जनता परिवार के छह दलों के विलय को लेकर बिहार में तो अर्से से आशंका जताई जा रही थी, पर इस कसरत के इस अंत की उम्मीद नहीं थी. हालात ऐसे होते जा रहे हैं, जिनमें विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी एवं विरोधी दलों के गठबंधन की उम्मीद भी स्वार्थ और अहम की राजनीति का शिकार होती जा रही है. हिंदी पट्टी में जनता परिवार के सबसे बुजुर्ग नेता मुलायम सिंह यादव के कुछ बोलने के पहले ही यह तो सा़फ हो गया था कि विलय अभी महीनों (सालों भी हो सकता है) संभव नहीं है, पर उम्मीद थी कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की सत्रह साल के बाद की दोस्ती इस सूबे में भाजपा का कोई ठोस विकल्प देगी, लेकिन वे विकल्प देने के बजाय खुद ही अखाड़े में एक-दूसरे को चुनौती देने लगे हैं. हालांकि, उम्मीद की लौ अब तक पूरी बुझी नहीं है.

जद (यू) को 2010 में राज्य विधानसभा की 243 सीटों में से 115 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. उस चुनाव में यह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का अंग था. भाजपा के हिस्से में 91 सीटें आई थीं. जबकि लोजपा को तीन और झारखंड मुक्ति मोर्चा को एक सीट मिली थी. जद (यू) अपनी इन सीटों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है, लेकिन राजद प्रमुख किसी भी क़ीमत पर जद (यू) से अधिक सीटें चाहते हैं. गत संसदीय चुनाव के नतीजों के आधार पर उन्होंने अपना राजनीतिक दावा-पत्र तैयार किया है. उनका मानना है कि लोकसभा चुनाव में राज्य विधानसभा के 33 निर्वाचन क्षेत्रों में राजद एक नंबर की और 110 क्षेत्रों में दो नंबर की पार्टी रही है. सो, 143 सीटों पर उसका सहज दावा बनता है. उस चुनाव में जद (यू) केवल 18 सीटों पर एक नंबर की पार्टी बनी थी, जबकि कांग्रेस तेरह सीटों पर पहले स्थान पर थी. राजद का कहना है कि इसी ढंग से सीटों का बंटवारा हो. चूंकि राजद सबसे बड़ी पार्टी है, लिहाजा उसके साथ बड़े भाई जैसा सुलूक हो और बड़ा हिस्सा भी चाहिए. राजद के इस तर्क को नीतीश कुमार कैसे स्वीकार कर सकते हैं? सो, जद (यू) ने इसे स्वीकार नहीं किया है. कांग्रेस को भी राजद का यह तर्क स्वीकार करने में परेशानी है. लेकिन जद (यू) एवं कांग्रेस इस मायने में राजद से भिन्न हैं कि उन्होंने अब तक मीडिया की कोई मदद नहीं की और मीडिया में जाने से दोनों ने ही कमोबेश संयम बरता है. एक फॉर्मूला यह भी सामने आया कि जद (यू) और राजद विधानसभा की सौ-सौ सीटें आपस में बांट लें, शेष सीटें कांग्रेस और वाम दलों (यदि वे गठबंधन में शामिल होते हैं तो) को दे दी जाएं. राज्य में विधान परिषद की चौबीस सीटों पर चुनाव होने हैं और उसमें इसी फॉर्मूले का पालन किया जा रहा है. हालांकि, वाम दल परिषद चुनाव में राजद-जद (यू)-कांग्रेस गठबंधन में शामिल नहीं हुए.
