देश में होने वाले चुनावी सर्वे न स़िर्फ भ्रामक हैं, बल्कि उन्हें राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. सर्वे रिपोर्ट्स में नरेंद्र मोदी को एनडीए का ट्रम्प कार्ड और प्रधानमंत्री पद का सबसे बेहतर उम्मीदवार बताया जा रहा है. साथ ही यह भी बताया जा रहा है कि अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने, तो भाजपा को सबसे ज़्यादा सीटें मिलेंगी. समझने वाली बात यह है कि मोदी के  प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने से सबसे ज़्यादा फ़ायदा कांग्रेस पार्टी को ही होगा. मोदी की वजह से मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, ममता बनर्जी एवं तमाम सेकुलर पार्टियों को भी फ़ायदा होने वाला है और नुकसान केवल भारतीय जनता पार्टी को होगा.

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मीडिया एवं इंटरनेट पर नरेंद्र मोदी के गुणगान और उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने को लेकर एक आंधी चल रही है. सर्वे रिपोर्ट्स के जरिए कौन इस आग को हवा दे रहा है, ऐसा किस प्रयोजन से हो रहा है, यह कहना मुश्किल है, लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि इन सर्वे रिपोर्ट्स का फ़ायदा स्वयं नरेंद्र मोदी और कांग्रेस पार्टी को हो रहा है.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने से कांग्रेस को एक और फ़ायदा होगा. यह फ़ायदा चुनाव परिणाम आने के बाद गठबंधन बनाने में होने वाला है. समझने वाली बात यह है कि न तो कांग्रेस और न ही भारतीय जनता पार्टी को बहुमत मिलने वाला है. अगर किसी को बहुमत मिल भी जाए, तो उसे मिरेकल ही माना जाएगा, लेकिन फिलहाल दोनों ही पार्टियों को लगता है कि किसी भी सूरत में दोनों में से किसी को भी बहुमत नहीं मिलने वाला है.
लोकसभा चुनाव को अभी क़रीब एक साल बाकी है, लेकिन सर्वे का खेल शुरू हो गया है. चुनाव सर्वे कराने वाली कई पेशेवर एजेंसियां लोगों को यह बताने में जुट गई हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में किस पार्टी को कितनी सीटें मिलने वाली हैं. सर्वे करने वाली उक्त एजेंसियां यह काम मुफ्त में नहीं करतीं, बल्कि वे सर्वे कराने के पैसे लेती हैं, जिसे टीवी चैनलों पर दिखाया जाता है. कुछ एजेंसियां टीवी चैनलों के साथ मिलकर सर्वे करती हैं, लेकिन यह स़िर्फ नाम के लिए होता है. ऐसे सर्वे के बारे में टीवी चैनलों के रिपोर्टरों और एडिटरों को पता भी नहीं होता है कि उनके चैनल द्वारा कोई सर्वे कराया जा रहा है. सबसे पहला सवाल यह उठता है कि अभी से मीडिया में सर्वे का जो खेल शुरू हो गया है, उसे कौन करा रहा है? सर्वे कराने वाली एजेंसियों एवं टीवी चैनलों को पैसे कौन दे रहा है? अगर कोई उन्हें पैसे दे रहा है, तो उसका मकसद क्या है? इनसे किसे फ़ायदा हो रहा है और किसे नुकसान हो रहा है? आख़िर इन चुनावी सर्वे का राज क्या है?
सबसे पहले देखते हैं कि 2014 के चुनाव के लिए किए गए इन सर्वे के निष्कर्ष क्या हैं. एबीपी न्यूज का दावा है कि उसके सर्वे के मुताबिक, देश का मूड मोदी के साथ है और 48 फ़ीसद लोग मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. एबीपी न्यूज पर दिखाया जाने वाला यह सर्वे नेल्शन नामक कंपनी ने किया है. एबीपी न्यूज ने दावा किया है कि उसका यह निष्कर्ष देश के 21 राज्यों में किए गए सर्वे का परिणाम है. हिंदुस्तान टाइम्स की तरफ़ से भी एक सर्वे आया. वैसे लोगों में यह धारणा है कि यह ग्रुप कांग्रेस पार्टी के नज़दीक है, फिर भी इसमें प्रकाशित सर्वे के मुताबिक, 38 फ़ीसद लोग मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. एक और अहम सर्वे इंडिया टुडे ग्रुप ने देश के सामने रखा है. इस ग्रुप में कई सारे चैनल, समाचारपत्र एवं पत्रिकाएं शामिल हैं, जिनमें सबसे अहम आजतक न्यूज चैनल है. इनके मुताबिक भी नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे हैं. इंटरनेट पर भी अगर आप 2014 के चुनाव को लेकर सर्वे ढूंढने जाएं, तो वहां कुकरमुत्ते की तरह फैले सैकड़ों सर्वे मिल जाएंगे. मजे की बात यह है कि हर सर्वे को कई समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में जगह मिली. इनमें से किस पर विश्‍वास किया जाए और किस पर नहीं, यह एक कठिन सवाल है.
