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      सपा सरकार ने दबा रखी थी पत्थर-घोटाले की फाइल, भाजपा भी साधे थी मौन हाईकोर्ट का तेवर सख्तः मुख्य न्यायाधीश बोले, ‘कोई आरोपी बचना नहीं चाहिए’ बसपाई करतूतों की परतें खोलती ईओडब्लू की जांच रिपोर्ट ‘चौथी दुनिया’ के पास अखिलेश यादव ने लोकायुक्त की रिपोर्ट को क्षत-विक्षत करने का किया था काम बसपाई घोटालेबाज़ों ने हड़प लिए 14 अरब 10 करोड़ 50 लाख 63 हज़ार 200 रुपए पत्थर लदे 15749 ट्रक राजस्थान गए, पर लौटे 7,463, भुगतान पूरे का खा गए


भारत की राजनीति यूनान की मिथकीय कहानी की खूबसूरत महिला पात्र पैंडोरा की तरह है, जिसके हाथ में शिल्प कौशल के देवता एक बॉक्स देकर हिदायत देते हैं, इसे कभी खोलना नहीं. लेकिन जिज्ञासु पैंडोरा उस बॉक्स को खोल देती है और बॉक्स में बंद सारी बुराइयां दुनिया को प्रदूषित करने के लिए आजाद हो जाती हैं. भारत में जब भी चुनाव आता है, पैंडोरा की तरह ‘राजनीति-देवी’ घोटालों-भ्रष्टाचारों का बक्सा खोल देती हैं और लोकतंत्र का पर्व हर बार बदबू से भर जाता है. इस बुराई-बक्से का इस्तेमाल सभी करते हैं, विपक्षी दल से लेकर सत्ताधारी दल तक. लेकिन चुनाव खत्म होते ही बुराई-बक्सा अगले चुनाव के लिए ताक पर रख दिया जाता है. अभी कांग्रेस बुराई-बक्से से सत्ताधारी भाजपा का राफेल-सौदा निकाल कर चमका रही है, तो भाजपा लंबे समय तक सत्ता सुख भोगती रही कांग्रेस के घोटालों की लंबी फेहरिस्त निकाल कर दिखाने में लगी है.

इसी बुराई-बक्से से उत्तर प्रदेश का पत्थर घोटाला भी सामने निकल आया है. वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा के भ्रष्टाचार का बुराई-बक्सा खोल कर समाजवादी पार्टी सत्ता में आई थी. लेकिन सत्ता में आते ही समाजवादी पार्टी ने बसपा का भ्रष्टाचार दबा दिया. बाद में उसी भ्रष्टाचार की प्रणेता पार्टी बसपा से समाजवादी पार्टी ने गठबंधन रिश्ता भी बना लिया. अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्मारक (पत्थर) घोटाले की जांच (स्टेटस) रिपोर्ट मांग कर भाजपा को बुराई-बक्सा खोलने का चुनावी-मौका दे दिया है.

अब तक भाजपा सरकार भी इस घोटाले को लेकर मौन साधे थी, लेकिन चुनाव आया तो डराने, धमकाने और औकात दिखाने में पत्थर घोटाला अब उनके काम आने वाला है. जब देश-प्रदेश में लोकसभा चुनाव का माहौल गरमाया, तभी ऐन मौके पर मायावती-काल के स्मारक घोटाले की सीबीआई जांच के लिए किसी शशिकांत उर्फ भावेश पांडेय की तरफ से इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल हो जाती है. इस याचिका पर त्वरित सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीबी भोसले और न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा उत्तर प्रदेश सरकार से इस मामले में विजिलेंस जांच की प्रगति रिपोर्ट मांग लेते हैं. याचिका पर हाईकोर्ट के रुख से सनसनी फैल गई. बसपा भी सनसना गई और उससे गठबंधन करने पर उतारू सपा भी सनसनाहट से भर गई.

