anaभारत को जनतंत्र बने हुए 64 साल हो गए. लेकिन जनतंत्र कहां है? मुझे तो दिखाई नहीं देता. इतने सालों में देश के लोगों को हम साफ़ पानी तक नहीं दे पाए हैं. स्वास्थ सेवाएं नहीं दे सके. शिक्षा नहीं दे सके. घर नहीं, रोजी-रोटी नहीं. हम दुनिया के सबसे युवा देश तो ज़रूर हैं, लेकिन इन युवाओं को देने के लिए हमारे पास क्या है? ये बेरोज़गार रहेंगे, तो क्या करेंगे? यह सोचकर चिंता होती है. हमने ऐसे समाज का निर्माण किया है, जिसमें एक तरफ़ बेतहाशा अमीरी है और दूसरी तरफ़ नरक की तरह ग़रीबी है. भारत आज भी गावों का देश है और गांव ही पिछड़ रहे हैं. जो शहर में हैं और अमीर हैं, उनके जीवन में तो थोड़ी-बहुत ख़ुशियां हैं, लेकिन जो गांवों में रहते हैं. वो ग़रीब हैं. समय से पीछे चल रहे हैं और पीछे छूटते चले जा रहे हैं. देश का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक तौर पर पिछड़ गया है. स़िर्फ पिछड़ा ही नहीं है, सरकार की पहुंच से बाहर चला गया है. वहां नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है.
देश की वर्तमान स्थिति को देखकर चिंता होती है. देश अराजकता के मुहाने पर खड़ा है, लेकिन जिन्हें चिंता होनी चाहिए, उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता है. देश की संसद और उसमें हिस्सेदार राजनीतिक दल समाज और समय से कटे हुए हैं. उन्हें स़िर्फ चुनाव जीतना है. राजनीति करनी है. उन्हें आम जनता की कोई चिंता नहीं है. कांग्रेस पार्टी हो, भारतीय जनता पार्टी हो या फिर वामपंथी पार्टियां हों. क्या संसद में ये कोई पूछता है कि सरकार की नीतियां स़िर्फ देश के पांच फ़ीसदी लोगों के लिए क्यों बनाई जाती हैं? मैंने कभी नहीं सुना कि किसी राजनीतिक दल ने नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के जनविरोधी पक्ष को लेकर कभी सवाल खड़े किए हों. सरकार हर चीज़ का निजीकरण कर रही है. वह अपनी ज़िम्मेदारी से भाग रही है. भारत में लोक कल्याणकारी राज्य कहां है? मैंने पी. साईनाथ की रिपोर्ट पढ़ी है, जिसमें यह कहा गया कि हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या कर लेता है. इन बातों से पीड़ा होती है. दिल दुखता है. मैं सोचता हूं कि क्या आज़ादी का यही मतलब है? क्या आज़ादी के लिए शहीदों की कुर्बानी बेकार चली गई?
जनतंत्र कहां है? जनतंत्र का मतलब, तो यही होता है कि ऐसी सरकार जो जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए हो. देश में प्रजातंत्र तो है, लेकिन इस तंत्र में जनता कहां है? जनता की हिस्सेदारी कहां है? महात्मा गांधी, बाबा भीमराव अंबेडकर, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल व मौलाना आज़ाद जैसे महापुरुषों का तो यही सपना था कि भारत का प्रजातंत्र और प्रजातांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार देश के लोगों, ख़ासकर वंचितों के जीवन की रक्षा और उसकी बेहतरी के लिए काम करेगी. उनके लिए नीतियां बनाएंगी. लेकिन आज की सरकार तो बाज़ार के सामने समर्पण कर चुकी है. 1991 के बाद से जितनी भी सरकारें आई हैं, सबने यही किया. विपक्ष ने भी संसद में सवाल तक नहीं उठाया. कई लोगों को यह लग सकता है कि मेरे ख़यालात पुराने हैं, लेकिन ऐसे लोगों को मैं बताना चाहता हूं कि हमारे संविधान में आज भी संविधान का भाग-4 मौजूद है. जिसे हम राज्य के नीति निर्देशक तत्व कहते हैं. यही मेरी चिंता है कि देश के राजनीतिक दलों ने संविधान की आत्मा और उसकी भावनाओं को दरकिनार कर दिया है. उसकी पूरी तरह से उपेक्षा हो रही है. यही वजह है कि ग़रीबों और आम लोगों के हितों के बजाय निजी कंपनियों के हितों के लिए नीतियां बनाई जा रही हैं. संसद में इसके ख़िलाफ कोई आवाज़ भी नहीं उठा रहा है.
