क्या अब भी लोकमानस में इस तरह के प्रश्‍न नहीं उठने चाहिए? हम गुलाम थे तो नेताओं का वादा था कि देश आजाद होगा तो समाजवाद आएगा, लोकतंत्र कायम होगा, और एक ऐसी सुंदर व्यवस्था बनेगी, जिसमें सबको इमान की रोटी और इज्जत की जिंदगी मयस्सर होगी, लेकिन क्या हुआ? कैसा बन गया देश. कैसे हो गए लोग और क्यों टूटते जा रहे हैं आपस के संबंध, जीवन के संस्कार, समाज और सरकार की व्यवस्था? कोई नहीं कहता कि पैंसठ वर्षों में कुछ नहीं हुआ. जो हुआ है कम नहीं हुआ है. हमारी सैनिक शक्ति बढ़ी है, औद्योगिक साधन बढ़े हैं, उत्पादन बढ़ा है, खेती के तौर-तरी़के बदले हैं.
चुनाव प्रचार का कार्य महीनों पहले शुरू करना होगा. वह पदयात्रा या साइकिल यात्रा के रूप में प्रारम्भ किया जाएगा. वाहनों का उपयोग नहीं करना होगा-यदि करना ही पड़े, तो बहुत सोच-समझकर ही करना होगा. मतदाता को सूचित करने के लिए नोटिस पर्याप्त होगा. छपे पोस्टरों का उपयोग करने के बजाय दीवारों पर लिखने की परिपाटी अपनानी होगी. अगर आगामी आम चुनाव में सभी लोक-उम्मीदवार चुनाव हार जाएं, तो कुल मिलाकर उसका क्या असर पड़ेगा, इस पर भी चर्चा चली थी. एक राय तो यह थी कि इसके कारण हमारा आंदोलन बहुत पीछे धकेल दिया जाएगा. दूसरी राय यह थी, और यही मेरी अपनी राय भी है कि हमारा प्रयास ही अपने-आप में बहुत महत्वपूर्ण है. इस प्रयास द्वारा नए विकल्प की संभावना लोगों के सामने उभरेगी और भले ही लोक-उम्मीदवार चुनाव न जीत सकें, लेकिन उनका असर मतदाताओं के मानस पर पड़ेगा और कुछ बाद में वह महसूस कर सकेंगे कि यदि उनकी मदद से लोक उम्मीदवार जीत जाते तो अच्छा होता. यहां यह बात साफ-साफ समझ लेनी है कि इस सारे प्रयत्न का परिणाम इस बात पर निर्भर करेगा कि इसके लिए हम कितनी पूर्व तैयारी कर पाते हैं और इसके परिणामस्वरूप आम लोगों के बीच में हमारे आंदोलन के लिए कितनी शक्ति पैदा हो चुकी होगी.
लोगों से हमें जो प्रतिसाद प्राप्त होगा. वही अतंतोगत्वा चुनाव परिणाम के रूप में सामने आएगा. इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यदि आम चुनाव आने के पहले काफ़ी गहराई तक जन-आंदोलन फैल जाए, तो अनेक अप्रत्याशित क्षेत्रों के मतदाता इस प्रयोग को आज़माने के लिए आगे आ सकते हैं. यदि हम अपने रचनात्मक और आंदोलनात्मक मोर्चे पर असफल सिद्ध हुए, तो यह प्रयास न करने की भी नौबत आ सकेगी.
टीम यानी प्रतिबद्ध नेतृत्व
जिन लोगों को वर्तमान संकट और इसके विकल्प की साफ-साफ समझ है, ऐसे लोगों को नीचे के स्तर से लेकर प्रखंड, ज़िला, प्रदेश और राष्ट्र स्तर तक की एक टीम को प्रकट होना होगा, जो लोगों के प्रतिसाद को ठीक दिशा दे सकें. ये टीमें अथवा कुल मिलाकर एक राष्ट्र स्तरीय टीम सर्व सेवा संघ, लोकतांत्रिक समाज लोक के विभिन्न दायरों के होंगे, जो वर्तमान संकट और इसके निराकरण के उपायों के प्रति एकमत होंगे. आपस में मिल-जुलकर सोच-विचार करने और मिले-जुले ढंग से सक्रिय होने के क्रम में परस्पर भरोसा और साथीपन की एक ऐसी भाषा बलिष्ठ होगी, जो उस टीम को आंदोलन का एक शक्तिशाली औज़ार बना देगी. किसी नए संगठन की स्थापना की बात हमारे मन में नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय-स्तर पर तथा उसके नीचे के स्तरों पर भी समुचित समायोजन के लिए एक संगम की आवश्यकता होगी. एक बार काम शुरू हो जाने पर काम करने के उपयुक्त तौर-तरी़के समयानुसार विकसित होते रहेंगे.