सपा की सनसनाहट थोड़ी अधिक इसलिए भी है, क्योंकि मायावती-काल के घोटालों की फाइल अखिलेश सरकार ने ही दबा रखी थी. कार्रवाई करने की लोकायुक्त की सिफारिश को ताक पर रख कर तत्कालीन मुख्यमंत्री बसपाई भ्रष्टाचार की गैर-वाजिब अनदेखी कर रहे थे. स्मारक घोटाले पर तत्कालीन अखिलेश सरकार की चुप्पी इस बार बड़ा कानूनी जवाब मांगेगी. हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए बड़े ही सख्त लहजे में कहा है कि स्मारक घोटाले का कोई आरोपी बचना नहीं चाहिए. घोटाले की जांच उत्तर प्रदेश सरकार की आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) और सतर्कता अधिष्ठान (विजिलेंस) कर रहा था. इस प्रकरण में एक जनवरी 2014 को ही लखनऊ के गोमतीनगर थाने में एफआईआर दर्ज कराई गई थी. तब यूपी में अखिलेश यादव की सरकार थी.

मायावती के मुख्यमंत्रित्व-काल में राजधानी लखनऊ और गौतमबुद्ध नगर (नोएडा) में अम्बेडकर स्मारकों और पार्कों के निर्माण में 14 अरब रुपए से भी अधिक का घोटाला हुआ था. तत्कालीन लोकायुक्त न्यायमूर्ति एन के मेहरोत्रा की रिपोर्ट और कार्रवाई की सिफारिश पर अखिलेश यादव सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की थी. लोकायुक्त एन के मेहरोत्रा ने मई 2013 में ही अखिलेश सरकार को अपनी जांच रिपोर्ट सौंप दी थी. स्मारक घोटाले में तत्कालीन मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा समेत 199 व्यक्ति और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के मालिकान जिम्मेदार ठहराए गए थे.

आरोपियों में दो मंत्रियों, एक दर्जन विधायकों, दो वकीलों, खनन विभाग के पांच अधिकारियों, राजकीय निर्माण निगम के प्रबंध निदेशक सीपी सिंह समेत 59 अधिकारियों और पांच महाप्रबंधकों, लखनऊ विकास प्राधिकरण के पांच अधिकारियों, 20 कंसॉर्टियम प्रमुखों, 60 व्यावसायिक प्रतिष्ठानों (फर्म्स) के मालिक और राजकीय निर्माण निगम के 35 लेखाधिकारियों के नाम शामिल हैं. आरोपियों की लिस्ट में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती या मुख्यमंत्री सचिवालय के उनके खास नौकरशाहों के नाम शामिल नहीं हैं. लोकायुक्त एन के मेहरोत्रा ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी, बाबूसिंह कुशवाहा, राजकीय निर्माण निगम के तत्कालीन प्रबंधन निदेशक (एमडी) सीपी सिंह, खनन विभाग के तत्कालीन संयुक्त निदेशक सुहैल अहमद फारूकी और 15 इंजीनियरों के खिलाफ तत्काल एफआईआर दर्ज कराकर मामले की सीबीआई से जांच कराने और घोटाले की रकम वसूलने की सिफारिश की थी.

लोकायुक्त ने यह भी सिफारिश की थी कि आरोपियों की आय से अधिक पाई जाने वाली चल-अचल सम्पत्ति जब्त कर ली जाए और स्मारकों के लिए पत्थर की आपूर्ति करने वाली 60 फर्मों और 20 कंसॉर्टियम से भी वसूली की कार्रवाई की जाए. लोकायुक्त की रिपोर्ट मिलने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कार्रवाई की बात तो कही, लेकिन सीबीआई से जांच कराने की सिफारिश करने के बजाय सतर्कता अधिष्ठान को जांच सौंप दी. मामले को घालमेल करने के इरादे से तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कार्रवाई के लिए लोकायुक्त की रिपोर्ट के कुछ हिस्से अलग कर उसे गृह विभाग को सौंप दिए. उसी रिपोर्ट के कुछ हिस्से लोक निर्माण विभाग को सौंप दिए गए और कुछ हिस्से भूतत्व और खनन विभाग के सुपुर्द कर दिए गए. यानि, गृह विभाग छोड़ कर, पत्थर घोटाले में जो विभाग शामिल थे, उन्हें ही कार्रवाई करने की अखिलेश सरकार ने जिम्मेदारी दे दी.