संविधान के तहत सरकार को यह दायित्व दिया गया है कि जो भी ग़रीब हैं, वंचित हैं, उनकी ज़िंदगी को बेहतर करने के लिए सरकार नीतियां बनाएगी. देश के ़फैसले में लोगों की हिस्सेदारी होगी. इसके लिए यह ज़रूरी है कि उन्हें समान अवसर और सत्ता में हिस्सेदारी मिले. हमारे संविधान में तो व्यवस्था है, लेकिन अब तक इस पर अमल नहीं हुआ. इसलिए मैं लगातार यह मांग करता रहा हूं कि गांवों का सशक्तिकरण ज़रूरी है. जब तक गांवों को ताक़त नहीं मिलेगी, तब तक गांवों की स्थिति नहीं बदलेगी और जब तक गांवों का विकास नहीं होगा, तब तक देश का विकास नहीं होगा. इसलिए मैं चाहता हूं कि देश में ग्रामसभा की व्यवस्था लागू हो, जो महात्मा गांधी चाहते थे. आज पंचायती राज के नाम पर पंचायतों को कार्यपालक बना दिया गया है, लेकिन अगर गांव की ग्रामसभा को विधायिका की शक्ति दे दी जाए, तो गांव का सशक्तिकरण पूरा हो जाएगा. देश में सच्चा प्रजातंत्र आ जाएगा. गांव के लोग अपनी ज़रूरत के हिसाब से ख़र्च करने को आज़ाद होंगे. लोगों को अधिकारियों पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा. इसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह होगा कि ज़मीनी स्तर पर भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाएगा. योजनाएं फेल नहीं होंगी. फिर किसी को यह नहीं कहना पड़ेगा कि केंद्र से योजनाओं के लिए एक रुपये भेजा जाता है, लेकिन स़िर्फ 15 पैसा लोगों तक पहुंचता है और बाक़ी पैसा बीच में ग़ायब हो जाता है.
देश में कई जगह ग्राम-स्वराज के अच्छे प्रयोग हुए हैं. मैंने अपने गांव रालेगण सिद्धी में एक प्रयोग किया. यहां हमने कोई इंडस्ट्री नहीं लगाई. बस लोगों के साथ मिलकर काम किया. पेट्रोल, डीजल, कोयले का इस्तेमाल नहीं किया, हमने स़िर्फ प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया. गांव वालों की ज़रूरतें सीमित होती हैं. इसके लिए बहुत ज़्यादा दिमाग़ की भी ज़रूरत नहीं पड़ती. हमने बारिश की एक-एक बूंद को रोका, पानी का संचयन किया, रीचार्ज किया, ग्राउंड वाटर लेवल बढ़ाया, गांव की मिट्टी गांव में रखी, जिससे कृषि का विकास हुआ. जहां पहले सूखे की वजह से बहुत ग़रीबी थी, वहां लोग खेती करके ही स्वावलंबी बन गए. एक बार स्वावलंबी बने, तो लोगों ने पशुपालन शुरू किया. हाथ के लिए काम, पेट के लिए रोटी गांव में ही मिल गई. इसकी वजह से शहर की तरफ़ जाने वाले लोगों की रोकथाम हो गई. आज इस छोटे से गांव से 4000 लीटर दूध हर दिन बाहर जाता है. इस गांव में शिक्षा है, सफाई है, सब कुछ है. क्या हम ऐसे गांव पूरे देश में नहीं बना सकते? ज़रूर बना सकते हैं. देश को अगर अराजकता से बचाना है, तो गांवों का विकास ही एकमात्र रास्ता है. यही गांधीजी भी कहते थे कि देश बदलने के लिए पहले गांवों को बदलना होगा, जब तक गांव नहीं बदलेगा, तब तक देश नहीं बदलेगा.
