उद्योगपतियों को मुनाफा कमाने के लिए जमीन चाहिए. शहर में जमीन है नहीं, उनकी नजर अब आदिवासियों की जमीन पर है. यहां भू-गर्भ में छिपे खनिज संपदाओं का दोहन अभी तक नहीं हुआ है. विकास लाना है, तो किसी न किसी को तो विनाश की मार झेलनी ही पड़ेगी. सरकारी अमला सोचता है कि आदिवासियों की जमीन छीन लो, तो वे विरोध-प्रदर्शन भी नहीं करेंगे और करेंगे भी तो सुनेगा कौन? इसलिए आज निशाने पर आदिवासी और किसान हैं, कल किसी और की बारी है..

power plantगोड्‌डा में सत्याग्रह स्थल पर हाथों में माइक लेकर महिलाएं कोई अंगिका गीत गा रही हैं. गीत के बोल हैं-जान मोरा जइतय अडानी, जइतय मोरा परनवां, नहियैं छोड़बय हे अडानी गायघाट अंगनमा. सत्याग्रह स्थल पर हजारों महिलाएं, बच्चे, ब़ूढे और जवान गीत के बोल पर झूम रहे हैं. कुछ बच्चे हाथ में काला झंडा लहराकर अडानी वापस जाओ का नारा लगा रहे हैं. आपको आश्चर्य होगा, लेकिन यहां खेतों में काम करने वाली महिलाएं हों, बच्चे, अनपढ़ जवान या फिर मजदूर सभी अडानी के नाम से बखूबी वाकिफ हैं.

विश्वास न हो तो आप किसी भी नंग-धड़ंग घूमते बच्चे से पूछ लीजिए. वह बता देगा कि यही अडानी हमारी जमीन, हमारा घर छीनने आ रहा है. एक बार विरोध की आवाज गूंजती है, तो अचानक कई गांवों, घरों से हजारों महिलाएं, बच्चे, जवान, मजदूर, आदिवासी सड़कों पर निकल पड़ते हैं. जुलूस को देखकर ऐसा लगता है मानो अडानी विरोधी आंदोलन का नेतृत्व अब महिलाओं ने संभाल लिया है. जुलूस में महिलाओं के एक हाथ में लाठी, काला झंडा तो दूसरे हाथ में दरांती, हंसुली जरूर दिख जाएंगे. यहां तक कि छोटे-छोटे आदिवासी बच्चे भी सड़कों पर लाठी लेकर काफी संख्या में विरोध-प्रदर्शन करते दिखेंगे.

जंगल छिन गया, तो कहां जाएंगे आदिवासी

गोड्‌डा के आदिवासियों को डर सता रहा है कि अगर उनकी जमीन छिन गई, तो फिर वे क्या करेंगे? यह जमीन सिंचित और बहुफसली है. जमीन ही आदिवासियों का जीवन, उनकी संस्कृति या यूं कहें कि पहचान है. उद्योगपतियों की नजर उनकी जमीन और भू-गर्भ में छिपे खनिज-संपदाओं पर है. सरकार तर्क दे रही है कि अगर विकास चाहिए तो आदिवासियों को जमीन का मोह छोड़ना होगा. जमीन पर उद्योग-धंधे लगेंगे, तो स्थानीय इलाकों का तेजी से विकास होगा. यहां तो यह दलील भी थोथी साबित हो रही है. गोड्‌डा में अडानी 1600 मेगावॉट बिजली का उत्पादन करने के लिए एक हजार एकड़ से अधिक जमीन पर थर्मल पावर प्रोजेक्ट लगाना चाहते हैं. झारखंड सरकार ने जून 2015 में एक एमओयू साइन किया था.

मेक इन इंडिया के तहत यह प्रोजेक्ट स्थापित होगा, लेकिन यहां की बिजली झारखंड सरकार को नहीं, बल्कि बांग्लादेश को दी जाएगी. हालांकि स्थानीय विरोध के बाद अडानी की कंपनी राज्य सरकार को 25 प्रतिशत बिजली देने पर राजी हुई. जल, जंगल, जमीन छिनेगा आदिवासियों का, प्रदूषण की मार झेलेंगे आदिवासी, मुनाफा कमाएंगे अडानी और बिजली सप्लाई होगी बांग्लादेश को. यही गणित भोले-भाले आदिवासियों को समझ नहीं आ रही है. एक-दो नहीं, बल्कि सैकड़ों गांव इस प्रोजेक्ट की भेंट चढ़ जाएंगे. इस पर बालिया कित्ता गांव की विद्या देवी कहती हैं, अगर सरकार स्कूल, कॉलेज, रेलवे या अस्पताल के लिए जमीन मांगती, तो हम जरूर दे देते, लेकिन अडानी के पावर प्लांट को नहीं देंगे. चाहे इसके लिए हमारी जान ही क्यों न चली जाए?