विडंबना है कि अखिलेश यादव सरकार ने लोकायुक्त की रिपोर्ट को क्षतविक्षत करने की गैर-कानूनी हरकत की. जबकि लोकायुक्त ने पत्थरों की खरीद में घोटाला कर सरकार को 14.10 अरब रुपए नुकसान पहुंचाने के आपराधिक-कृत्य के खिलाफ ‘क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऑर्डिनेंस-1944’ की धारा 3 के तहत सभी आरोपियों की सम्पत्ति कुर्क करके घोटाले की राशि वसूलने की सिफारिश की थी. लोकायुक्त ने अपनी सिफारिश में सरकार को यह भी सुझाया था कि तत्कालीन मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबूसिंह कुशवाहा से कुल धनराशि का प्रत्येक से 30 प्रतिशत, राजकीय निर्माण निगम के प्रबंध निदेशक सीपी सिंह से 15 प्रतिशत, खनन विभाग के तत्कालीन संयुक्त निदेशक सुहैल अहमद फारूकी से पांच प्रतिशत और निर्माण निगम के 15 इंजीनियरों से 15 प्रतिशत धनराशि वसूली जाए. लोकायुक्त ने यह भी सिफारिश की थी कि निर्माण निगम के लेखाधिकारियों की आय से अधिक सम्पत्ति पाए जाने पर उनसे सरकारी खजाने को पहुंचे नुकसान की शेष राशियानि पांच प्रतिशत की वसूली की जाए. लेकिन अखिलेश सरकार इस फाइल पर ही आसन टिका कर बैठ गई.

तत्कालीन लोकायुक्त एन के मेहरोत्रा द्वारा आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) से कराई गई जांच में आधिकारिक तौर पर पुष्टि हुई कि पत्थर (स्मारक) घोटाले के जरिए 14.10 अरब रुपए, यानि, सवा चौदह हजार करोड़ रुपए हड़प लिए गए. स्मारकों और पार्कों के निर्माण के लिए मायावती सरकार ने कुल 42 अरब 76 करोड़ 83 लाख 43 हजार रुपए जारी किए थे. इसमें से 41 अरब 48 करोड़ 54 लाख 80 हजार रुपए खर्च किए गए. शेष एक अरब 28 करोड़ 28 लाख 59 हजार रुपए सरकारी खजाने में वापस कर दिए गए. स्मारकों के निर्माण पर खर्च की गई कुल धनराशि का लगभग 34 प्रतिशत अधिक खर्च करके सरकार को 14 अरब 10 करोड़ 50 लाख 63 हजार 200 रुपए का सीधा नुकसान पहुंचाया गया. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2007 से लेकर 2012 के बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के आदेश पर लखनऊ और नोएडा में अम्बेडकर और कांशीराम के नाम पर कई पार्क और स्मारक बनवाए गए थे. स्मारकों और पार्कों के निर्माण कार्य में प्रमुख रूप से राजकीय निर्माण निगम, आवास एवं शहरी नियोजन विभाग, लोक निर्माण विभाग, नोएडा अथॉरिटी, लखनऊ विकास प्राधिकरण और संस्कृति एवं सिंचाई विभाग को लगाया गया था.

स्मारकों और पार्कों के निर्माण में लगाए गए गुलाबी पत्थर मिर्जापुर की खदानों के थे. उन पत्थरों को राजस्थान (भरतपुर) भेज कर वहां कटाई (कटिंग एंड कार्विंग) कराई जाती थी. फिर जयपुर भेज कर उन पत्थरों पर नक्काशियां होती थीं. इसके बाद उन पत्थरों को ट्रकों से वापस लखनऊ और नोएडा भेजा जाता था. कागजों पर जितने ट्रक मिर्जापुर से राजस्थान गए और वहां से वापस नोएडा और लखनऊ आए, वे असलियत में उतने नहीं थे. पत्थर ढुलाई में भी सरकार का अनाप-शनाप धन हड़पा गया. भुगतान भी तय रकम से दस गुना ज्यादा मनमाने तरीके से किया जाता रहा. आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा की जांच रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2007 से लेकर 2011 के बीच कुल 15 हजार 749 ट्रक पत्थर कटाई और कशीदाकारी के लिए राजस्थान भेजे गए. इनमें से मात्र 7,141 ट्रक पत्थर लखनऊ आए और 322 ट्रक नोएडा पहुंचे. बाकी के 7,286 ट्रक और उनपर लदे पत्थर कहां लापता हो गए? जबकि इनके भुगतान ऊंची कीमतों पर हो गए. घोटाले की जांच रिपोर्ट में इस तरह की अजीबोगरीब बानगियां भरी पड़ी हैं.

