनय कटियार अध्ययन करेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे कि उस वक्त क्या समझौता हुआ था और उसे अब कैसे आगे ले जाया जा सकता है. यह देश की अस्सी फीसद आबादी के हित में है. यह मुद्दा कोई ऐसा अप्रिय मोड़ न ले, जो देश के लिए अच्छा न हो.

एक अन्य रोचक बात पढ़ने को मिली. फायर ब्रांड आरएसएस मैन विनय कटियार, जो राम मंदिर आंदोलन में सबसे आगे हैं, ने कहा है कि 1991 में चंद्रशेखर सरकार एक महीने और बनी रहती, तो राम मंदिर मुद्दे का हल हो जाता और मंदिर बन जाता. यह सही बात है. इस पर एक श्वेत-पत्र भी है, जिसका हवाला अक्सर श्री लालकृष्ण आडवाणी देते रहे हैं. हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों की सहमति से एक सौहार्द्रपूर्ण समाधान बस होने ही वाला था.

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने ब्याज दर को 25 बेसिस प्वॉइंट घटा दिया है और अब यह 7.25 फीसद है. प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक के बीच समन्वय की कमी दिखती है. रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कहा है कि यह समय सही नहीं है. असल में उन्होंने एक मजबूत बयान दिया है कि वह अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने के लिए और नीचे नहीं ले जा सकते. उनका एक मजबूत दृष्टिकोण है. हमारे पास अरविंद सुब्रह्मण्यम के रूप में एक आर्थिक सलाहकार हैं, वित्त मंत्री हैं, प्रधानमंत्री हैं. इन सबको रिजर्व बैंक के गवर्नर के साथ बैठकर एक ऐसा रास्ता तलाशना चाहिए, जिससे निवेश आए, ग्रोथ हो, क्योंकि इसके बिना सरकार वह सब नहीं हासिल कर सकती, जो पाना चाहती है. मैं शेयर बाज़ार या प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का बड़ा प्रशंसक नहीं हूं, लेकिन प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी केवल तभी आएगा, जब ये सारी पहल हो. रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स अभी भी निवेशकों के सिर पर लटक रही एक तलवार है. मैट एक अन्य चिंता का कारण है. यह सरकार जिस आर्थिक नीति को आगे बढ़ाना चाहती है, उसमें विश्वास की कमी है. हम लोग समाजवादी सोच के हैं, इसलिए बाज़ारवाद के बड़े प्रशंसक नहीं हैं. लेकिन चूंकि यह सरकार चीन, जापान एवं अमेरिका को लुभाना चाहती हैं, तो फिर पहले अपना घर ठीक करना होगा. आप यहां उम्मीद नहीं कर सकते कि जैसे और जिस आर्थिक वातावरण में भारत के उद्यमी काम करते हैं, वैसे वातावरण में विदेशी निवेशक काम करेंगे. भारत में हर कोई रिश्वतखोरी से लेकर कठोर क़ानून और खराब कार्यान्वयन का अभ्यस्त है. यहां यह सब एक प्रणाली बन चुका है. विदेशी निवेशक इस सबमें विश्वास नहीं करते. वे गारंटी चाहते हैं. इसके अलावा यहां किसी भी चीज में क़ानून की कोई स्पष्टता नहीं है. मुझे नहीं मालूम कि ऐसा करने के लिए सरकार को कौन रोक रहा है. लेकिन, यह तय है कि प्रधानमंत्री जो चाहते हैं, उसे वित्त मंत्री नहीं समझ रहे हैं या यह सब क्रियान्वित करने में सक्षम नहीं हैं. रिजर्व बैंक के गवर्नर निश्चित तौर पर सरकार से अलग विचार रखते हैं. जितनी जल्दी घरेलू मोर्चे पर चीजों को ठीक कर लिया जाए, उतना ही बेहतर होगा.

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