गांधीजी के बताए रास्ते से हम भटक गए, जिसकी वजह से आज देश कई समस्याओं से एक साथ जूझ रहा है. विकास के आंकड़ों का ज़्यादा महत्व नहीं रह गया है, क्योंकि देश के नागरिकों का पूरी व्यवस्था पर से ही भरोसा उठता जा रहा है. अब तो प्रजातंत्र की साख़ पर सवाल उठने लगा है. जल, जंगल, ज़मीन के मुद्दे पर देश के ग़रीबों का भरोसा ख़त्म हो गया है. इसकी वजह यह है कि सरकार विकास के बहाने राष्ट्रीय संसाधनों का निजीकरण कर रही है. सरकार नदियों और जल स्रोतों का निजीकरण कर रही है. खदानों के नाम पर जंगलों को निजी कंपनियों को बेचा जा रहा है और आदिवासियों को बेदख़ल किया जा रहा है. इतना ही नहीं, किसानों की उपजाऊ ज़मीन का अधिग्रहण करके सरकार निजी कंपनियों के साथ मिलकर उसकी बंदरबाट कर रही है. जिन संसाधनों पर देश के लोगों का हक़ है, वह निजी कंपनियों को बांटे जा रहे हैं. सरकार की इन नीतियों के ज़रिए देश में कई ईस्ट इंडिया कंपनियों को आने का रास्ता दिखाई पड़ रहा है. इसलिए इसका ़फैसला होना ज़रूरी है कि देश के जल, जंगल, ज़मीन पर किसका हक़ है. इस बात का ़फैसला करने का हक़ भी देश की जनता को है. विकास का मॉडल कैसा हो, आर्थिक नीति कैसी हो, संसाधनों के दोहन की प्रक्रिया क्या हो? ये महत्पूर्ण मुद्दे हैं, जिन पर देश की जनता को सोचना होगा और ़फैसला लेना होगा.
एक तरफ़ देश में ग़रीबी है, भुखमरी है, बेरोज़गारी है, अशिक्षा है और दूसरी तरफ़ देश में मूलभूत सेवाओं को बहाल करने के लिए सरकार क़र्ज़ लेती है. विदेशी पूंजी के लिए देश के सारे दरवाज़े खोलने को सरकार एकमात्र विकल्प बता रही है. जबकि विदेशी बैंकों में भारत का कालाधन जमा है. अगर यह कालाधन वापस आ जाता है, तो देश की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है. दुनिया भर के देश अपने देश का कालाधन वापस लाकर अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने में लगे हैं, लेकिन सरकार कालेधन को वापस लाने के मुद्दे पर ख़ामोश है. देश के लोगों को ये भी नहीं पता है कि किन-किन लोगों का कितना कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है. राजनीतिक पार्टियां इन मुद्दों पर अपनी राय जनता के सामने रखें. इस बात का ़फैसला हो सके कि क्या हम संविधान के मुताबिक देश में नीतियां बनाना चाहते हैं या फिर बाज़ार के मुताबिक नीतियों के पक्ष में हैं. कांग्रेस पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और सारे राजनीतिक दल अपना पक्ष जनता के सामने रखें. वो बताएं कि वे बाज़ारवाद के मूल्यों पर सरकार चलाना चाहते हैं या फिर संविधान की आत्मा और भावनाओं को लागू करना चाहते हैं. अगर आर्थिक नीतियों पर सभी पार्टियों की सहमति है तो सरकार के बदले जाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है. मैं चाहता हूं कि देश में सरकार, नेता व पार्टी के बदले जाने के साथ-साथ नीतियों में भी बदलाव होना चाहिए. यही आज सबसे बड़ी चिंता है कि जो पार्टी सरकार चला रही है और जो पार्टी सरकार चलाना चाहती है, उनकी नीतियों में ज़्यादा फ़़र्क नहीं है. तो ऐसे में बदलाव कैसे आएगा?
