तसलीमा कुछ कहें और सेक्स और महिला अधिकार न हो, यह तो मुमकिन ही नहीं है, क्योंकि सेक्स और सेक्सुअल ऐक्ट तसलीमा के प्रिय विषय हैं और इन विषयों को वह जहां और जब मौक़ा मिलता है, फ़ौरन पेश कर देती हैं. आख़िर वह विवादास्पद बयान क्यों देती हैं?
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तसलीमा कुछ कहें और सेक्स और महिला अधिकार न हो, यह तो मुमकिन ही नहीं है, क्योंकि सेक्स और सेक्सुअल ऐक्ट तसलीमा के प्रिय विषय हैं और इन विषयों को वह जहां और जब मौक़ा मिलता है, फ़ौरन पेश कर देती हैं. आख़िर वह विवादास्पद बयान क्यों देती हैं?
हिंदी साहित्य में लंबे समय से इस बात पर लगातार विलाप किया जाता रहा है कि साहित्य के पाठक घट रहे हैं. मेरे एक मित्र का कहना है कि जब भी किसी साहित्यिक पत्रिका में उनकी कोई कहानी छपती है, तो ऐसे में स़िर्फ बुज़ुर्गों की प्रतिक्रिया मिलती है. शायद उनका यही मानना है कि हिंदी साहित्य स़िर्फ बूढ़े और साठ पार के लोग पढ़ते हैं. और अगर सचमुच ऐसा है, तो यह बेहद चिंता की बात है. दरअसल, हमारा देश युवाओं का है और अगर हिंदी साहित्य को लेकर हमारा युवा उदासीन है, तो ऐसी स्थिति में हमें गंभीरता से इस विषय पर विचार करना ही होगा. सच तो यह है कि न केवल सरकार को, बल्कि ग़ैर सरकारी संगठनों को भी युवाओं को हिंदी साहित्य की ओर प्रेरित करने के लिए क़दम उठाने ही होंगे. दरअसल, संयुक्त प्रयास से ही स्वीकार्यता और लोकप्रियता दोनों बढ़ेगी.
हिंदी साहित्य के लिए इस निराशाजनक माहौल में वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली के अरुण माहेश्‍वरी ने साहस दिखाते हुए युवा और कहानी संग्रह छपने के पहले ही ग़ैर साहित्यिक वजहों से चर्चित लेखिका ज्योति कुमारी के कहानी संग्रह दस्तखत और अन्य कहानियों को हिंदी के युवा लेखकों के बीच का बेस्ट सेलर घोषित कर दिया. दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक छोटे, लेकिन गरिमामय समारोह में अरुण जी ने इस बात का ऐलान किया. उनका दावा है कि स़िर्फ दो महीने में इस कृति की एक हज़ार प्रतियां बिक गईं. उन्होंने इस बात को भी साफ़ किया कि यह सरकारी थोक ख़रीद नहीं, बल्कि व्यक्तिगत पाठकों द्वारा ख़रीदी गई हैं. यह एक ऐसे व़क्तमें हुआ है, जब प्रकाशकों पर किताबों की बिक्री के आंकड़ों को छुपाने और रॉयल्टी नहीं देने के संगीन इल्ज़ाम लग रहे हैं. अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या इसे हिंदी साहित्यिक प्रकाशन जगत में शुभ संकेत माना जाना चाहिए. हालांकि इस बात का जवाब आने वाले दिनों में मिलने की उम्मीद है. लेकिन सवाल यह है कि एक हज़ार प्रतियों पर बेस्ट सेलर हो जाना, क्या शर्मिंदगी का सबब नहीं है. साठ करोड़ से ज़्यादा हिंदी भाषी के देश में यह संख्या कहां है, इसका अंदाज़ा पाठक लगा सकते हैं. दरअसल, हिंदी में बेस्ट सेलर की कोई परंपरा रही नहीं है और न ही इसको बनाने की कोशिश कभी की गई है. यह तो हम सभी जानते ही हैं कि बेस्ट सेलर की सूची कोई पत्रिका या फिर कोई अख़बार ही बनाता है. हक़ीक़त में, बेस्ट सेलर की अवधारणा तक़रीबन सवा सौ साल पुरानी है. आइए बता दें कि इसकी शुरुआत कैसे हुई.
सबसे पहले अमेरिका के न्यूयॉर्क से निकलने वाली पत्रिका द बुकमैन ने 1895 में अमेरिका के प्रमुख प्रकाशकों से बात करके एक सूची तैयार की थी. वह सूची लोगों ने काफ़ी पसंद की. नतीजा यह हुआ कि अमेरिका की पत्र पत्रिकाओं ने उसकी ही तर्ज़ पर बेस्ट सेलर की सूची छापनी प्रारंभ कर दी. लेकिन हिंदी में किसी भी पत्र-पत्रिका ने यह साहस नहीं दिखाया या यह कहें कि कोई पहल नहीं हुई, लिहाज़ा हिंदी में बेस्ट सेलर की अवधारणा का विकास ही नहीं हो पाया. 1994 में अवध नारायण मुद्गल के संपादन में छाया मयूर में एक सूची प्रकाशित हुई थी, लेकिन पत्रिका का दूसरा अंक नहीं निकल सका और इसीलिए यह सूची आगे ही नहीं बढ़ सकी. ज्योति कुमारी के संग्रह पर पाठकों के रेस्पांस को लेकर प्रकाशक अरुण माहेश्‍वरी उत्साहित हैं और उन्हें लगता है कि अगर लेखक और प्रकाशक मिलकर काम करें, तो यह काम और भी आसान हो सकता है. समारोह में मौजूद नामवर जी ने भी लेखिका को प्रकाशक नहीं बदलने की सलाह दी.
