नरेंद्र मोदी की सरकार को तीन साल पूरे हो गए. तीन साल का वक्त कम नहीं होता है. खास कर तब, जब इस देश के प्रधानमंत्री ने अपने देश की जनता से इतने बड़े वादे किए हों, इतने बड़े-बड़े सपने दिखाए हों, जिसके भरोसे जनता ने ऐतिहासिक बहुमत दे दिया. आज तीन साल बाद जनता उन वादों को, उन सपनों को पूरा होते देखना चाहती है. क्या वो वादे पूरे हुए? क्या वो सपने हक़ीक़त बन पाए? इन्हीं सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश चौथी दुनिया ने की.

narendra modiप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सफलतापूर्वक तीन साल पूरे कर लिए हैं. इन तीन सालों में देश में कई तरह के रंग बिखेरे गए हैं. कुछ गहरे हैं, कुछ धूमिल हैं, कुछ मिले-जुले हैं, पर जो सबसे गहरा रंग है, वो ये कि यूपीए के आखिरी चार साल, जिसमें देश का विश्वास सरकार नाम की संस्था से हिल गया था. हर महीने कोई न कोई घोटाला, सीएजी की रिपोर्ट, सीबीआई के ऊपर आरोप. मंत्री और मंत्री-पुत्रों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की संभावनाएं, जिसके पुख्ता सबूत नहीं थे, तब भी लोगों ने उस पर पुख्ता जैसा ही विश्वास किया. जितना विश्वास उन्होंने यूपीए के भ्रष्टाचार पर किया था, उतना ही विश्वास किया नरेंद्र मोदी के वादों पर. तीन साल के शासनकाल में नरेंद्र मोदी ने देश के लोगों को यह विश्वास दिला दिया कि वे भ्रष्टाचारी नहीं हैं.

उनके मंत्रिमंडल में कोई भ्रष्टाचारी नहीं हुआ, कोई घोटाला नहीं हुआ और वो देश की जनता के विश्वासों पर खरे उतरने वाले प्रधानमंत्री हैं. नरेंद्र मोदी ने देश के हर व्यक्ति के मन में स्वाभिमान की एक नई परिभाषा पैदा की कि हम पाकिस्तान को उसके घर में जाकर मार सकते हैं. अगर इसका विश्लेषण करें कि विपक्ष क्यों उत्तर प्रदेश में इतनी बुरी तरह हारा, तो उसका एक तथ्य ये सामने आता है कि जिस चीज को प्रधानमंत्री ने सफलतापूर्वक लोगों के स्वाभिमान से जोड़ दिया और उसी चीज का विरोध विपक्ष ने किया तो शायद लोगों को लगा कि ये तो देशहित के खिलाफ बातें कर रहे हैं, जबकि मोदी देश के सम्मान की बातें कर रहे हैं. मोदी की इस स्वीकार्यता ने लोगों के मन में ये सवाल खड़ा किया कि जो पाकिस्तान के ऊपर हुई सर्जिकल स्ट्राइक का विरोध करते हैं या उसके ऊपर सवाल उठाते हैं, वो लोग भारत के प्रति कम, पाकिस्तान के प्रति ज्यादा प्यार रखते हैं.

उग्र राष्ट्रवाद और अमीर विरोधी भावना
मोदी जिन भावनाओं के ऊपर चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री बने थे, उन भावनाओं के अनुरूप मोदी के वादे तो लोगों के सामने थे, लेकिन मोदी एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई हार रहे थे, जिसका प्रगटीकरण पहले दिल्ली और फिर बिहार विधानसभा के चुनाव में हुआ. शायद यहीं से नरेंद्र भाई मोदी इस सोच में पड़े होंगे कि उन्हें किस तरह विपक्ष को राजनीतिक तौर पर मात देनी है. नरेंद्र मोदी की इस सोच ने उन्हें दो जगह पहुंचाया. एक तो सर्जिकल स्ट्राइक के जरिए उन्होंने देश के मन को उग्र राष्ट्रवाद की सीमा-रेखा में लाकर खड़ा कर दिया. दूसरा, आर्थिक मोर्चे पर उन्हें गरीबों के पक्ष में खड़ा कर दिया.

नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी का फैसला ये सोच कर लिया था कि इससे उन्हें अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता के लिए 4 लाख करोड़ रुपए मिल जाएंगे और मोटे तौर पर 15 लाख करोड़ रुपए मिलेंगे, जिसमें 4 लाख करोड़ की वो रकम भी होगी, जो ब्लैकमनी या नकली नोट के नाम पर बाजार में चल रही है. दरअसल, भारतीय बाजार में संचालित होने वाली दो नंबर की अर्थव्यवस्था वाली करेंसी मुख्य मुद्रा में आ जाएगी, बैंकों में आ जाएगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 4 लाख करोड़ अतिरिक्त आ गए. 15 लाख करोड़ चलन में थे और वो पैसा भी सफेद हो गया जो अवैध था, वो पैसा भी वैध हो गया जो नकली नोट के रूप में था.

शायद सबसे पहले यही दो श्रेणी के रुपए सफेद हुए और इसमें व्यवस्था ने नकली नोट वालों और काले धन वालों का जमकर साथ दिया. ये सच है कि इससे दो नंबर की अर्थव्यवस्था दो महीने के लिए खत्म हो गई, लेकिन इसे बनाए रखने के लिए कदम नहीं उठाए गए इसलिए आज हम फिर वहीं खड़े हैं. जितना पैसा उस समय काले धन के रूप में सिस्टम में था, उतना ही पैसा काले धन के रूप में बाजार में घूम रहा है.

अर्थव्यवस्था से समानान्तर अर्थव्यवस्था का जो तत्व समाप्त हो गया था वो वित्त मंत्रालय या बैंकों की काहिली से फिर अपने पुराने रूप में पहुंच गया. वो कैश जो अर्थव्यवस्था में वापस आ गया था, नए नोट जारी होने के बाद, सारा कैश लोगों के पास वापस पहुंच गया. माना जा रहा है कि लगभग 80 प्रतिशत पहुंच गया. 20 प्रतिशत भी धीरे-धीरे बाहर आ जाएगा, ऐसा माना जा रहा है.

अर्थव्यवस्था को तो नोटबंदी का कोई फायदा नहीं हुआ, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राजनैतिक फायदा इसलिए हुआ क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सफलतापूर्वक लोगों के दिमाग में ये बात बैठा दी कि वो एंटी रिच (अमीरों के खिलाफ) हैं और हिंदुस्तान के लोगों के मन में ये बात पहुंचना बड़ी बात है. हिन्दुस्तान के लोगों के लिए प्रो पुअर होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना एंटी रिच होना है. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने को एंटी रिच यानि अमीर विरोधी की छवि के रूप में जनता के सामने रखा. गरीब नरेंद्र मोदी के पक्ष में आया और उसने इनमें अपने नेता की छवि देखनी शुरू कर दी.

विपक्ष ने अपनी साख यहां भी खराब की. वो न मोदी का समर्थन कर रहा था, बल्कि भाषा में मोदी का विरोध ज्यादा कर रहा था. इसने गरीबों के मन में एक और बात डाल दी कि विपक्ष उस आदमी के खिलाफ है जो हमारे लिए अमीरों से लड़ रहा है. नरेंद्र मोदी की इस चाल ने हिन्दुस्तान में क्लास वार में गरीबों का पक्षधर होने का एक सार्थक संदेश दे दिया. मोदी गरीबों के साथ हैं और विपक्ष अमीरों के साथ है, ये माहौल मोदी जी ने गरीबों के मन में सफलतापूर्वक प्रवेश करा दिया. भारतीय जनता पार्टी के नेताओं का मानना है कि अब 2019 को लेकर भारत की जनता के मन में न कोई संशय है, न संकोच है. उनका मानना है कि 2019 में दोबारा भाजपा की सरकार बनेगी और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री होंगे.

उत्तर प्रदेश के चुनाव ने इसमें बहुत बड़ा रोल निभाया. पूरा मतदान भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में गया, जबकि कुल वोटों की संख्या का बहुमत कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और मायावती के पक्ष में है, लेकिन सीटें सबसे ज्यादा भाजपा को मिली हैं. उत्तर प्रदेश के इस परिणाम ने आने वाले सात सालों के लिए नरेंद्र मोदी का रास्ता लगभग साफ कर दिया है.

योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना भी नरेंद्र मोदी के पक्ष में गया. नरेंद्र मोदी को उत्तर प्रदेश में एक ऐसे सख्त चेहरे की जरूरत थी, जिसके ऊपर भ्रष्टाचार का आरोप न लगा हो और जो अपने मन, वचन और कर्म से नरेंद्र मोदी के बनाए हुए रोड मैप पर चलने में आनाकानी न करे. योगी आदित्यनाथ इसमें एकदम सही बैठे. भारतीय जनता पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगर उत्तर प्रदेश से 73 सीटें भारतीय जनता पार्टी को न मिली होतीं, तो केन्द्र में उनकी सरकार नहीं बनी होती.