पीला कार्ड से एंट्री सरकारी कार्ड अमान्य  

अडानी को जमीन देने के लिए जनसुनवाई हुई थी. इसमें शामिल होने के लिए कुछ ग्रामीणों को पीला कार्ड दिया गया था. अब इस जनसुनवाई की हकीकत भी जान लीजिए. बालिया कित्ता गांव के ही रविंदर महतो बंटाई पर खेती करते हैं. वे कहते हैं कि हमें मीटिंग में नहीं जाने दिया गया. हमारे पास वोटर कार्ड और आधार कार्ड भी था, लेकिन कहा गया कि बिना पीला कार्ड के नहीं जाने देंगे. अब पीला कार्ड की सच्चाई भी जान लेते हैं. एक युवा नाम नहीं बताने की शर्त पर कहता है, हमारा आस-पास के गांव में एक धुर जमीन भी नहीं है, पर जनसुनवाई में आने के लिए हमें पैसे दिए गए. पीला कार्ड मिलने के बाद हम जनसुनवाई में गए और अधिकारियों के कहे अनुसार किया.

ग्रामीण अनिल मंडल कहते हैं, जब आधार कार्ड और वोटर कार्ड भी नहीं मान रहे हैं, तो कल अडानी हमें मुआवजा क्या देगा? मुआवजा सिर्फ उनको मिलेगा, जिनके नाम पर जमीन होगी. उनका क्या, जो जमीन मालिकों का खेत जोतते हैं. पोड़ैयाहाट विधायक प्रदीप यादव कहते हैं, जनसुनवाई के लिए पीला कार्ड जारी करने की इजाजत किसने दी? क्या यह लीगल है? इस कार्ड पर किसी अधिकारी का हस्ताक्षर नहीं है और न ही कोई सरकारी मुहर. छह दिसंबर 2016 को हुई जनसुनवाई फर्जी थी. इसे रद्द किया जाना चाहिए. अगर जनसुनवाई होनी है तो खुले मैदान में हो, जहां सभी गांवों के लोगों को बुलाया जाए. जनसुनवाई के लिए कंपनी के अधिकारियों को डोर टू डोर जाना था. रैयतों से जमीन लेने के लिए सीधे बात करनी थी. क्या कभी इन गांवों में कंपनी का कोई प्रतिनिधि आया?

प्रदीप यादव कहते हैं, हम सरकार को दिसंबर तक का समय देते हैं. तब तक हम देखेंगे कि सरकार रैयतों के हित में फैसले लेती है या नहीं. अगर ऐसा नहीं हुआ तो हम अनिश्चितकालीन अनशन करेंगे. वहीं प्रदीप यादव के सहयोगी अनिल आर्या कहते हैं कि भू-अधिग्रहण के लिए 80 प्रतिशत रैयतों की सहमति जरूरी है. अपने लोगों को पीला कार्ड जारी कर जनसुनवाई करा कर रैयतों की सहमति भी दिखा दी गई. अडानी का साथ केवल वही लोग दे रहे हैं, जो शहरों में बसे हैं और जिन्हें जमीन से कोई मतलब नहीं है. जबकि 600 रैयतों ने शपथ पत्र देकर कहा था कि वे अपनी जमीन नहीं देना चाहते हैं.

अडानी कंपनी के एक अधिकारी प्रभाकर झा ने बताया कि जीतपुर कोल ब्लॉक आवंटित होने के कारण इस परियोजना को गुजरात के कच्छ के मुंद्रा से यहां लगाने की योजना बनाई गई. फिलहाल पुराने हिसाब से भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के तहत प्रति एकड़ 14 लाख रुपए रैयतों को दिए जाएंगे. इस पर अनिल आर्या कहते हैं कि यहां 2014 में जमीन की कीमत 41 लाख रुपए प्रति एकड़ थी, जिसे 2015 में अडानी को फायदा पहुंचाने के लिए 3.25 लाख रुपए प्रति एकड़ कर दिया गया. इस हिसाब से प्रति एकड़ डेढ़ करोड़ रुपए से ज्यादा अडानी कंपनी को फायदा पहुंचाया गया.

