छत्तीसगढ़ नरसंहार और आईपीएल मैचों में सट्टेबाजी एवं फिक्सिंग की ख़बरें जनसामान्य में चर्चा का विषय बनी हुई हैं. ऐसी समस्याओं के समाधान के लिए आख़िर कौन से क़दम उठाए जाने चाहिए, यही बता रही है यह विचारोत्तेजक टिप्पणी.
पिछले हफ्ते दो प्रमुख घटनाएं अख़बारों की सुर्खियां बनीं. पहली, छत्तीसगढ़ में नरसंहार की घटना. सलवा जुडूम पर तुरंत प्रतिबंध लगना चाहिए और इसे ख़त्म किया जाना चाहिए. कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस राज्य प्रायोजित काउंटर वायलेंस (जवाबी हिंसा), जिसे नन स्टेट ऐक्टर्स द्वारा अंजाम दिया जा रहा था, के ख़िलाफ़ गंभीर टिप्पणी की थी. उसके बाद सलवा जुडूम का नाम बदल गया, लेकिन हिंसक गतिविधियां फिर भी जारी रहीं. इसे जिस शख्स ने शुरू किया था, वह मारा गया. पूरा का पूरा नक्सलवादी आंदोलन सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से जुड़ा हुआ है. माओवादियों की हिंसा को प्रति-हिंसा से समाप्त नहीं किया जा सकता. आप पुलिस और सेना की कार्रवाई को उचित समझ सकते हैं, लेकिन काउंटर वायलेंस के लिए निश्‍चित रूप से भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में कोई स्थान नहीं है. केंद्र सरकार ने इस मामले में ज़्यादा रुचि नहीं दिखाई और न अब गंभीर नज़र आती है. क्यों? मुझे नहीं पता.
होना तो यह चाहिए था कि प्रधानमंत्री तुरंत छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को तलब करते और इस मामले को अपने हाथ में लेते. मुख्यमंत्री अगर सहमत नहीं हैं, तो छत्तीसगढ़ में अस्थायी रूप से राष्ट्रपति शासन लगाने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन इस तरह का अमानवीय व्यवहार तुरंत बंद कर देना चाहिए और साथ ही माओवादियों के  साथ बातचीत शुरू की जानी चाहिए. दरअसल, असली मुद्दा आदिवासियों का उनके  निवास स्थान से विस्थापन का है. आदिवासी क्षेत्रों में कंपनियां खनन अधिकारों का आनंद उठा रही हैं. यह जगह नक्सलवाद या माओवाद के लिए मुफीद बन गई है. पूर्व गृहमंत्री चिदंबरम समझते थे कि इस समस्या को पुलिस और सख्त कार्रवाई से ख़त्म किया जा सकता है. वर्तमान गृहमंत्री अगंभीर व्यक्ति हैं. इस नरसंहार के वक्त वह अमेरिका में थे और बजाय तुरंत लौटने के उन्होंने अपनी यात्रा का समय और बढ़ा दिया. वहीं ब्रिटेन के  प्रधानमंत्री ने अपने कुछ सैनिकों एवं नागरिकों की मौत के बाद अपनी विदेश यात्रा का समय तुरंत कम कर दिया. दरअसल, हम इस मामले को बहुत ही हल्के  ढंग से ले रहे हैं, लेकिन खुद प्रधानमंत्री को यह मामला अपने हाथ में लेना चाहिए और सलवा जुडूम हमेशा के लिए ख़त्म किया जाना चाहिए.