जांच में यह भी पाया गया था कि आठ जुलाई 2008 को बैठक कर कंसॉर्टियम बनाया गया और कंसॉर्टियम से पत्थरों की सप्लाई का अनुबंध किया गया. इस बैठक ने उत्तर प्रदेश उप खनिज (परिहार) नियमावली 1963 का सीधा-सीधा उल्लंघन किया. पत्थरों की खरीद के लिए बनी संयुक्त क्रय समिति की बैठक में सारे नियम-प्रावधान दरकिनार कर बिना टेंडर के बाजार से ऊंचे रेट पर मिर्जापुर सैंड स्टोन के ब्लॉक खरीदने और सप्लाई कराने का फैसला ले लिया गया. फैसलाकारों ने मनमानी दरें तय कर करोड़ों का घपला किया. दाम ज्यादा दिखाने के लिए पत्थरों की खरीद कहीं से हुई, कटान कहीं और हुई, पत्थरों पर नक्काशी कहीं और से कराई गई और सप्लाई कहीं और से दिखाई गई. स्मारकों और पार्कों के निर्माण में लगे योजनाकारों ने पहले यह तय किया था कि पत्थर की कटिंग और कार्विंग मिर्जापुर में ही हो और इसके लिए मिर्जापुर में ही मशीनें लगाई जाएं.

लेकिन बाद में अचानक यह फैसला बदल गया. पत्थर को ट्रकों पर लाद कर राजस्थान भेजने और कटिंग-कार्विंग के बाद उसे फिर ट्रकों पर लाद कर लखनऊ और नोएडा वापस मंगाने का फैसला बड़े पैमाने पर घोटाला करने के इरादे से ही किया गया था. हजारों ट्रक माल मिर्जापुर से राजस्थान भेजे गए, लेकिन वे वापस लौटे ही नहीं. उसका भुगतान भी हो गया. यह भ्रष्टाचार की सोची-समझी रणनीति का ही परिणाम था. ईओडब्लू की जांच में ये सारी करतूतें प्रामाणिक तौर पर साबित हो चुकी हैं. आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) ने उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर और सोनभद्र के पत्थर कटाई वाले क्षेत्र के साथ-साथ राजस्थान के बयाना (भरतपुर) और जयपुर को भी अपनी जांच के दायरे में रखा था. ईओडब्लू ने लखनऊ और नोएडा के उन स्थानों का भी भौतिक सत्यापन किया, जहां पत्थर लगाए गए थे. रेखांकित करने वाला तथ्य यह भी है कि पत्थरों की खरीद के लिए कीमत तय करने वाली सरकार की उच्चस्तरीय संयुक्त क्रय समिति ने बाजार भाव का पता लगाए बगैर कमरे में बैठे-बैठे ही 150 रुपए प्रति घन फुट कीमत तय कर दी थी और उस पर 20 रुपए प्रति घन फुट की दर पर लदान की कीमत भी निर्धारित कर दी.

पहले खदान के पट्‌टाधारकों से सीधे पत्थर खरीदा जाना तय हुआ था, लेकिन अचानक यह फैसला भी बदल दिया गया. अधिकारियों ने उत्तर प्रदेश उप खनिज (परिहार) नियमावली 1963 के नियम 19 के प्रावधानों को ताक पर रख कर खनन पट्‌टाधारकों का एक ‘गिरोह’ बना दिया और उसे कंसॉर्टियम नाम दे दिया. पट्‌टाधारकों को सीधे भुगतान न देकर कंसॉर्टियम के जरिए भुगतान किया जाता था. जांच में यह तथ्य खुल कर सामने आ गया कि कंसॉर्टियम के जरिए पट्‌टाधारकों को 75 रुपए प्रति घन फुट की दर से पेमेंट होता था, जबकि निर्माण निगम डेढ़ सौ रुपए प्रति घन फुट की दर से सरकार से पेमेंट लेता था. स्मारक निर्माण की पूरी प्रक्रिया घनघोर अराजकता में फंसी थी. बैठकें होती थीं, निर्णय लिए जाते थे, भुगतान होता था, लेकिन ईओडब्लू ने जब जांच पड़ताल की, तो बैठकों का कहीं कोई आधिकारिक ब्यौरा ही नहीं मिला. बैठकों का कोई रिकार्ड किसी सरकारी दस्तावेज में दर्ज नहीं पाया गया.

