santosh bhartiyaवर्ष 2015 बीत चुका है और जब हम देश की आर्थिक स्थिति देखते हैं, तो बड़ी हैरानी होती है. मंत्रिमंडल बदलने से सरकारें बदलती हैं, यह स़िर्फ कहा जाता है. दरअसल, सरकार का मतलब नौकरशाही होता है और हमारी नौकरशाही राजनीतिक नेतृत्व को परेशान करती है. परेशान इस अर्थ में करती है कि न उसे जनता की चिंता होती है और न उस राजनीतिक पार्टी की, जिसके तहत वह काम करती है.

वह अपने ढंग से चलती है और नतीजा यह होता है कि देश कर्ज के बोझ तले दबता चला जाता है. यहीं पर मौजूदा सरकार का सवाल आता है. अगर वित्त मंत्री अच्छा हो, तो वह इन चीजों के ऊपर दबाव बना सकता है. अगर वित्त मंत्री अच्छा न हो या उसे वित्तीय मामलों की जानकारी कम हो या उसके पास वित्त मंत्रालय देखने का वक्त न हो या वह विशेषज्ञ न रख पाए या फिर जिन सवालों के जवाब लेने चाहिए, उन्हें न ले पाए, तो मुश्किल खड़ी हो जाती है.

ये सारी बातें मैं इसलिए उठा रहा हूं, क्योंकि हमारे देश ने 400 करोड़ रुपये व्यर्थ में विदेशी बैंकों या सरकारों को इसलिए चुकाए हैं, क्योंकि उसने ली हुई आर्थिक मदद का इस्तेमाल नहीं किया. कमिटमेंट चार्ज के रूप में 400 करोड़ रुपये से ज़्यादा इस सरकार ने सूखे-सूखे विदेशी बैंकों और सरकारों को चुकाए हैं. सरकार विदेशों से आर्थिक मदद लेती है, उन कामों के लिए, जिनका देश के लोगों से रिश्ता होता है.

मेरे पास कुछ आंकड़े हैं, जिन्हें मैं आपके साथ इसलिए साझा करना चाहता हूं, ताकि आपको पता चले कि सरकार जो पैसा लेती है, उसे खर्च नहीं कर पाती और उसे यह भी पता नहीं चलता कि उसके पास पैसा पड़ा है और योजनाएं लंबित हैं. दरअसल, लालफीताशाही के चलते पैसा उन योजनाओं में खर्च नहीं हो पाता. हमारे देश के ऊपर 3.66 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है. यह वह कर्ज है, जो देश के विकास कार्यों के लिए विदेशों से लिया गया.

इसके 65 प्रतिशत हिस्से यानी लगभग 2.37 लाख करोड़ रुपये (अनयूटिलाइज्ड मनी यानी जो रकम इस्तेमाल नहीं हुई) का कमिटमेंट चार्ज हमें देना पड़ा है. पैसा हमने लिया, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया. पैसा भी वापस गया, उल्टे 2.37 लाख करोड़ रुपये हमें बतौर हर्जाना-पेनाल्टी भुगतने पड़े. यह सरकार पिछली सरकारों से अच्छी होगी, विकास के काम करेगी और योजनाओं के ऊपर अमल करेगी, ऐसा हमें अंदाज़ा था. पिछली सरकार ने 1,400 करोड़ रुपये स़िर्फ कमिटमेंट चार्ज के रूप में चुकाए. यानी जो रकम उसने ली विकास कार्यों के लिए कर्ज के रूप में, उसका इस्तेमाल ही नहीं किया गया. वह रकम भी वापस गई और 1400 करोड़ रुपये अलग से चुकाने पड़े.

अब मैं आपको इस सरकार के बारे में कुछ कमाल की बात बताता हूं. शहरी विकास मंत्रालय 33 हज़ार 700 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं कर पाया, परमाणु ऊर्जा मंत्रालय 31 हज़ार 300 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं कर पाया, सड़क एवं परिवहन मंत्रालय 29 हज़ार 500 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं कर पाया और रेल मंत्रालय 25 हज़ार 100 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं कर पाया.

जल संसाधन मंत्रालय, जोपिछले डेढ़ वर्षों से सिंचाई एवं पेयजल आपूर्ति को लेकर एक बड़ा अभियान चला रहा है, वह 14 हज़ार 900 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं कर पाया. यानी कुल दो लाख 37 हज़ार 12 करोड़ रुपये हमारी सरकार खर्च नहीं कर पाई. इस रकम पर हमें जो कमिटमेंट चार्ज भुगतना पड़ा, वह सब पैसा आ़िखर किसका है? वह आपका और हमारा यानी देश का पैसा है. यह विडंबना नहीं, तो फिर क्या है कि हम अपने ग़रीब देश में विकास की गति तेज करने के लिए कर्ज लेते हैं, लेकिन उसे विकास कार्यों में खर्च नहीं कर पाते.