दूसरा मामला है आईपीएल मैचों में सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग सिंडिकेट का. मैं एक बार फिर से दोहराना चाहूंगा कि आईपीएल तुरंत रोका जाना चाहिए और इसे बंद किया जाना चाहिए. बीसीसीआई अगर खुद को बचाना चाहता है, तो वह आईपीएल से दूर रहे. आईपीएल को ललित मोदी ने शुरू कराया था, यह तर्कदेकर कि बीसीसीआई को नहीं पता कि पैसा कैसे कमाया जाए. आईपीएल क्रिकेट के लिए नहीं है, यह विदेश में खेलने या एक बेहतर घरेलू क्रिकेट टीम तैयार करने के लिए नहीं है, यह क्रिकेटरों के लिए भी नहीं है, बल्कि यह एक इंटर कॉरपोरेट तमाशा है. सट्टेबाजी और फिक्सिंग इसमें अंतर्निहित हैं, यह कोई आश्‍चर्य की बात नहीं है. देर रात की पार्टियां, फैशन शो, चीयर लीडर्स, ये सब मिलकर क्रिकेट के लिए कब्र खोदने का काम कर रहे हैं. सामान्य टेस्ट क्रिकेट या एक दिवसीय मैच से पहले देर रात की पार्टियों के लिए बीसीसीआई खिलाड़ियों को मना करती है और अनुशासनहीनता की अनुमति कभी नहीं देती, लेकिन आईपीएल में यह सब जायज बना दिया गया है. यह भारतीय क्रिकेट के लिए सोचने का वक्त है और यही वह वक्त है, जबकि आईपीएल को तुरंत बंद कर दिया जाए. बीसीसीआई को अंतरराष्ट्रीय और घरेलू क्रिकेट के संचालन के अपने मूल कार्य में लग जाना चाहिए. दुर्भाग्यवश, वरिष्ठ राजनेता जो बीसीसीआई का प्रतिनिधित्व करते हैं, ललित मोदी के  जाल में फंस गए हैं. अब वे कह रहे हैं कि श्रीनिवासन को पद से हट जाना चाहिए. श्रीनिवासन पद से हटते हैं या नहीं, यह प्रासंगिक नहीं है और यह मुद्दा भी नहीं है. मुद्दा यह है कि आईपीएल की भूमिका क्या है? बीसीसीआई कैसे आईपीएल चला सकती है, जो एक सर्कस की तरह है, एक तमाशा है. अब केवल एक ही उपाय है कि आईपीएल को बंद कर दिया जाए. कई वरिष्ठ राजनेता बीसीसीआई में हैं.
दरअसल, पूरी कहानी राजस्थान से शुरू होती है, जब मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने क़रीबी दोस्त ललित मोदी को राजस्थान क्रिकेट में शामिल किया था. ललित मोदी के पास क्रिकेट को देने के लिए कुछ नहीं है. वह केवल मुख्यमंत्री के  निजी दोस्त थे. एक अध्यादेश के जरिए मुख्यमंत्री ने यह अनिवार्य कर दिया कि स्थानीय लोगों को राजस्थान क्रिकेट चलाना चाहिए. स्थानीय लोगों की परिभाषा क्या है? राजस्थान के किसी भी जिले में जिसकी संपत्ति है, वह स्थानीय व्यक्ति है. इस तरह से ललित मोदी को राजस्थान क्रिकेट में लाया गया. अगर वसुंधरा राजे फिर से सत्ता में आती हैं, तो मैं नहीं जानता कि क्या वह दोबारा ऐसा ही करेंगी, लेकिन वर्तमान मुख्यमंत्री को राजस्थान क्रिकेट की भलाई के लिए तत्काल क़दम उठाने चाहिए. अभी केंद्रीय मंत्री सी पी जोशी राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन चला रहे हैं. उन्हें क्रिकेट के बारे में क्या पता है? सच तो यह है कि भारतीय क्रिकेट सड़ चुका है, इसकी सफाई की ज़रूरत है और यह आईपीएल से ही शुरू होनी चाहिए.