प्रस्तावित टीम अपने सामने कुछ ऐसे निश्‍चित लक्ष्य रखेगी, जहां उसे पांच वर्ष की अवधि में पहुंचना है. वे लक्ष्य निम्नलिखित होंगे.
1-निवेदन के अनुरूप जितना संभव हो, उतने व्यापक पैमाने पर लोगों को जागरूक और शिक्षित करना.
2-समर्पित साथियों को जुटाना और उन्हें प्रशिक्षित करना
3-अधिक-से-अधिक क्षेत्रों में नीचे के स्तर पर सघन कार्य प्रारंभ करना. इनसे निम्नलिखित संभावनाएं प्रकट होंगी.
4-अनेक ऐसे गांव हो सकते हैं, उनकी संख्या हजारों तक पहुंच जाए-उभर कर सामने आ जाएं जो स्थानीय स्वराज की इकाई के रूप में स्वशासन चला रहे होंगे.
राष्ट्र के पुननिर्माण के लिए राष्ट्र का आवाहन
1-वादा और वास्तविकता
हम कहां हैं? और किधर जा रहे हैं?
गांव से लेकर राजधानियों तक रेल में, बस में, चौराहों पर, खेत खलिहान में, शायद ही कोई आदमी होगा, जिसके मन में यह प्रश्‍न नहीं उठ रहे हों. क्यों आज हर जगह इतने असंतोष और असमाधान की हवा बह रही है? क्या इसलिए कि भारत का नागरिक वर्तमान से पीड़ित और भविष्य से भयभीत हो गया है?
कल क्या होगा? हमारे बच्चों का क्या होगा? समाज कहां जाएगा? यह कुछ प्रश्‍न हैं जो दिनों-दिन राष्ट्र के चित्त को भय और आशंका से भरते जा रहे हैं. राह देखते-देखते, दस पांच नहीं, पूरे पैंसठ वर्ष बीच चुके.
क्या अब भी लोकमानस में इस तरह के प्रश्‍न नहीं उठने चाहिए? हम ग़ुलाम थे तो नेताओं का वादा था कि देश आज़ाद होगा तो समाजवाद आएगा, लोकतंत्र कायम होगा, और एक ऐसी सुंदर व्यवस्था बनेगी, जिसमें सबको ईमान की रोटी और इज़्ज़त की ज़िंदगी मयस्सर होगी, लेकिन क्या हुआ? कैसा बन गया देश? कैसे हो गए लोग और क्यों टूटते जा रहे हैं आपस के संबंध, जीवन के संस्कार, समाज और सरकार की व्यवस्था? कोई नहीं कहता कि पैंसठ वर्षों में कुछ नहीं हुआ. जो हुआ है कम नहीं हुआ है. हमारी सैनिक शक्ति बढ़ी है, औद्योगिक साधन बढ़े हैं,
उत्पादन बढ़ा है, खेती के तौर-तरी़के बदले हैं. यह सब हुआ है, लेकिन जो हुआ है, वह उसी लकीर पर हुआ है, जो अंग्रेज़ बना गए थे. ग़ुलामी के बाद आज़ादी में राष्ट्र की दिशा नहीं बदली, मूल्य नहीं बदले, व्यवस्था नहीं बदली, संबंध नहीं बदले. वही प्रशासन, वही शिक्षा, वही न्याय और वही रीति-नीति, जो अंग्रेज़ी ज़माने में थी, वही आज भी है. तब भारत और इंग्लैंड का उपनिवेश था, आज देश के पांच लाख गांव शहरी अर्थनीति के उपनिवेश हैं-अपना कच्चा माल सस्ता बेचने वाले, और शहरों का तैयार माल महंगा ख़रीदने वाले, एक देशी उप-निवेशवाद के फांस में जकड़े हुए. मल्टीनेशनल से लेकर नेशनल और लोकल तक शोषण की सीढ़िया बन गईं हैं, जो रोज़ मज़बूत होती जा रहीं हैं. अरबों रुपये ख़र्च करके सरकार ने विकास की गंगा बहाई, लेकिन जनता किनारे-किनारे खड़ी देखती रह गई, स्नान का पुण्य प्रसाद नहीं पा सकी. एक के बाद दूसरी सरकारी योजना बनती चली जाती है. फिर भी दरिद्रीकरण की अबाध गति पर अंकुश नहीं लग पाता, विषमता नहीं घटती और बेरोज़गारी बढ़ती चली जाती है. सामान्य आदमी, बेबस और हैरान, अपने चारों ओर विपन्नता के फैलते समुद्र में समपन्नता के कुछ बिखरे द्वीप देखता है और पूछता है क्या भारत दो है, एक उनका, एक हमारा? क्या ऐसे ही भारत का वादा था?

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