इस कार्यक्रम में मशहूर, विवादास्पद और आजकल ट्विटर पर अजीबोग़रीब ट्वीट कर चर्चा में बनी रहने वाली लेखिका तसलीमा नसरीन भी पधारी थीं. तसलीमा कुछ कहें और सेक्स और महिला अधिकार न हो, यह तो मुमकिन ही नहीं है. लेकिन उत्साह में उन्होंने घालमेल कर दिया. पहले तो उन्होंने यह कहा कि महिलाओं को पुरुषों की तुलना में लिखने का व़क्तकम मिलता है. तसलीमा के मुताबिक़, महिलाओं को घर के भी काम करने पड़ते हैं, इसलिए उनके पास लेखन के लिए पुरुषों की अपेक्षा कम व़क्तहोता है. तसलीमा का यह तर्क न केवल बेहद हास्यास्पद लगा, बल्कि लचर भी. क्योंकि ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या पुरुषों को घर के बाहर के काम नहीं करने पड़ते हैं. तसलीमा ने साहित्य जगत में महिलाओं की बराबरी की वकालत की. लेकिन तसलीमा नसरीन ने इस बारे में कुछ नहीं कहा कि महिलाओं को साहित्य में बराबरी का दर्जा कैसे मिले. दरअसल, तसलीमा की दिक्कत ही यही है कि वह कुछ घिसे-पिटे जुमलों के आधार पर अपनी दुकानदारी चलाती हैं. जिस उपन्यास लज्जा से उन्हें शोहरत और पहचान मिली, वह भी उपन्यास न होकर अख़बारी रिपोर्ट है. लेकिन तसलीमा इस कला में पारंगत हैं कि किस तरह से किसी कृति को या अपनी उपस्थिति को चर्चित या विवादास्पद बनाया जा सके. चाहे वह लज्जा हो या फिर उनकी आत्मकथा, जिसे साहित्य अकादमी के दिवंगत अध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय पर यौन शोषण का आरोप लगाकर सनसनीख़ेज़ बनाया गया. बिक्री भी हुई और विवाद भी हुआ. उस दिन भी तसलीमा ने बोलते बोलते कह दिया कि वूमेन शुड नॉट बी मेड सेक्स ऑब्जेक्ट. ज़ाहिर तौर पर वह यह बात साहित्य के संदर्भ में कह रही थीं. लेकिन यहां भी उन्होंने सामान्यीकरण करते हुए यह बात कही और आगे निकल गईं. तसलीमा को यह बात साफ़ करनी चाहिए थी कि किस भाषा में, किस साहित्य में महिलाओं को सेक्स ऑब्जेक्ट बनाया और समझा जाता है. मुझे दरअसल, यह लगता है कि हिंदी की कई लेखिकाओं पर गाहे-बगाहे यह आरोप लगते रहते हैं कि वे ग़ैर साहित्यिक वजहों और द्वंद्व-फंद की वजह से साहित्य के केंद्र में बनी रहती हैं. पुरस्कार से लेकर तमाम सम्मान हासिल करती हैं. अपना इस्तेमाल करते हुए प्रसिद्धि पाती हैं. हो सकता है कि इसमें सच्चाई नहीं हो, लेकिन कई प्रतिभाहीन लेखिकाएं जिस तरह से हिंदी जगत में छाती चली जा रही हैं, उससे यह शक और गहराता है. लेकिन यह प्रवृत्ति स़िर्फ साहित्य में नहीं है, क्योंकि इस तरह की प्रवृत्ति साहित्य के अलावा, समाज के तक़रीबन हर क्षेत्र में देखने को मिलती है, चाहे वह राजनीति हो, फिल्म हो या फिर शिक्षा का क्षेत्र हो! सेक्स और सेक्सुअल एक्ट तसलीमा के प्रिय विषय हैं और इन विषयों को वह जहां और जब मौक़ा मिलता है, फ़ौरन पेश कर देती हैं. तसलीमा को अब मैच्योर लेखक की तरह व्यवहार करना चाहिए, लेकिन लंबे समय से निर्वासन और देश निकाले का दंश झेलने की वजह से उनकी मन:स्थिति को समझा जा सकता है. सेक्स जीवन का अनिवार्य तत्व ज़रूर है, लेकिन हर चीज़ के पीछे स़िर्फ सेक्स ही हो, यह कहना उचित नहीं होगा.

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