कुछ और रोचक सर्वे के बारे में बताता हूं. एक सर्वे लेन्स ऑन न्यूज ने भी कराया. यह सर्वे स़िर्फ उत्तर प्रदेश में किया गया. इसके मुताबिक, अगर मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाता है, तो उत्तर प्रदेश में भाजपा को 47 सीटें मिल सकती हैं. कुछ सर्वे ऐसे भी हैं, जो यह बताते हैं कि देश का 70 फ़ीसद युवा मोदी के पक्ष में हैं. अब तक हुए सभी सर्वे का अगर निष्कर्ष निकाला जाए, तो दो बातें मुख्य तौर पर सामने आती हैं. पहली यह कि लोग वर्तमान सरकार से नाराज़ हैं और कांग्रेस पार्टी फिर से चुनाव नहीं जीत सकती. दूसरी जो सबसे महत्वपूर्ण है और वह यह कि देश का बहुमत नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है. मतलब यह है कि इन सभी सर्वे रिपोर्ट के जरिए भाजपा को संदेश दिया जा रहा है कि कांग्रेस से नाराज़गी का मतलब यह नहीं है कि लोग भाजपा की सरकार लाना चाहते हैं, बल्कि वे अगली सरकार के रूप में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार चाहते हैं. अब सवाल यह उठता है कि क्या इन सर्वे पर भरोसा किया जाना चाहिए? क्या कोई सर्वे एक साल बाद होने वाले चुनावों के बारे में पूर्वानुमान लगा सकता है? इन सवालों का सीधा जवाब है, नहीं. यही वजह है कि कोई भी सर्वे सही नहीं साबित होता है और अगर कोई हो भी जाता है, तो वह महज एक अपवाद है या तुक्के में सच साबित हो जाता है. पहला सवाल तो इन सर्वे की विश्‍वसनीयता पर उठता है. इन सर्वे का परिणाम उसके मुताबिक तैयार किया जाता है, जो इन्हें कराता है और सर्वे करने वाली एजेंसी को पैसे देता है. ऐसा देखा गया है कि ज़्यादातर राजनीतिक दल अपनी रणनीति तय करने के लिए चुनावी सर्वे कराते हैं और कभी-कभी ये चुनावी सर्वे राजनीतिक दलों की रणनीति का हिस्सा होते हैं, जो कि अपने पक्ष में माहौल बनाने और अफवाह फैलाने के माध्यम के रूप में इस्तेमाल होते हैं. अब सवाल यह है कि क्या ये चुनावी सर्वे किसी रणनीति का हिस्सा हैं और अगर हैं, तो ये कहां से संचालित हो रहे हैं?
