hospitalहमारे देश में हादसा होने के बाद ही सरकारें जगती हैं, सिस्टम तब एक्शन में नहीं आता जब उस हादसे से पहले किसी अनियमितता से जुड़ी रिपोर्ट सामने आती है. सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएं समय-समय पर हमारी व्यवस्था की खामी उजागर करने वाली रिपोट्‌र्स सार्वजनिक करती रहती हैं. लेकिन हमारी सरकार और व्यवस्था गलतियों से सीख लेने की जगह उनकी लीपापोती में जुट जाती है और यही कारण है कि हमें गोरखपुर जैसे हादसों का सामना करना पड़ता है. 2 महीने पहले भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने संसद में जो रिपोर्ट पेश की, उसमें स्वास्थ्य सेवाओं में हुई अनियमितता का भी जिक्र था. लेकिन सरकारी और सियासी हलकों में उसे लेकर कोई आवाज नहीं उठी.

इस रिपोर्ट में सीएजी ने 2011 से 2016 के दौरान राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के कार्यकलाप और खर्चों का ब्यौरा पेश किया है. इस रिपोर्ट में जो चौंकाने वाली बात है वो ये कि 27 राज्यों ने इस योजना के मद में दिए गए पैसे को खर्च ही नहीं किया. गौरतलब है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की स्वास्थ्य सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन बहुत महत्वपूर्ण योजना है. इस योजना के मद में 2011-12 में 7,375 करोड़ और 2015-16 में 9,509 करोड़ की राशि दी गई थी, जो ख़र्च ही नहीं हो सकी. सीएजी ने तो अपनी रिपोर्ट में ये भी कहा है कि देश के 20 राज्यों में स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़े 1285 प्रोजेक्ट कागज़ों पर चल रहे हैं. उनके नाम पर पैसों की उगाही हो रही है, लेकिन वे जमीन पर हैं ही नहीं.

सीएजी रिपोर्ट का ये खुलासा तो और भी चिंतनीय है कि 27 राज्यों के लगभग हर स्वास्थ्य केंद्र में 77 से 87 फीसदी डॉक्टरों की कमी है. हैरानी की बात ये है कि 13 राज्यों के 67 स्वास्थ्य केंद्रों में कोई डॉक्टर ही नहीं है. डॉक्टर और स्टाफ की कमी के कारण स्वास्थ्य उपकरण भी बेकार हो रहे हैं और मरीजों को उनका लाभ भी नहीं मिल रहा. सीएजी की रिपोर्ट कहती है कि 17 राज्यों में 30 करोड़ की लागत वाले अल्ट्रा साउंड मशीन, एक्स रे मशीन, ईसीजी मशीन जैसे कई उपकरणों का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा, क्योंकि उन्हें ऑपरेट करने वाले मेडिकल स्टाफ नहीं हैं. साथ ही ज्यादातर अस्पतालों में इन्हें रखने के लिए पर्याप्त जगह भी नहीं है, जिसके कारण ये बेकार पड़े-पड़े खराब हो रहे हैं. सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में कई अस्पतालों का जिक्र भी किया है.

रिपोर्ट के अनुसार, गुजरात के नडियाड जनरल अस्पताल में ऑपरेशन थियेटर तो है, लेकिन ऑपरेशन के पहले और बाद में मरीज़ को रखने के लिए कमरे नहीं हैं, साथ ही जगह की कमी के कारण लैब का काम भी मरीज़ों के वेटिंग एरिया में ही होता है. वहीं गोधरा के जनरल अस्पताल में मरीजों के लिए 440 बिस्तर की ज़रूरत है, लेकिन 210 बेड ही उपलब्ध हैं. नतीजतन सैकड़ों मरीज फर्श पर लेटे हुए इलाज कराते हैं. झारखंड में तो 17 प्राइमरी हेल्थ सेंटर बिना इमारत के ही चल रहे हैं. झारखंड के 5 ज़िला अस्पतालों में 32 स्पेशल ट्रीटमेंट सुविधाओं में से 6 से 14 सुविधाएं ही उपलब्ध हैं. केरल की 1100 से अधिक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर (सीएससी) और प्राइमरी हेल्थ सेंटर (पीएचसी) में से सिर्फ 23 में डिलीवरी की सुविधा है. बिहार की हालत तो और भी खराब है. यहां जननी सुरक्षा योजना के तहत 40 फीसदी योग्य महिलाओं को टीके ही नहीं दिए गए.