भूतत्व एवं खनिकर्म महकमे के निदेशक सुहैल अहमद फारूकी के रिटायर होने के बाद भी मायावती सरकार ने उन्हें ‘पत्थर-धंधे’ में लगाए रखा. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने फारूकी को सलाहकार नियुक्त कर दिया और मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और सलाहकार सुहैल अहमद फारूकी मुख्यमंत्री की तरह ही फैसले लेते रहे. जांच में यह बात सामने आई कि निर्माणाधीन स्मारक स्थलों और पार्कों का मायावती ने कभी ‘ऑन-रिकॉर्ड’ निरीक्षण नहीं किया. निर्माण कार्य देखने के लिए मायावती कभी मौके पर आईं भी तो वह सरकारी दस्तावेजों पर दर्ज नहीं है. मायावती की तरफ से नसीमुद्दीन सिद्दीकी ही मॉनीटरिंग करते थे और यह तथ्य सरकारी दस्तावेज पर दर्ज भी है. लोकायुक्त की रिपोर्ट पर एक जनवरी 2014 को लखनऊ के गोमतीनगर थाने में सतर्कता अधिष्ठान ने भारतीय दंड विधान की धारा 409, 120-बी, 13 (1) डी और 13(2) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज कराया था. लेकिन चार्जशीट आज तक दाखिल नहीं हो सकी.

निर्माण निगम के अ़फसरों ने यूं ही झाड़ लिए 10 करोड़

ईओडब्लू की जांच में यह तथ्य सामने आया कि निर्माण निगम ने कुल 19,17,870.609 घन फुट मिर्जापुर सैंड स्टोन 150 रुपए प्रति घन फुट की दर से खरीदा था, जिस पर 28 करोड़ 76 लाख 80 हजार 591 रुपए का भुगतान हुआ. विचित्र किन्तु सत्य यह है कि जो पत्थर 150 रुपए प्रति घन फुट की दर पर खरीदा दिखाया गया, वह महज 50 से 75 रुपए प्रति घन फुट की दर पर खरीदा गया था. लिहाजा,  19,17,870.609 घन फुट सैंड स्टोन पर अगर 50 रुपए प्रति घन फुट भी अधिक लिया गया, तो चुराई गई राशि 9 करोड़ 58 लाख 93 हजार 530 रुपए होती है. इस तरह निर्माण निगम के अफसरों ने सरकार के 10 करोड़ रुपए यूं ही झाड़ लिए.

अपवित्र तौर-तरीक़ों से होता रहा मायावती का ‘पवित्र-कार्य’… वे मौन देखती रहीं

स्मारक घोटाला कहें या पत्थर घोटाला, इसमें हुई कानूनी औपचारिकताओं में कहीं भी तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती का जिक्र नहीं है. जैसा आपको ऊपर बताया कि इस घोटाला प्रकरण में लोकायुक्त की रिपोर्ट पर सतर्कता अधिष्ठान ने जो एफआईआर दर्ज कराई, उसमें भी मायावती सरकार के दो मंत्री और एक दर्जन विधायक समेत करीब दो सौ लोग अभियुक्त बनाए गए, लेकिन मायावती को अभियुक्त नहीं बनाया गया. लोकायुक्त ने पत्थर घोटाले की विस्तृत जांच आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) से कराई थी. ईओडब्लू की पूरी जांच रिपोर्ट ‘चौथी दुनिया’ के पास है.

