मंत्री बड़ा या पीएमओ
मुझे भारतीय जनता पार्टी के बहुत बड़े नेता ने बिल्ट टू लास्ट किताब का उदाहरण दिया और कहा कि इस किताब को पढ़ना चाहिए. ये किताब कहती है कि जो संगठन व्यक्ति आधारित थे वे तो खत्म हो गए, लेकिन जो संगठन मूल्य आधारित थे या व्यवस्था आधारित थे, सिस्टम आधारित थे वे 100 साल तक चले. उनका कहना है कि भारतीय जनता पार्टी में पहले 100 साल चलने की क्षमता थी, लेकिन अब ये धीरे-धीरे व्यक्ति आधारित पार्टी होती जा रही है. इसलिए ये कितने दिन चलेगी इसका अनुमान लगाना बिल्ट टू लास्ट पुस्तक के फॉर्मूले के हिसाब से बहुत मुश्किल नहीं है.

दरअसल, मंत्रियों का दर्द सुनने वाला कोई है नहीं. बहुत सारे अच्छे मंत्री हैं, उनकी कल्पनाएं हैं, उनके मन में था कि वे मंत्री बने हैं तो देश के लिए ये-ये काम करेंगे. लेकिन जिस तरह की व्यवस्था प्रधानमंत्री ने बनाई है, ब्यूरोक्रेसी आधारित सचिवों के ऊपर, उससे वे अपने आत्मसम्मान का अपमान होते नहीं देखना चाहते. इस वजह से सारी व्यवस्था पीएमओ आधारित हो गई है. सारी फाइलें पीएमओ में हैं. इतने बड़े देश में क्या होना चाहिए, क्या नहीं होना चाहिए, वो चाहे मंत्री हों या सचिव हों, वो पीएमओ के चेहरे की तरफ देखते हैं. कोई अपनी जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहता.

जब पीएमओ से निर्देश आ जाते हैं, तब उसके ऊपर काम शुरू होता है. फैसले देरी से होते हैं. पीएमओ की भी एक क्षमता है. 48 घंटे का काम 24 घंटे में नहीं किया जा सकता, ये केंद्रीकरण बहुत सारी चीजों के ऊपर बैठा हुआ है और पीएमओ की वजह से बहुत सारे फैसले नहीं हो पा रहे हैं. गुजरात मॉडल से आज का मॉडल बिल्कुल विपरीत मॉडल है.

गुजरात में कोई भी चीज चीफ मिनिस्टर सेंट्रिक नहीं थी, सीएमओ सेंट्रिक नहीं थी. हर मंत्री का अपना दायित्व था, उसे टार्गेट दे दिया था उस समय के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने. सब अपना-अपना काम कर रहे थे, नतीजा दे रहे थे और नरेन्द्र मोदी जी उनको मॉनिटर कर रहे थे. लेकिन जब वे प्रधानमंत्री बने हैं, तो उन्होंने बिल्कुल इससे उल्टा काम किया है. उन्होंने किसी को कोई टार्गेट नहीं दिया, किसी को कोई विजन नहीं दिया, प्रिंसिपल्स दिए, लेकिन उनके ऊपर काम करने का अधिकार राजनीतिक व्यक्तियों को नहीं बल्कि नौकरशाही के लोगों को दे दिया.

प्रधानमंत्री कार्यालय में, जिसे पीएमओ के रूप में जाना जाता है, नियुक्तियों में पीके मिश्रा का फैसला अंतिम होता है और बाकी चीजों में प्रधानमंत्री अपने कैबिनेट सेक्रेटरी नृपेंद्र मिश्रा की सलाह का बहुत सम्मान करते हैं. तीसरा सबसे बड़ा नाम अजीत डोभाल का है, जो हर चीज पर अपनी राय रखते हैं और उस राय का प्रधानमंत्री धार्मिक तौर तरीके से पालन करते हैं.

यानि देश नरेंद्र मोदी, नृपेंद्र मिश्रा, पीके मिश्रा और अजीत डोभाल के कहने पर चल रहा है. मंत्रिमंडल में पहले ये माना जाता था कि अरुण जेटली सबसे ताकतवर मंत्री हैं और प्रधानमंत्री उससे बात करते हैं. लेकिन अब ऐसा लगता है कि अरुण जेटली का मंत्रालय भी उनका अपना मंत्रालय नहीं है, वे भी एक सामान्य मंत्री की तरह हैं और प्रधानमंत्री के अपने नौकरशाहों की टीम वित्त मंत्रालय भी चला रही है.

प्रधानमंत्री के नजदीकी मंत्रियों में से पीयूष गोयल और धर्मेंद्र प्रधान हैं. वित्त मंत्रालय प्रधानमंत्री मोदी स्वयं चलाते हैं और गृहमंत्रालय पूरे तौर पर अजीत डोभाल के कहने से चलता है. नितिन गडकरी में एनर्जी है और विदेश मंत्रालय बाहर के लोगों की सलाह से चल रहा है. रेलमंत्री सुरेश प्रभु को इनका समर्थन है, पर वे बहुत कुछ कर नहीं पा रहे हैं. वेंकैया नायडू को इस मंत्रिमंडल में जी हुजूर-हां हुजूर जैसा व्यक्ति माना जाता है. नरेंद्र मोदी जी ने एक और कमाल का काम किया है कि जितने महत्वपूर्ण मंत्रालय थे, उन सबका अवमूल्यन कर दिया है. जिन मंत्रालयों को पहले कैबिनेट मंत्री देखते थे, अब उन मंत्रालयों को राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार देख रहे हैं. टेलीकॉम, कोल, पावर, ये सब राज्यमंत्रियों के अधीन हैं.

संघ से कभी हां, कभी ना
संघ के साथ प्रधानमंत्री के रिश्ते विचित्र हैं. पहले संघ में वरिष्ठ लोग हुआ करते थे, तो वे पार्टी को सलाह देते थे, मार्गदर्शन देते थे. आज संघ का नेतृत्व और सरकार का नेतृत्व समकक्ष है. यानि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह उनके हमउम्र हैं. इसलिए न वे इनको उस तरह का मार्गदर्शन देने की कोशिश करते हैं, ना नरेंद्र मोदी लेने की कोशिश करते हैं. संघ सरकार के बहुत सारे कामों से असहमत होते हुए भी उससे उलझ नहीं रहा. वहीं दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में पूरे तौर पर संघ के दिशा निर्देशों का या संघ की राय का पालन कर रहे हैं.

क्योंकि संघ का इंटे्रस्ट शिक्षा और संस्कृति में है. दोनों मंत्रालयों में संघ के लोग नीचे से ऊपर तक हैं, चाहे वो राय देने का मसला हो या अमल करने का मसला हो. बाकी मंत्रालयों में संघ का हस्तक्षेप न के बराबर है, क्योंकि प्रधानमंत्री ने इसकी अनुमति नहीं दे रखी है. अब ये रिश्ता न बहुत अच्छा है, न बहुत बुरा है. इसके बावजूद संघ के अनुषांगिक संगठन अपनी नाराजगी समय-समय पर जाहिर करते रहते हैं, लेकिन उससे प्रधानमंत्री को कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि संघ उनके समर्थन में खड़ा नहीं होता. लेकिन उन अनुषांगिक संगठनों को अपनी बात कहने से संघ रोकता भी नहीं है.

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