समझने वाली बात यह है कि कोई भी सर्वे स़िर्फ सर्वे करने के वक्त जनता का मूड बता सकता है. राजनीति एक गत्यात्मक और सक्रिय प्रक्रिया है. इसमें एक पल में माहौल बदल जाता है. एक बयान से हार और जीत का ़फैसला हो जाता है. एक छोटी सी भूल चुनाव नतीजे पर प्रभाव डाल देती है. जीत हार में बदल सकती है और कभी-कभी हारा हुआ प्रत्याशी जीत सकता है. राजनीति में किसी एक घटना से न केवल संपूर्ण वातावरण बदल जाता है, बल्कि जनता का मूड बदल सकता है, उसका फैसला बदल सकता है. किस मुद्दे पर जनता का मूड कितना बदलेगा, यह कोई भी सर्वे न तो माप सकता है और न ही इसकी भविष्यवाणी कर सकता है. 2014 में अभी देर है. अभी कई राजनीतिक खेल होने बाकी हैं. 2014 का चुनाव किन-किन मुद्दों पर लड़ा जाएगा, यह अभी तय नहीं है. अभी तो यह भी तय नहीं है कि किस मुद्दे का कितना असर होगा. सबसे मजेदार बात यह है कि इन सर्वे रिपोर्ट्स में महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे अहम मुद्दों के असर के बारे में नहीं बताया गया है. जिस तरह से हर दिन घोटालों का पर्दाफाश हो रहा है, उससे तो यही लगता है कि देश का राजनीतिक वातावरण बिल्कुल अस्थिर है. इसलिए किसी भी सर्वे में यह क्षमता ही नहीं है कि वह एक साल आगे की भविष्यवाणी कर सके.
जिस तरह से ये सर्वे चुनाव से पहले ही मोदी को प्रधानमंत्री घोषित करने में लगे हुए हैं, इसमें एक मेथॉडोलाजिकल एरर (प्रणाली संबंधी दोष) है. भारत में मतदाता प्रधानमंत्री को नहीं चुनते, वे स़िर्फ अपने सांसद को चुनते हैं. सांसद को चुनते वक्त लोग प्रत्याशियों की प्रामाणिकता आंकते हैं. पार्टी और प्रधानमंत्री साधारण मतदाताओं के दिमाग में नहीं होते हैं. दूसरी बात यह कि जिस तरह से राजनीतिक दल लोगों को शराब देकर, पैसे देकर और दूसरे किस्म के प्रलोभन देकर वोट लेते हैं, यह वास्तविकता सर्वे रिपोर्ट्स में शामिल नहीं होती है. वैसे भी प्रधानमंत्री कौन होगा, यह चुनाव के बाद संसद में पार्टियों की सदस्य संख्या देखकर ही तय होता है. यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय राजनीति का एक चमत्कारिक पहलू भी है. इस देश में प्रधानमंत्री कौन बनेगा, यह खुद प्रधानमंत्री बनने वाले को भी नहीं पता होता है. मोरारजी देसाई से लेकर मनमोहन सिंह तक कई उदाहरण हमारे सामने हैं. इसलिए जब बड़े-बड़े मीडिया समूह चुनाव से एक साल पहले से ही नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री नियुक्त करने पर आमादा हैं, तो इसमें ज़रूर कोई बात है.
इसमें कोई शक नहीं कि मोदी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. वह चाहते हैं कि भाजपा उन्हें जल्द से जल्द प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दे, लेकिन पार्टी के अंदर खेमेबाजी है और भविष्य को लेकर चिंता भी है. चिंता की वजह यह है कि भाजपा के रणनीतिकार जानते हैं कि पार्टी को बहुमत नहीं मिलने वाला है और मोदी को सामने रखकर गठबंधन बनाना भी कठिन है, क्योंकि न तो नए साथी मिलेंगे और जो पुराने सहयोगी हैं, वे भी एनडीए से बाहर चले जाएंगे. इसलिए भारतीय जनता पार्टी मोदी का नाम घोषित करने में झिझक रही है. वहीं, कांग्रेस पार्टी वास्तविकता से वाकिफ है. लोगों में कांग्रेस के प्रति नाराज़गी है, वह चुनाव नहीं जीत सकती. कांग्रेस के रणनीतिकारों को पता है कि 2014 का लोकसभा चुनाव जीतने का एकमात्र उपाय नरेंद्र मोदी हैं. अगर मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाता है, तो कांग्रेस पार्टी फिर से सरकार बनाने की स्थिति में आ जाएगी. इस तर्क में सच्चाई है, क्योंकि मोदी के सामने आते ही मुस्लिम वोटों का अभूतपूर्व धु्रवीकरण होगा, जिसका फ़ायदा कई राज्यों में सीधे कांग्रेस को मिलेगा और कई राज्यों में उसके साथ जुड़े यूपीए की सहयोगी पार्टियों को मिलेगा. इसलिए भारतीय जनता पार्टी से ज़्यादा कांग्रेस पार्टी चाहती है कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया जाए.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने से कांग्रेस को एक और फ़ायदा होगा. यह फ़ायदा चुनाव परिणाम आने के बाद गठबंधन बनाने में होने वाला है. समझने वाली बात यह है कि न तो कांग्रेस और न ही भारतीय जनता पार्टी को बहुमत मिलने वाला है. अगर किसी को बहुमत मिल भी जाए, तो उसे मिरेकल ही माना जाएगा, लेकिन फिलहाल दोनों ही पार्टियों को लगता है कि किसी भी सूरत में दोनों में से किसी को भी बहुमत नहीं मिलने वाला है. इसलिए सरकार बनाने के लिए गठबंधन बनाना पड़ेगा. सरकार भी उसी की बनेगी, जो सबसे बड़ा गठबंधन बनाने में सफल होगा. नरेंद्र मोदी अगर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, तब भारतीय जनता पार्टी को गठबंधन बनाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. वहीं कांग्रेस पार्टी को बैठे-बिठाए समर्थन मिल जाएगा, क्योंकि मुलायम सिंह यादव, मायावती, रामविलास पासवान, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, लालू यादव, नीतीश कुमार एवं शरद यादव के सामने दूसरा कोई रास्ता ही नहीं होगा.