ईओडब्लू की जांच रिपोर्ट अम्बेडकर और कांशीराम के नाम पर बने स्मारकों और पार्कों को मायावती द्वारा ‘पवित्र-कार्य’ बताए जाने पर गंभीर कटाक्ष करती है. जांच रिपोर्ट कहती है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने पवित्र-कार्य के लिए 42 अरब 76 करोड़ 83 लाख 43 हजार रुपए का बजट दिया लेकिन उन्हीं की सरकार के दो मंत्रियों और उनके मातहती विभागों व निगमों के अधिकारियों ने ‘पवित्र-कार्य’ के लिए खर्च हुई धनराशि का 34 प्रतिशत हिस्सा गड़प कर जाने का अपवित्र काम किया. कुल धनराशि का 34 प्रतिशत हिस्सा भ्रष्टाचार करके खा जाने के काम में मायावती सरकार के दो मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा सीधे तौर पर लिप्त बताए गए, जिनके संरक्षण और निर्देशन में निर्माण निगम और खनन विभाग के अधिकारियों ने जमकर भ्रष्टाचार किया और सरकारी धन हड़पा.

सवा चौदह हज़ार करोड़ के घोटाले पर खड़ा का स्मारक

भ्रष्टाचारियों ने महापुरुषों के नाम पर बन रहे स्मारकों और पार्कों को भी नहीं बख्शा. हालांकि ईओडब्लू के एक आला अधिकारी कहते हैं कि भ्रष्टाचार करने के लिए ही महापुरुषों के नाम का इस्तेमाल किया गया था. स्मारक और पार्क श्रद्धा के लिए नहीं, बल्कि सरकारी धन लूटने के लिए बनवाए गए थे. स्मारकों और पार्कों के निर्माण कार्य के लिए मायावती सरकार ने 42 अरब 76 करोड़ 83 लाख 43 हजार रुपए दिए थे. इस धनराशि में से 41 अरब 48 करोड़ 54 लाख 80 हजार रुपए खर्च किए गए. सरकारी खजाने में केवल एक अरब 28 करोड़ 28 लाख 59 हजार रुपए ही वापस जमा किए गए. यानि, कुल खर्च की गई राशि में से 14 अरब 10 करोड़ 50 लाख 63 हजार 200 रुपए हड़प लिए गए. स्मारकों के निर्माण कार्य में राजकीय निर्माण निगम के अलावा आवास एवं शहरी नियोजन विभाग, लोक निर्माण विभाग (पीडब्लूडी), संस्कृति विभाग, सिंचाई विभाग, लखनऊ विकास प्राधिकरण (एलडीए) और नोएडा प्राधिकरण वगैरह शामिल थे.

तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के तत्कालीन करीबी नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा ही इन विभागों के मंत्री थे. बाबू सिंह कुशवाहा खनन विभाग के मंत्री हुआ करते थे, जबकि नसीमुद्दीन सिद्दीकी स्मारकों और पार्कों के निर्माण के ‘पवित्र-कार्य’ से सम्बद्ध अन्य सभी विभागों के मंत्री हुआ करते थे. ‘अज्ञात’ वजहों से तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती की नजरों से गिरे कुशवाहा एनआरएचएम घोटाले में जेल चले गए, लेकिन मायावती जब तक सत्ता में रहीं, नसीमुद्दीन उनकी आंखों का तारा बने रहे और आखेट करते रहे. सत्ता जाने के बाद मायावती और नसीमुद्दीन में धन के लेन-देन को लेकर ही विवाद हुआ, खूब तू-तू-मैं-मैं हुई, आरोप-प्रत्यारोप हुए और बसपा से नसीमुद्दीन का निष्कासन हुआ. मायावती अब अखिलेश के साथ हैं और नसीमुद्दीन अब अखिलेश के दोस्त राहुल के साथ हैं. प्रत्यक्ष या परोक्ष, अब भी सब साथ हैं… उन पर ‘राजनीति-देवी’ की कृपा बनी रहे.