ये सारे के सारे आंकड़े और बिंदु भारत के महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट में सामने आए हैं. इसका मतलब यह कि अगर ऑडिटर एंड कंट्रोलर जनरल रिपोर्ट न दे, जिसे हम सीएजी या कैग कहते हैं, तो हमें पता भी न चले कि हमारी नौकरशाही, विभिन्न मंत्रालय एवं वित्त मंत्रालय क्या कर पाए और क्या नहीं कर पाए. आप खुद सोचिए, आपकी जेब में कर्ज का पैसा है, वह पैसा खर्च न हो और ऊपर से आपको बतौर पेनाल्टी अतिरिक्त पैसा देना पड़े कि हम कर्ज का पैसा खर्च नहीं कर पाए, तो फिर आपका घर कैसे चलेगा? उसी माशाअल्लाह ढंग से, लापरवाह ढंग से हमारा देश चल रहा है.

हमारा देश लापरवाह है, इसकी चिंता विपक्षियों को भी नहीं है, क्योंकि पूरी संसद के सत्र समाप्त हो गए, मैंने न किसी टेलीविजन चैनल पर बहस में इस सवाल को सुना और न किसी विपक्षी नेता की चिंता को सुना. यही नहीं, नौकरशाही इस सबको दबाने के लिए पूरी तरह तत्पर है और मंत्रियों को राजनीतिक जुमलेबाजी, राजनीतिक बहसबाजी और इधर-उधर घूमने से फुर्सत नहीं है. ऐसे देश का क्या हो सकता है?

ऐसा देश ग़रीबी में ही रहेगा, क्योंकि ग़रीबी से लड़ने के जितने तरीके हो सकते हैं, उनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है. रोज़गार पैदा करने के जितने तरीके हो सकते हैं, उनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है. क्या इसे आर्थिक महा-अपराध की श्रेणी में न रखा जाए? क्या जो ज़िम्मेदार लोग हैं, उनसे सवाल न पूछे जाएं? अब सवाल यह है कि देश में ज़िम्मेदार लोग कौन हैं? कोई सचिव, कोई मंत्रालय और कोई मंत्री किसी भी ऩुकसान का ज़िम्मेदार नहीं है.

प्रधानमंत्री जी को कार्य पद्धति में परिवर्तन करना चाहिए. अगर कोई दो वर्षों से वित्त मंत्री है, वित्त मंत्रालय के सचिव हैं, जिनके ऊपर खर्च की ज़िम्मेदारी है, उनके ऊपर अगर ज़िम्मेदारी तय नहीं होती है, तो इस काहिली, इस आलसपन पर रोक आ़खिर कैसे लगेगी? इसे रोकने के लिए अति आवश्यक है कि सरकार तत्काल काम करने का तरीका बदले, ज़िम्मेदारियां तय हों और ज़िम्मेदारियां तय होने के बाद उन्हें सजा मिले, जो इन सारे लैप्सेस के ज़िम्मेदार हैं यानी जिनकी वजह से कर्ज का पैसा विकास कार्यों में खर्च नहीं हो सका और देश को नुक़सान उठाना पड़ा.

फिर चाहे वह वित्त मंत्री हो, वित्त सचिव हो, विभिन्न मंत्रालयों के सचिव हों या विभिन्न मंत्रालयों के मंत्री. हमारी जेब का पैसा उल्टे विदेश में चला जाए और हमारे लिए आया पैसा खर्च न हो पाए, वह भी वापस चला जाए, अजब हाल है!  आपको नहीं लगता कि देश में अंधेर नगरी चौपट राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा वाली कहावत चरितार्थ हो रही है! 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से…

2015 बीतने के साथ अच्छे दिनों की कल्पना का स्वागत करते हुए कम से कम जिस बुरे दिन को आपकी सरकार दिखा रही है, अपनी काहिली की वजह से और अपनी चूक की वजह से, उस पर आपसे इतना तो आग्रह किया जा सकता है कि आप कार्य पद्धति में थोड़ा परिवर्तन करें. नीतियां वगैरह अलग चीज है, पर कम से कम इतना तो ज़रूर देखें कि ये जो ग़रीबों का, करदाताओं का पैसा है, वह विदेशियों को स़िर्फ इसलिए न दिया जाए, क्योंकि हमने कर्ज लिया था, जिसे हम इस्तेमाल नहीं कर पाए, इसलिए उसमें और ज़्यादा पैसा मिलाकर आपको वापस दे रहे हैं. क्योंकि, तब इसका रेट ऑफ इंट्रेस्ट बाज़ार के रेट ऑफ इंट्रेस्ट से बहुत ज़्यादा हो जाता है. प्रधानमंत्री जी, थोड़ा सोचिए.

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