जिस  दिन कर्नाटक विधानसभा चुनाव का परिणाम आया और कांग्रेस को जीत हासिल हुई, उसी दिन संसद स्थगित कर दी गई. उस दिन का सेकेंड हॉफ बहुत खराब रहा, क्योंकि कार्यपालिका ने अपना सम्मान खो दिया. भारत में इस समय न तो वैधानिक कार्यपालिका है और न ही काम करने वाली विधायिका. न्यायपालिका ने कांग्रेस के बारे में जो टिप्पणी की है, वह कार्यपालिका के बारे में सही जानकारी देती है. उसी तरह भाजपा ने संसद की कार्रवाई रोकने में जो भूमिका निभाई, वह विधायिका की कार्यक्षमता दर्शाती है. केवल न्यायपालिका ही ऐसी संस्था है, जिस पर लोगों का विश्‍वास है और संविधान को स्वीकार करते समय जिस तरह की उम्मीद उससे की गई थी, वह उस पर अभी खरी उतर रही है. राजनीतिक दल आजकल न्यायालय की बातों पर भी ध्यान नहीं देते हैं. एक मंत्री मीडिया के सामने यह कहते हुए दिखाई पड़े कि कांग्रेस जनता की अदालत में जीत गई. उनके लिए केवल यही बात मायने रखती है कि चुनाव में उनकी स्थिति कैसी रहती है. देश के संविधान द्वारा बनाई गई न्यायपालिका की उन लोगों द्वारा उपेक्षा की जा सकती है, जो यह सोचते हैं कि पांच सालों में होने वाले चुनाव उन्हें अत्यधिक ताकत दे देते हैं.
वैसे, कांग्रेस इसे पहले से ही मानती रही है. इंदिरा गांधी ने बहुमत का सिद्धांत प्रतिपादित किया था. उनका मानना था कि चुनावी विजय सरकार को असीमित ताकत देती है, जिसके बाद संविधान को भी उसी तरह बदला जा सकता है, जैसा कि सरकार चाहती है. उन्होंने यह दिखा और समझा भी दिया कि ऐसा कैसे किया जा सकता है. भारत कभी भी उस झटके से उबर नहीं पाया है. दरअसल, कांग्रेस जब-जब सरकार में आती है, आपातकाल आता है. हालांकि यह आपातकाल दूसरे तरीके का होता है, लेकिन होता आपातकाल ही है. इसका मतलब यह नहीं कि विपक्ष की स्थिति इससे बेहतर है. वह तो एक कार्यकाल से ज़्यादा सत्ता में रह ही नहीं पाया. सत्ता में आने पर किस तरह का व्यवहार किया जाए, इसे लेकर दोनों की स्थिति एक जैसी ही है. इसलिए हम लोग अगले बारह महीनों तक इसी तरह से रहेंगे, जब तक कि अगला चुनाव यह निर्णय नहीं कर देता है कि सत्ता किसके हाथ में होगी, जिन्होंने संविधान का उल्लंघन किया है या फिर कोई दूसरा, जो अभी उभर रहा है. कौन जीतेगा, यह प्रश्‍न अगले बारह महीनों तक सभी के मन में हलचल पैदा करता रहेगा.
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम ने इस मुद्दे पर बहुत हल्का प्रकाश डाला है. भाजपा ने तीन राज्यों यानी हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड एवं कर्नाटक में हार का सामना किया है. हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में उसकी हार का अंतर कम था, लेकिन कर्नाटक में हार का अंतर बहुत बड़ा रहा. कर्नाटक में कांग्रेस को येदियुरप्पा का फ़ायदा मिला, जिनके कारण भाजपा के वोट कटे और फर्स्ट पास्ट द पोस्ट वोटिंग सिस्टम का फ़ायदा कांग्रेस को मिला. इसलिए इन चुनावों से 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव के परिणाम का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. अगर अनुमान लगाने की कोशिश करें, तो वह इस तरह लगाया जा सकता है. जैसे मान लें कि भाजपा तीसरी बार पराजित होती है और किसी भी बड़ी पार्टी को 150 से अधिक सीटें नहीं मिलती हैं और ऐसे में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बन जाती है. आगे यह अनुमान लगाएं कि कांग्रेस को 110-120 सीटें मिलती हैं और भाजपा को 130-140 सीटें. कर्नाटक के चुनाव में जनता दल (एस) की स्थिति अच्छी रही. इसके अलावा, बहुत कम ही राज्य हैं, जहां दोनों में से किसी भी बड़ी पार्टी की स्थिति बेहतर हो.
परिसंघीय ढांचे का विचार पहले से अधिक मज़बूत हो गया है. भारत अपने आपको बहुराष्ट्रीय राष्ट्र की तरह प्रदर्शित कर रहा है, जो कांट्रैक्ट के आधार पर एक-दूसरे के साथ हैं और इसके लिए चुनावी लोकतंत्र को धन्यवाद देना चाहिए. इन तथ्यों के आधार पर देखा जाए, तो राज्यस्तरीय दलों के पास ही निर्णायक ताकत होगी. 1977-80 में जनता पार्टी का विभाजन लोकतांत्रिक राजनीति के लिए वास्तविक त्रासदी थी. उसने कांग्रेस को फ़ायदा पहुंचाया और उसकी व्यक्ति आधारित राजनीति को बढ़ावा दिया. जब 1989 में कांग्रेस की पराजय हुई थी, तो कोई अकेला विकल्प देश के पास नहीं था. उसके बाद भारतीय जनता पार्टी के पास विकल्प बनने का अच्छा मौक़ा था. उसके पास आज भी मौक़ा है, लेकिन अगर वह नरेंद्र मोदी के मुद्दे पर उलझी रहती है, तो यह मौक़ा उसे नहीं मिलने वाला है. एक और विकल्प तीसरे मोर्चे का है, जिसमें दोनों में से कोई बड़ा दल उसे बाहर से समर्थन करेगा. हालांकि यह विकल्प पहले विफल हो चुका है, लेकिन इससे क्या? अगर भारत में बदलाव आता है, तो फिर यह विकल्प भी मौजूद है.

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