मोदी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित होने से एक और परिदृश्य उभर सकता है, लेकिन यह क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की कुशलता पर निर्भर करता है. कांग्रेस यह मान रही है कि मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण का फ़ायदा उसे होगा, लेकिन अगर क्षेत्रीय दलों ने अपना दम-खम क़ायम रखा, तो वे भी इस ध्रुवीकरण का फ़ायदा उठा सकते हैं. इस ध्रुवीकरण का मकसद मोदी के प्रधानमंत्री बनने के सारे रास्तों को रोकना होगा. मुसलमान उसी उम्मीदवार को वोट देंगे, जो भारतीय जनता पार्टी को हरा सकता है. ऐसे में मुलायम सिंह यादव, मायावती, रामविलास पासवान, नवीन पटनायक, चंद्रबाबू नायडू, लालू यादव, नीतीश कुमार एवं शरद यादव को भी फ़ायदा हो सकता है. अगर क्षेत्रीय दलों की कुल सदस्य संख्या 272 से ज़्यादा हो जाती है, जो कि संभव है, तो यह समझना चाहिए कि अगर नेतृत्व को लेकर कोई सहमति बनती है, तो देश में एक बार फिर तीसरे मोर्चे के लिए दरवाजा खुल सकता है.
मीडिया एवं इंटरनेट पर नरेंद्र मोदी के गुणगान और उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने को लेकर एक आंधी चल रही है. सर्वे रिपोर्ट्स के जरिए कौन इस आग को हवा दे रहा है, ऐसा किस प्रयोजन से हो रहा है, यह कहना मुश्किल है, लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि इन सर्वे रिपोर्ट्स का फ़ायदा स्वयं नरेंद्र मोदी और कांग्रेस पार्टी को हो रहा है. नरेंद्र मोदी जानते हैं कि 2014 उनके राजनीतिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मौक़ा है और अगर यह हाथ से चला गया, तो फिर प्रधानमंत्री बनने का मौक़ा शायद ही कभी आए. महंगाई, बेरोजगारी एवं भ्रष्टाचार की वजह से लोग कांग्रेस से नाराज़ हैं, जिसका असर चुनावी नतीजों पर पड़ना है. कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए सबसे अहम चुनाव लड़ने वाली है, इसलिए यह चुनाव उसके लिए एक अग्नि परीक्षा है. यह भी तय है कि कांग्रेस पार्टी को चुनाव जीतने के लिए नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होना आवश्यक है, वरना चुनाव जीतना मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन है. पुलिस जब तहकीकात करती है, तो वह सबसे पहले किसी भी केस में मोटिव, यानी मंशा का निर्धारण करती है. किसी भी तहकीकात का यह उसूल है कि बिना मोटिव के किसी भी कार्य को अंजाम नहीं दिया जाता है. पुलिसिया तहकीकात की मोटिव थ्योरी को अगर हम वर्तमान राजनीति पर लागू करें, तो यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मोदी को प्रधानमंत्री घोषित करने वाले (फर्जी) सर्वे का प्रायोजन या तो नरेंद्र मोदी कर रहे हैं या फिर कांग्रेस पार्टी.

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