महागठबंधन पर असर डालेगा पत्थर घोटाला

मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में हुए पत्थर घोटाले पर मिट्‌टी डालने की अखिलेश यादव सरकार की कारगुजारी सपा और बसपा दोनों पर भारी पड़ने वाली है. हाईकोर्ट के तेवर को सियासी नजरिए से देखें तो यह महागठबंधन की कोशिशों पर पानी फेरेगा. मायावती दबाव में हैं, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को दुत्कार कर अजित जोगी की जनता कांग्रेस से हाथ मिलाने के मायावती के फैसले ने यह जताया कि मायावती दबाव में हैं. उन्होंने न तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस से हाथ मिलाया और न ही राजस्थान में. राजनीतिक प्रेक्षकों का आकलन है कि उत्तर प्रदेश में भी लोकसभा चुनाव के पहले ऐसा ही होने वाला है. अखिलेश यादव के लिए भी स्मारक घोटाला परेशानी का सबब बनने वाला है. वर्ष 2012 में सत्ता पर बैठने से पहले समाजवादी पार्टी बसपाई घोटाले का पाई-पाई वसूलने का चुनावी जुमला उछाल रही थी, वही पार्टी सत्ता पाते ही स्मारक घोटाले को पचा गई. लोकायुक्त की रिपोर्ट और विजिलेंस की तरफ से दर्ज एफआईआर भी किसी कानूनी अंजाम तक नहीं पहुंच पाई. सरकारी दबाव में विजिलेंस अधिष्ठान चार्जशीट तक दाखिल नहीं कर सका.

बसपा के स्मारक घोटाले  के बाद खुलेगी सपा के कुंभमेला घोटाले की फाइल!

सत्ता गलियारे के उच्च पदस्थ अधिकारी बसपाकाल के स्मारक घोटाले के बाद सपाकाल के कुंभमेला घोटाले की फाइल के खुलने की भी संभावना जताते हैं. सपा सरकार के कार्यकाल में हुए कुंभ मेला घोटाले की भी सीबीआई से जांच कराने की मांग होती रही है. महालेखाकार (कैग) की रिपोर्ट में भी कुंभ मेला घोटाले की आधिकारिक पुष्टि हो चुकी है. कुंभ मेले के कर्ताधर्ता तत्कालीन मंत्री आजम खान थे. सपा सरकार के कार्यकाल में 14 जनवरी 2013 से 10 मार्च 2013 तक इलाहाबाद के प्रयाग में महाकुंभ हुआ था. कुंभ मेले के लिए अखिलेश सरकार ने 1,152.20 करोड़ दिए थे. कुंभ मेले पर 1,017.37 करोड़ रुपए खर्च हुए. यानि, 1,34.83 करोड़ रुपए बच गए. अखिलेश सरकार ने इसमें से करीब हजार करोड़ (969.17 करोड़) रुपए का कोई हिसाब (उपयोग प्रमाण पत्र) ही नहीं दिया. अखिलेश सरकार ने कुंभ मेले के लिए मिली धनराशि में केंद्रांश और राज्यांश का घपला कर के भी करोड़ों रुपए इधर-उधर कर दिए.

मायावती काल के स्मारक घोटाले के बारे में भी कैग ने इसी तरह के सवाल उठाए थे. बसपा के स्मारक निर्माण की मूल योजना 943.73 करोड़ रुपए की थी, जबकि 4558.01 करोड़ रुपए में योजना पूरी हुई. योजना में 3614.28 करोड़ रुपए की भीषण बढ़त हुई. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती द्वारा बार-बार डिजाइन में बदलाव कराने और पक्के निर्माण को बार-बार तोड़े जाने के कारण भी खर्च काफी बढ़ा. कैग ने इस पर भी सवाल उठाया था कि स्मारक स्थल पर लगाए गए पेड़ सामान्य से काफी अधिक दर पर खरीदे गए थे. इसके अलावा पर्यावरण नियमों के विपरीत 44.23 प्रतिशत भू-भाग पर पत्थर का काम किया गया था. दलितों और कमजोर वर्ग के प्रति कागजी समर्पण दिखाने वाली मायावती ने इन स्मारकों के शिलान्यास पर ही 4.25 करोड़ रुपए फूंक डाले थे. स्मारक घोटाले में अहम भूमिका निभाने वाली सरकारी निर्माण एजेंसी उत्तर प्रदेश निर्माण निगम पर मायावती सरकार की इतनी कृपादृष्टि थी कि 4558.01 करोड़ रुपए की वित्तीय स्वीकृति की औपचारिकता के पहले ही निर्माण निगम को 98.61 प्रतिशत धन आवंटित कर दिया गया था.

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