बीसीसीआई अगर खुद को बचाना चाहता है, तो वह आईपीएल से दूर रहे. आईपीएल को ललित मोदी ने शुरू कराया था, यह तर्कदेकर कि बीसीसीआई को नहीं पता कि पैसा कैसे कमाया जाए. आईपीएल क्रिकेट के लिए नहीं है, यह विदेश में खेलने या एक बेहतर घरेलू क्रिकेट टीम तैयार करने के लिए नहीं है, यह क्रिकेटरों के लिए भी नहीं है, बल्कि यह एक इंटर कॉरपोरेट तमाशा है.
ताकि किसान रहें आत्मनिर्भर
हरित  क्रांति के दौरान पिछले दस वर्षों में अनाज की विपुलता निर्मित हुई, तब स्वाभाविक रूप से ही मंडियों में अनाज के दाम गिरने लगे. ऐसी परिस्थिति में शासन ने दामों को गिरने दिया और किसान बर्बाद हो गए. कभी-कभी सरकार ने काग़ज़ पर इन चीज़ों का आधार मूल्य भी ज़ाहिर किया, जो कि लागत ख़र्च की तुलना में काफी कम था. इस कम क़ीमत पर भी किसान का अनाज ख़रीदना सरकार ने अपना दायित्व नहीं माना. अत: घोषित सरकारी क़ीमत काग़ज़ पर रही और बाज़ार द्वारा किसानों से लूट जारी रही. विदेशों में अनाज या कच्चा माल भेजकर किसान अपना लागत ख़र्च प्राप्त कर सकता था. इससे राष्ट्र को न स़िर्फ विदेशी मुद्रा मिलती, बल्कि किसान से लूट भी बंद हो जाती. यही नहीं, अनाज का स्टॉक राष्ट्र में कम हो जाने से यहां भी उसकी क़ीमतें बाज़ारों में ऊंची हो जातीं और किसान की बर्बादी रुकती, लेकिन ऐसे समय में विदेशों में वस्तुएं भेजने पर पाबंदियां लगाई गईं. प्याज, कपास और मूंगफली का विदेशों में निर्यात रोक दिया गया. जैसे, मूंगफली का उत्पादन ख़र्च एक किलो के लिए कुछ वर्षों पूर्व चार रुपये तीस पैसे आता था, लेकिन भारतीय बाज़ार में भाव था दो रुपये आठ पैसे. उस समय यूरोप में मूंगफली निर्यात करके साढ़े आठ रुपये किलो की दर से बेची जा सकती थी. इससे 250 करोड़ रुपये किसानों को मिलते और इतनी विदेशी मुद्रा राष्ट्र को मिलती. ज्वार का उत्पादन ख़र्च क़रीब एक किलो के पीछे दो रुपये पड़ता है. यह ज्वार मध्य पूर्व में भेजी जाती, तो सवा दो रुपये किलो की दर से बिक सकती है, लेकिन ऐसा नहीं करने दिया जाता है.
इसलिए अभाव की परिस्थिति में लेवी लगाकर किसानों से लूट करना और विपुलता की हालत में बाज़ारों में उपज कम दाम में नीलाम होने देना, ऐसी दो-रंगी नीति शासन की रही. महाराष्ट्र में पंजाबराव कृषि विद्यापीठ ने ज्वार का लागत ख़र्च किसानों से आंकड़े प्राप्त करके पौने दो सौ रुपये प्रति कुंतल घोषित किया. महाराष्ट्र सरकार ने ज्वार का आधार मूल्य 122 रुपये प्रति कुंतल घोषित किया. अक्टूबर 1982 में ज्वार पैदा हुई, तब सरकार ने घोषित मूल्य के अनुसार ज्वार की ख़रीदी नहीं की. बाज़ार में 80-90 रुपये प्रति कुंतल के भाव से अधिकांश किसानों को अपनी ज्वार बेचनी पड़ी और लूट होने देनी पड़ी. यदि किसान ने कच्चे माल को पक्का माल बनाया, तो भी सरकार पक्के माल को भी लागत ख़र्च जितनी क़ीमत किसान को नहीं मिलने देती है. जैसे महाराष्ट्र में किसानों ने सहकारी चीनी मिलें खड़ी कीं. गन्ने का लागत ख़र्च 288 रुपये टन था, जबकि किसान को मिले 142 रुपये. किसानों को लगा कि महंगी चीनी बेचकर इस नुक़सान की पूर्ति हम कर लेंगे. सरकार ने चीनी पर 65 प्रतिशत लेवी लगाकर उसे 4 रुपये प्रति किलो उत्पादन ख़र्च के आधार पर नहीं बेचने दिया. नतीजतन, किसान को 2 रुपये 12 पैसे के भाव से चीनी लेवी में देनी पड़ी और यह सब हुआ ग़रीबों के नाम पर! देहातों में कितने प्रतिशत ग़रीब चीनी ख़रीद सकते हैं?