अब देश की जनता के लिए सोचने का समय आ गया है, अगर जनता आज नहीं सोचेगी तो हमारी आने वाली पीढ़ियां ख़तरे में पड़ जाएंगी. तब तक ये लोग कुछ बाक़ी रखेंगे या नहीं, इसमें संदेह है. अंग्ऱेजों ने जितना नहीं लूटा, उससे ज़्यादा ये लोग लूट रहे हैं. अंग्रेज़ों ने ढेढ़ सौ साल में जितना भारत को नहीं लूटा, पैंसठ सालों में इन्होंने देश को उनसे ज़्यादा लूट लिया. यह बात स्पष्ट हो गई है कि संसद में बैठे लोग और सत्ता में बैठी सरकार देश को अच्छा भविष्य नहीं देंगे. मैं यह बताना चाहता हूं कि मैं 10 दिसंबर से रालेगण सिद्धी में अनशन करने जा रहा हूं, क्योंकि मेरे और देश की जनता के साथ धोखा हुआ है. जनलोकपाल बिल लाने के लिए मैंने रामलीला मैदान में 16 अगस्त, 2011 को अनशन शुरू किया था. मुझे प्रधानमंत्री ने पत्र लिखकर यह आश्‍वासन दिया था कि वे जनलोकपाल क़ानून लाएंगे, साथ ही यह आश्‍वासन भी दिया था कि निचले स्तर के अधिकारी भी लोकपाल के दायरे में आएंगे. नागरिक संहिता लाएंगे, साथ ही हर राज्य में जनलोकायुक्त नियुक्त करेंगे. प्रधानमंत्री के आश्‍वासन के बाद दो साल बीत गए, लेकिन आज मुझे अनुभव हो रहा है कि मेरे साथ धोखाधड़ी हुई है. मैं हमेशा से यही समझता था कि प्रधानमंत्री जी अच्छे आदमी है. मैंने कई बार ये कहा भी है. लेकिन सत्ता के लिए लोग देश से झूठ बोल सकते हैं, मैं इस पर विश्‍वास नहीं करता था. अगर मुझे पहले पता चल जाता कि मेरे साथ धोखाधड़ी होने वाली है, तो मैं रामलीला मैदान का अनशन ख़त्म नहीं करता.
मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि इस बीच मैंने कई बार प्रधानमंत्री को पत्र लिखे. उनको उनका वादा याद दिलाया. मुझे प्रधानमंत्री की तरफ़ से श्री नारायणसामी जी के कई पत्र भी आए. वो भी आश्‍वासन देते रहे. मुझे चिंता होती है कि अगर ऐसे झूठ बोलने वाले लोग सरकार चलाएंगे, तो देश का क्या होगा? क्योंकि झूठ बोलने वाले अगर देश चलाएंगे, तो देश कभी तरक्की नहीं करेगा. सत्यमेव जयते हमारे देश का प्रतीक वाक्य है. सत्य के मार्ग से ही देश की भलाई हो सकती है. लेकिन मुझे आश्‍चर्य होता है कि इतने झूठ बोलने वाले लोग सरकार में कैसे इकट्ठा हो गए. सरकार में तो कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो मुझ पर भी आरोप लगा देते हैं. मैं तो यह जानता हूं कि इंसान कितना भी बड़ा क्यों न हो, कितना भी शक्तिशाली क्यों हो, लेकिन अगर उसके मन में बेईमानी है, तो ऐसे लोगों को एयर कंडिशन बंगले में भी नींद की गोली लेकर सोना पड़ता है. यह बात तो सबको पता है, लेकिन फिर भी लोग ग़लती करते हैं. मैंने अपने जीवन में करोड़ों रुपये की योजना अपनाई, लेकिन ईमान नहीं छोड़ा. कहीं पर भी बैंक बैलेंस नहीं रखा. न कभी झूठ बोला. मेरे पास कोई सत्ता नहीं है, लेकिन मैं लखपति और करोड़पति से ज़्यादा आनंद महसूस करता हूं. यह आनंद मुझे देश और लोगों की सेवा करके मिलता है, क्योंकि मैंने अपने जीवन पर छोटा-सा भी दाग़ नहीं लगने दिया.