गोड्‌डा समाहरणालय के समक्ष जनसुनवाई रद्द करने की मांग को लेकर हाल में विशाल प्रदर्शन हुआ था. जमीन बचाओ, किसानी बचाओ संघर्ष समिति के बैनर तले रैली निकाली गई. हाथों में बैनर व तख्ती लिए हजारों आदिवासी नारे लगाते हुए रैयत समाहरणालय परिसर पहुंचे. प्रदर्शनकारियों ने डीसी से भूमि अधिग्रहण कानून 2013 का पालन कराने की मांग की. प्रदीप यादव ने कहा कि कुछ बिचौलिए जबरन रैयतों की जमीन अडानी के पास बेचने का काम कर रहे हैं, लेकिन प्रभावित गांवों के रैयत अपनी मांगों से पीछे नहीं हटेंगे. कंपनी के लोग जबरन जमीन हथियाना चाहते हैं. जांच रिपोर्ट आने तक अधिग्रहण की प्रक्रिया रोक देनी चाहिए. वहीं पूर्व विधायक प्रशांत कुमार इसे जेवीएम की रैली बताते हैं.

वे कहते हैं कि पा़ेडैयाहाट विधायक भयभीत हो गए हैं. उन्होंने विधानसभा व जिला प्रशासन को गुमराह करने का काम किया है. गायघाट में सत्याग्रह स्थल के पास समरूआ व सोनडीहा आदि गांवों में जिला प्रशासन की टीम अधिग्रहण के लिए जमीन की मापी करने गई थी. इन लोगों के खेतों में उतरने की सूचना मिलते ही ग्रामीण आक्रोशित हो गए. सैकड़ों ग्रामीण पारंपरिक हथियार के साथ मौके पर पहुंचे और अडानी, जिला प्रशासन व पुलिस पदाधिकारियों की टीम को खदेड़ दिया. इस दौरान उन्होंने चिन्हित भूमि की रेखा को भी मिटा दिया.  मोतिया से बक्सरा तक निकाली गई महारैली में महिलाओं व बच्चों ने ‘अडानी वापस जाओ’ का नारा बुलंद किया.

मुफस्सिल थाना क्षेत्र के मोतिया हाई स्कूल में 5 मार्च को पर्यावरण जनसुनवाई रखी गई थी. इस दौरान जनसुनवाई स्थल पुलिस छावनी में बदल दी गई थी. जिला प्रशासन, अडानी कंपनी के कुछ पदाधिकारी और पर्यावरण मंत्रालय, दिल्ली से आए कुछ अधिकारी भी उपस्थित थे. पर्यावरण जनसुनवाई में करीब 8 हजार ग्रामीण पहुंचे थे. अचानक हंगामा शुरू हो गया. पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर जमकर लाठियां भांजी और आंसू गैस के गोले छोड़े. रैयतों को भड़काने का आरोप लगाकर प्रदीप यादव को भी 22 अप्रैल को गिरफ्‌तार कर लिया गया है. प्रदीप यादव के सहयोगी अनिल आर्या ने बताया कि प्रदीप यादव कई दिनों से आमरण अनशन पर थे. जेल में उनका उपवास जबरन तुड़वाया गया, लेकिन काफी कमजोर हो जाने के कारण वे अभी रिम्स में इलाज करा रहे हैं.

पूंजीपति मुनाफे के लिए अपनी लूट जारी रखे हैं. इनके इशारे पर ही सरकार अपने अमलों को आदिवासियों के शोषण और विस्थापित करने की छूट देती है. वहीं सरकारी कारिंदे सरकार का हुक्म बजाने में मानवाधिकार उल्लंघन की सभी सीमाएं लांघ जाते हैं. नक्सलवाद की जड़ भी आदिवासियों के इसी आक्रोश में छिपा है. इसे हवा देकर ही नक्सली आदिवासी गांवों में अपने पैर जमा रहे हैं. ऐसे में क्या अब सरकार से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्यों पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए आदिवासियों और पुलिस को आपस में भिड़ाया जा रहा है. विकास तो हो, लेकिन आदिवासियों के विस्थापन और विनाश की शर्त पर नहीं, क्या यह सरकार तय करेगी.