इस फॉर्मूले को ज़मीन पर उतारने के लिए जद (यू) अपनी कई सीटों की कुर्बानी दे रहा है. चूंकि विधान परिषद की सीटों की कमी-बेशी से सरकार के बनने-बिगड़ने का कोई संबंध नहीं होता है, सरकार में बड़े भाई की दावेदारी पर भी कोई असर नहीं पड़ता, लिहाजा इसे जद (यू) ने स्वीकार कर लिया और अपने लोगों को संदेश भी दे दिया. लेकिन विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे के इस फॉर्मूले पर जद (यू) तैयार नहीं है. वस्तुत: भाजपा विरोधी गठबंधन में कई पेंच हैं. विधानसभा की सीटों को लेकर तो पेंच बार-बार फंसना तय है. मसला केवल सीटों की संख्या को लेकर ही नहीं है, बल्कि कौन-सी सीट किसके पाले में जाए, यह भी ज़िला स्तर पर विवाद का कारण बन जा सकता है.
गठबंधन का नेता पद बड़ा मसला बन गया है. नीतीश कुमार और जद (यू) का मानना है कि चुनाव सिर पर हैं और बतौर मुख्यमंत्री उनके नाम की घोषणा कर दी जानी चाहिए. ऐसा न करने से भ्रांति फैल रही है. लेकिन, लालू प्रसाद और उनके खास लोग इसके घोर विरोधी हैं. उनका मानना है कि चुनाव लालू प्रसाद एवं नीतीश कुमार के संयुक्त नेतृत्व में लड़ा जाए और गठबंधन के नेता की घोषणा चुनाव बाद की जाए. राजद के दिग्गज नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने चुनाव से पहले नीतीश कुमार को गठबंधन के नेता के तौर पर पेश करने से मना कर दिया है. यह अब तक राजद और जद (यू) के आंतरिक हलकों में चर्चा का विषय था, पर रघुवंश बाबू ने इसे सतह पर ला दिया है. पटना के राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि गठबंधन के मुतल्लिक राजद की ओर से प्रक्षेपास्त्र भले ही रघुवंश प्रसाद सिंह छोड़ रहे हैं, पर उसके पीछे लालू प्रसाद या उनके परिवार या राजद के कुछ बड़े नेताओं का हाथ ज़रूर है. लालू प्रसाद की भूमिका और खामोशी इसी शंका को बल दे रही है.
गठबंधन के पेंच जीतन राम मांझी और बागी राजद सांसद पप्पू यादव से भी गहरे जुड़े हैं. राजद प्रमुख बिहार में भाजपा विरोधी व्यापक गठबंधन में जीतन राम मांझी की ज़रूरत
बार-बार रेखांकित कर नीतीश कुमार की दुखती रग पर हाथ रख रहे हैं. यही राजनीतिक स्थिति पप्पू यादव की है. राजद प्रमुख मधेपुरा के इस सांसद को देखना तो दूर, उनका नाम भी नहीं सुनना चाहते. हालांकि, नीतीश कुमार और उनके दल के किसी बड़े नेता ने पप्पू यादव को तरजीह देने जैसा कोई बयान अब तक नहीं दिया है, पर राजद से निष्कासन के बाद वह जद (यू) के कुछ बड़े नेताओं के संपर्क में हैं. हाल में पप्पू यादव ने नीतीश कुमार के कामकाज की तारी़फ की, तो जद (यू) के कुछ नेताओं ने कहा भी कि यदि उनका भरोसा जद (यू) की नीति और विचारधारा में है, तो उनका स्वागत है. ऐसे बयान जिन लोगों की ओर से आए हैं, वे नीतीश कुमार के खास माने जाते रहे हैं.
बिहार में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भाजपा विरोधी राजनीति सुरंग के मुहाने पर आकर खड़ी हो गई है. सबसे घातक यह है कि इसे सुरंग में जाने से रोकने की कोई सार्थक पहल नहीं हो रही है. यदि हो भी रही है, तो नेताओं की शर्तों पर, आधे-अधूरे मन से. दिग्गज समाजवादी मुलायम सिंह यादव ने अपने परिवार और अपनी सरकार के दायरे में फंसकर विलय को रास्ते में ही प्राय: छोड़ दिया है, तो लालू प्रसाद अपनों के प्रत्यक्ष-परोक्ष नीतीश विरोध और वंश की अपेक्षाओं से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. अब गठबंधन का विचार भी डूबता नज़र आ रहा है. देखिए, आगे क्या होता है!

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