जनलोकपाल बिल लोकसभा में सर्वसम्मति से पास हुआ था, फिर ये स्थाई कमेटी के पास गया. राज्यसभा में जांच के लिए सेलेक्ट कमेटी बनाई गई. उसकी भी रिपोर्ट आ गई. अब स़िर्फ राज्यसभा में चर्चा होनी बाक़ी है, लेकिन इसमें भी एक साल बीत गया. अब तक चर्चा नहीं हुई, इसका मतलब साफ़ है कि सरकार की नीयत साफ़ नहीं है. जबकि, प्रधानमंत्री की तरफ़ से कहा गया कि वो जनलोकपाल बिल वित्तीय सत्र में लाएंगे, लेकिन बिल नहीं लाया गया. फिर कहा गया कि वर्षाकालीन सत्र में लेकर आएंगे, लेकिन नहीं आया. अब शीतकालीन सत्र आ रहा है. अब तक इसे क्यों नहीं लाया गया? इसका कोई ख़ास कारण नहीं है. स़िर्फ नीयत साफ़ नहीं है. राज्यसभा में तो कांग्रेस पार्टी के 71 सदस्य हैं और कोई विरोध भी नहीं कर रहा है, फिर भी ये बिल नहीं ला रहे हैं. जबकि पक्ष और पार्टियों के विरोध के बावजूद सरकार ने फूड सिक्योरिटी बिल, पेंशन बिल और भूमि अधिग्रहण बिल को पास किया, साथ ही राष्ट्रपति पद के चुनाव में विरोध के बावजूद आपने सफलता पाई, लेकिन सरकार जनलोकपाल नहीं ला रही है. इसका क्या कारण है?
दिन-ब-दिन बढ़ते हुए भ्रष्टाचार के कारण जनता नाराज़ है. महंगाई की वजह से जीना मुश्किल हो गया है. जनता सब देख रही है. सब समझ रही है.
मैंने शीतकालीन अधिवेशन के पहले दिन से दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन करने    की घोषणा की थी, लेकिन मेरा ऑपरेशन   होने के कारण और तबियत ठीक न होने के कारण ही मैंने यह तय किया है कि मैं अपने गांव रालेगण सिद्धी के यादव बाबा मंदिर में अनशन करूंगा. इस बार मैंने देश की जनता से अपील की है कि सब लोग अपने-अपने शहरों, मुहल्लों और गांवों में रहकर ही धरना प्रदर्शन करें और अनशन में शामिल हों. इस बार देश के हर शहर और हर गांव में जनलोकपाल के लिए प्रदर्शन होगा. मुझे पूरा भरोसा है कि इस बार भी जनलोकपाल आंदोलन को पहले से ज़्यादा समर्थन मिलेगा.
देश के लोग मुझसे पूछ रहे हैं कि 2014 के चुनाव में वो किसे वोट दें. मैं इस पर विचार कर रहा हूं कि मैं देश के लोगों से क्या कहूं. एक तरफ़ सांप्रदायिक ताक़तें हैं, तो दूसरी तरफ़ धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भ्रष्टाचार को घर-घर पहुंचाने वाली ताक़तें हैं, जिन्होंने विकास को लील लिया है. दोनों पक्षों की आर्थिक नीतियां एक तरह की हैं. ये नीतियां बाज़ार आधारित खुली लूट को बढ़ावा देने वाली हैं. ये नीतियां गांवों के ख़िलाफ़ हैं, किसान विरोधी हैं, छात्रों नौजवानों को बेरोज़गार बनाने वाली और विकास के दायरे में स़िर्फ 8-10 फ़ीसदी लोगों को फ़ायदा पहुंचाने वाली हैं. इसीलिए देश का एक तिहाई हिस्सा सरकार नाम की संस्था में विश्‍वास नहीं कर रहा है. लोकतंत्र से भी विश्‍वास कम हो रहा है.
मैं ऐसी ताक़तों की खोज में हूं, जो लोकसभा में जाकर ग़रीब को विकास की प्रक्रिया के दायरे में लाएं, गांवों को विधायिका की शक्ति दें, प्रशासनिक इकाई बनाएं, शिक्षा को रा़ेजगार से जोड़ें तथा स्वास्थ सेवाएं सभी को उपलब्ध कराएं, न्याय व्यवस्था सभी को उपलब्ध और समयबद्ध मिले, जो बेरा़ेजगारी का संपूर्ण ख़ात्मा कर सके तथा गांव आधारित औद्योगिक नीति बनाएं. जनलोकपाल, राइट टू रिजेक्ट तथा राइट टू रिकॉल के क़ानून पास करने के साथ-साथ जिनका विश्‍वास लोगों के प्रति हो, विदेशी कंपनियों के प्रति नहीं हो. यह देश के भविष्य और लोकतंत्र के प्रति आस्था का सवाल है.

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