ऊर्जा सचिव पर था दबाव, छुट्‌टी पर गए

झारखंड के ऊर्जा सचिव एसके रहाते पर जब पावर प्रोजेक्ट को फायदा पहुंचाने के लिए दबाव डाला गया, तब वे लंबी छुट्‌टी पर चले गए. ऊर्जा मंत्रालय अभी मुख्यमंत्री रघुबर दास के पास है. सचिव से कहा गया था कि अडानी पावर और सरकार के बीच एमओयू में कुछ परिवर्तन किया जाए. ऊर्जा मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि अडानी पावर कंपनी एमओयू के शर्तों में कुछ परिवर्तन करना चाहती थी. रहाते कुछ हद तक शर्तों में परिवर्तन के लिए तैयार थे, लेकिन सभी शर्तों को मानने के लिए राजी नहीं हुए. नियम के अनुसार कोई कंपनी जो पावर प्रोजेक्ट लगाती है, उसे अपने उत्पादन की 25 प्रतिशत बिजली राज्य सरकार को देनी होती है. इसके अनुसार नियामक इकाई द्वारा तय कीमत पर पावर कंपनी राज्य सरकार को बिजली देगी और उत्पादन के एक हिस्से की कीमत कंपनी खुद तय करेगी. इतना ही नहीं, अडानी पावर यह भी चाहती थी कि राज्य सरकार को 25 प्रतिशत बिजली इस प्रोजेक्ट के अलावा किसी अन्य सोर्स से उपलब्ध कराया जाए. रहाते तमाम शर्तों को मानने के लिए तैयार थे, लेकिन वे कंपनी द्वारा बिजली की कीमत तय किए जाने पर अड़ गए.

अंधेरे में झारखंड, रौशन होगा बांग्लादेश 

गौतम अडानी झारखंड के गोड्‌डा में एक पावर प्लांट लगाना चाहते हैं. इसमें पैदा होने वाली 1600 मेगावाट बिजली बांग्लादेश को बेची जाएगी. इसके लिए अडानी और बांग्लादेश बिजली बोर्ड के बीच जून 2015 में समझौता हुआ है. उस दौरान नरेंद्र मोदी ढाका यात्रा पर गए थे. स्थानीय समाजसेवक रामप्रसाद कहते हैं कि इस प्लांट से उत्पादित बिजली बांग्लादेश को बेचा जाएगा. अडानी को उत्पादित बिजली की बांग्लादेश में ज्यादा कीमत मिलेगी. यहां का पानी, यहां का कोयला,  जमीन हमारी, प्रदूषण की मार झेलें हम और मुनाफा कमाए अडानी.

यह नहीं चलेगा.  यहां से कम से कम एक साल में 2100 करोड़ रुपए का मुनाफा अडानी को होगा. विपक्ष का आरोप है कि इस पावर प्लांट से झारखंड को धुआं और विस्थापन के अलावा कुछ नहीं मिलेगा. झाविमो के महासचिव बंधु तिर्की ने कहा है कि अब यह आंदोलन संथाल तक ही सीमित न रहकर पूरे राज्य का बनेगा. सरकार की गलत नीतियों का विरोध कर रहे अन्य संगठनों को भी इस आंदोलन से जोड़ा जाएगा. उन्होंने कहा कि प्रस्तावित पावर प्लांट की जद में 273 गांवों की 3.25 लाख आबादी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आ रही है. ऐसे में सरकार को अडाणी पावर के मामले में पुनर्विचार करना चाहिए व भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया की न्यायिक जांच करानी चाहिए.

 

यह आदिवासियों पर थोपा गया युद्ध है

नियमतः आदिवासियों की ज़मीन सरकार बिना आदिवासियों की ग्राम सभा की अनुमति के नहीं ले सकती है. संविधान की पांचवीं सूची और छठवीं अनुसूची ने आदिवासियों को उन इलाकों की सारी भूमि का मालिक बनाया है. संथाल परगना टेनेंसी एक्ट के अनुसार, इस इलाके की जमीन को न तो बेचा जा सकता है और न ही  इसका हस्तांतरण किया जा सकता है, चाहे वह आदिवासियों की जमीन हो या गैर आदिवासियों की. लेकिन विकास का मॉडल दूसरे की ज़मीन छीन कर ही चल सकता है.  सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद भी एक तरह से आर्थिक वर्चस्व की ही लड़ाई हैं. ताकतवर आबादी कमज़ोर आबादी को दबाने के लिए प्रशासनिक अमले का इस्तेमाल करती है. भगत सिंह ने कहा था कि जब तक लोगों की मेहनत और उनकी जमीनों को लूटने वाले हैं, तब तक लड़ाई जारी रहेगी.

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