हमारे देश में आज भी औरतों और लड़कियों की एक बड़ी आबादी आयरन की कमी के कारण होने वाली एनिमिया से जूझ रही है. प्रसव के दौरान पचास फीसदी माएं एनिमिया से मर जाती हैं. इसके बाद भी हालत ये है कि प्राथमिक केंद्रों में महिलाओं को आयरन टैबलेट दी ही नहीं जा रही है. ये हाल किसी एक राज्य या शहर का नहीं है, पूरे देश की यही हालत है. सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया है कि एनएचआरएम सेंटर में गर्भवती महिलाओं को सौ फौलिक एसिड टेबलेट देनी होती है, लेकिन ऑडिट के दौरान 28 राज्यों में इसके वितरण में 3 से 75 फीसदी की कमी मिली. अरुणाचल, जम्मू-कश्मीर, मणिपुर और मेघालय में तो 50 फीसदी गर्भवती महिलाओं को टेटनस का टीका भी नहीं दिया जा सका है.

एक दूसरी रिपार्ट कहती है कि भारत में होने वाली 27 फीसदी मौत का कारण है, सही समय पर इलाज न मिलना. देश में सरकारी इलाज की सुविधा का आलम ये है कि यहां 61,011 लोगों पर एक अस्पताल, 1,833 मरीजों पर एक बेड और 1,700 मरीजों पर एक डाक्टर उपलब्ध है. ये आंकड़े बताते हैं कि देश की स्वास्थ्य सुविधा खुद ही आईसीयू में है. केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद सस्ते मेडिकल बीमा को लेकर खूब ढोल पिटा गया. जनता को भी लगने लगा था कि अब शायद उन्हें इलाज के अभाव में दम नहीं तोड़ना पड़ेगा. लेकिन हकीकत ये है कि 86 फीसदी ग्रामीण और 82 फीसदी शहरी आबादी के पास मेडिकल बीमा है ही नहीं.

आर्थिक विकास से लेकर सामरिक समृद्धि तक, हर क्षेत्र में हम अमेरिका से खुद की तुलना करते हैं, लेकिन इसपर कभी भी हमारा ध्यान नहीं जाता कि अमेरिका अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं पर जीडीपी का 8.3 फीसदी खर्च करता है, जबकि हम सिर्फ 1.4 फीसदी. ये सोचने वाली बात है कि हमारे देश में अस्पताल, बेड, डाक्टर, दवाई सभी के हालात त्रासदी दायका हैं, लेकिन फिर भी सरकार स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च क्यों नही करती. स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में दुनिया के 188 देशों की रैकिंग में भारत का नंबर 143वां है. इस स्वतंत्रता दिवस को प्रधानमंत्री जी ने लालकिले से ऐलान किया कि 2022 तक भारत न्यू इंडिया बन जाएगा, लेकिन सोचने वाली बात है कि जिसका स्वास्थ्य विभाग खुद आईसीयू में हो, वो बीमार भारत न्यू इंडिया कैसे बनेगा.