दरअसल, नरेंद्र मोदी ने दो बड़े राजनीतिक रिस्क लिए. एक नोटबंदी और नोटबंदी से फायदा न होने के बावजूद उस नोटबंदी को राजनैतिक तौर पर अपने पक्ष में मोड़ना. दूसरा, योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना, जिसने भारतीय जनता पार्टी या देश में ये भाव पैदा किया कि मोदी मैरिट के ऊपर चलते हैं. पार्टी के भीतर के गुटों के दबाव को नकारते हैं.

भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश में जीत की भूमिका उज्ज्वला योजना ने तैयार की, जिसमें लकड़ी के चूल्हे की जगह गैस का चूल्हा महिलाओं को मुफ्त दिया गया. इसके असर को विपक्ष नहीं भांप पाया और महिलाओं ने उसी तरह नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट दिया, जिस तरह बिहार में महिलाओं ने नीतीश कुमार के नाम पर वोट दिया था. दूसरा, जनधन योजना ने गरीबों के बहुत बड़े हिस्से को प्रधानमंत्री मोदी की तरफ मोड़ दिया. इस आशा ने और मोड़ा कि अब इन्हीं खातों में 15 लाख रुपए आएंगे, जिसका वादा मोदी जी ने लोकसभा चुनाव के दौरान किया था.

एक और अफवाह उत्तर प्रदेश में फैली थी कि इन खातों में वो 15 लाख आएंगे, जो गरीबों के पक्ष में प्रधानमंत्री ने नोटबंदी द्वारा अमीरों से छीने हैं. परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश पूरी तरह से प्रधानमंत्री के साथ गया, जिसकी कल्पना खुद प्रधानमंत्री या भारतीय जनता पार्टी ने नहीं की थी. विपक्ष तो एक तरीके से राजनैतिक कोमा में चला गया. अखिलेश यादव ने भी नौजवानों को लैपटॉप बांटे थे और अखिलेश यादव को इसका फायदा मिला. लेकिन लैपटॉप परिवार की जिंदगी पर असर नहीं डाल रहे थे, इसलिए बहुतों ने अपने लैपटॉप बेच दिए और बहुतों के धूल की वजह से खराब हो गए. लेकिन गैस के चूल्हे ने पूरे परिवार को एक नई दुनिया दी, जिसमें धुआं नहीं था, कंडे नहीं थे, लकड़ी नहीं थी, एक साफ वातावरण में खाना बनना था. ये सब परिवार के लोगों को चकित कर गया.

तीन साल में अर्थव्यवस्था कैसे पटरी पर आए, इसके बारे में सरकार कुछ खास नहीं कर पाई. प्रधानमंत्री से उम्मीद थी कि वे बड़े बैंक रिफॉर्म करेंगे. बिजनेस या व्यापार के पक्ष में माहौल बनाएंगे यानि ऐसा माहौल बनेगा जिसमें व्यापार छोटे से लेकर बड़े तक तेजी से बढ़ सके. लॉ इनफोर्समेंट एजेंसीज जैसे, ईडी, इन्कम टैक्स, पुलिस ये सब व्यापार के पक्ष में हों, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उल्टे स्थिति बद से बदतर हो गई और ये सारी एजेंसियां इन दिनों व्यापारियों का ही बुरी तरह दोहन कर रही हैं. भारतीय जनता पार्टी के लोगों का साफ कहना है कि जितनी ताकत इन्कम टैक्स और ईडी को दी जा रही है या दी गई है और उसका जितना दुरुपयोग इन दिनों हो रहा है, वो डरावना है. उन्हें लगता है कि आगे इसका और भी दुरुपयोग होगा. मजे की बात ये है कि जनधन योजना दरअसल कांग्रेस के जमाने में बनी थी, जिसके जरिए कांग्रेस डायरेक्ट कैश ट्रांसफर गरीबों के खाते में करना चाह रही थी. वो चाह रही थी कि चाहे वो सब्सिडी हो, सहायता हो या किसी भी रूप में धन की सहायता हो, सब सीधे किसानों को मिले. ये योजना यूपीए ने बनाई थी, लेकिन इसका फायदा नरेंद्र मोदी को मिला.

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