ये नग्न नीतियां ढंक जाएं और भ्रम पैदा हो, इसलिए सरकार कई तरी़के काम में लाती है. जैसे गाय, भैंस, बकरी, मुर्गियां सब्सिडी पर देना, ग़रीबों के लिए झोपड़ियां बनाना, गांवों में पाठशालाएं खोलकर कल्याणकारी राज्य का सबूत देना, दवाखाने खोलना, सड़कें बनाना, अकाल के समय राहत कार्य आदि. ग्रामीणों के सामने इस प्रकार का कोई न कोई खिलौना रखना, जिससे कि उनका मन अन्याय के विरुद्ध बग़ावत न कर बैठे, ऐसी नीतियां पिछले 35 सालों में अपनाई गई हैं. किसानों को यह खिलौना देने की बजाय उसका हक यानी लागत ख़र्च पर आधारित भाव क्यों नहीं मिलने दिया जाता? किसानों में भी छोटे किसान, बड़े किसान, मज़दूर आदि भेद पैदा करना, जिससे ग्रामीण समाज इकट्ठा न हो, ऐसी परिस्थितियां पैदा की जाती रही हैं और इसमें राजनीतिक दल जाने-अनजाने साथ देते रहे हैं. ग्रामीणों को इन सारी चालों और हरकतों को समझना चाहिए. ग्रामवासी अकाल का सामना क्यों नहीं कर सकते, सब लोग मिलकर अपने लिए शाला-दवाखाना क्यों नहीं बना सकते आदि तथ्यों की बुनियादी छानबीन की जानी चाहिए.
कारखाने में भी मंदी के कारण कभी-कभी नुक़सान होता है, वहां भी आग लगती है या मज़दूर हड़ताल पर चले जाते हैं, लेकिन पूर्वानुभव के जरिए इतना-इतना नुक़सान होने वाला है, यह जानकर पक्के माल का लागत ख़र्च निकालते समय इसे गिना जाता है और इसके अनुसार ही पक्के माल की क़ीमत तय की जाती है. अत: नुक़सान के दिनों में इस लाभ-हानि फंड में से रकम निकाल कर खराब दिन बिताए जाते हैं. दस वर्षों में कितनी बार अकाल आएगा, यह अनुमान कृषि में भी कई दशकों के अनुभव से गणित के आधार पर निकाला जा सकता है. इसके लिए प्रति वर्ष नुक़सान फंड बनाना पड़ेगा, यह सोचकर किसान इसे लागत ख़र्च में उद्योग की भांति क्यों न जोड़ें? वैसे ही शिक्षा, सामान्य चिकित्सा आदि का सामान्य ख़र्च जोड़कर किसान एवं मज़दूर को उतनी रोजी क्यों न मिले? प्राथमिक आवश्यकताओं पर आधारित इस पारिश्रमिक की दर को कृषि वस्तु का लागत ख़र्च निकालते समय क्यों न जोड़ा जाए? ऐसा करने से सरकार के अनुदान या मेहरबानी पर निर्भर रहने की ज़रूरत ग्रामीणों को नहीं पड़ेगी.
 

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