न आना इस देश में बच्चों…

ल़डकियों के प्रति सामाजिक उपेक्षा के भाव को देखते हुए किसी ने ये नारा गढ़ा था कि ‘न आना इस देश में लाडो’, लेकिन हम बात कर रहे हैं, व्यवस्था के उस उपेक्षा की, जो लड़कों और लड़कियों दोनों के लिए समान रूप से है. ये वो उपेक्षा है, जो हमारे देश में जन्म लेने वाले 7,30,000 बच्चों को जन्म के एक महीने के भीतर ही मरने पर मजबूर कर देती है. ये वो उपेक्षा है, जो 10,50,000 बच्चों को पहला जन्मदिन भी नहीं मनाने देती. यही उपेक्षा हमें भी ये कहने पर मजबूर करती है कि ‘न आना इस देश में बच्चों.’  हमारे ये कहने के पिछे का दर्द ये है कि भारत में जन्म लेने वाले 40 फीसदी बच्चे 5 साल की उम्र पूरा करने से पहले मर जाते हैं. ऐसे बच्चों की संख्या 2,91,288 है, जो अपना पांचवा जन्मदिन भी नहीं मना पाते. वहीं 14 वर्ष के 4,31,560 बच्चों की मौत हर साल होती है.

2016 में ही निमोनिया और डायरिया से 2,96,279 बच्चों की मौत हो गई. ये सभी आंकड़े वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) के हैं. आजादी के 70 साल बाद भी अगर निमोनिया और डायरिया से हर साल लाखों बच्चे मर रहे हैं, तो ये भारत जैसे देश के लिए शर्मिंदगी की बात है. शर्म करने वाली बात तो ये भी है कि बम-गोला-बारूद के मामले में अग्रणी देशों की सूची में शामिल होने के लिए अथक प्रयास कर रहा हमारा देश बच्चों की एक बड़ी आबादी की भूख मिटा पाने में भी असमर्थ है.

डब्ल्यूएचओ की ही रिपोर्ट कहती है कि भूखे बच्चो की तादाद में 118 देशों की सूची में भारत का स्थान 97 वां है. यानि हम नीचे से 21वे नम्बर पर हैं. ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जब हम अपने बच्चों को खाना नहीं खिला सकते, तो फिर स्वस्थ कैसे रख सकते हैं. वर्तमान समय में जबकि हमारी सरकार के लिए देश की अंदरूनी स्थिति नहीं, बल्कि वैश्विक संस्थाओं की रिपोर्ट मायने रखती है, इस समय डब्ल्यूएचओ की ये रिपोट्‌र्स सरकार के लिए शर्मिंदगी की बात हैै.

डब्ल्यूएचओ की ही रिपोर्ट बताती है कि भारत में अभी 39 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. 6 साल तक के 2 करोड़ 30 लाख बच्चे कुपोषित हैं, जिनका शारीरिक विकास रुक गया है. कुपोषण जनित बीमारियों के कारण हर साल लगभग 10 लाख बच्चे दम तोड़ देते हैं. इतना ही नहीं, गंदे पानी के कारण होने वाली बीमारियों से हर साल करीब 15 लाख बच्चे मर जाते हैं. हद तो ये है कि वायु प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों से हर वर्ष जो 10 लाख लोग मरते हैं, उनमें से आधे बच्चे होते हैं.

देश में हर वर्ष 12 लाख से ज्यादा बच्चे ऐसी बीमारियों से मर जाते हैं, जिनका इलाज संभव है. लेकिन अफसोस कि वो साधारण इलाज भी भारत में संभव नहीं है. जहां सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य कें्रद्र तक पहुंचने के लिए भी सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती हो, जहां शहरों में भी एम्बुलेंस की सुविधा उपलब्ध नहीं हो और जहां गार्ड ही कम्पाउंडर का काम करे, वहां हम कैसे स्वास्थ्य सुविधाओं की बेहतरी की आशा कर सकते हैं.

शिशु मृत्य दर के मामले में भारत का हाल इतना खराब है कि प्रति हजार बच्चों में से 37 बच्चे पैदा होते ही मौत के मुंह में चले जाते हैं, वहीं मातृ मृत्यु दर अभी भी 167 है. ये हाल तब है, जबकि इनमें कमी आई है. 21 मार्च 2017 को राज्यसभा में ये आंकड़े गिनाते हुए स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्‌डा ने इसे बड़ी उपलब्धि बताया था, जबकि सरकार के लिए ये एक बड़ी चिंता की बात होनी चाहिए. गौरतलब है कि जो शिशु मृत्यु दर हमारे देश में 37 है, वो विकसित देशों में 5 से भी कम है.

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