महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने 1863 में स्थापित किया हुआ ! शांतिनिकेतन के उपासना मंदिर के न्यासीयो के प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्र के संबंध में ! ( कांच का मंदिर भी बोला जाता है ! )
यह आजके टेलीग्राफ नाम के! कोलकाता से छपने वाले अंग्रेजी अखबार की खबर है ! इसी तरह टेलीग्राफ में एक लेख भी थोडे दिन पहले अभिजित नाम के लेखक का ! अमात्य सेन के खिलाफ विश्वभारती विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति किस तरह से बोलते रहते है ! इस बारे में विस्तृत जानकारी देते हुए ! और रविंद्रनाथ टागौर के रक्तकरबी नाटक के उध्दरणो को देकर बहुत ही अच्छी तरह खबर ली है !


आज के टेलीग्राफ मे महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने 1863 में स्थापित किया हुआ ! न्यासीयो ने विश्वभारती विश्वविद्यालय के कुलगुरू जो प्रधानमंत्री होते हैं ! तो उन्हें शांतिनिकेतन के महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने 1863 में स्थापित किया हुआ ! प्रार्थना मंदिर में वर्तमान कुलपति प्रो विद्युत चक्रवर्ती, शांतिनिकेतन के संस्थापक तथा अन्य बुजुर्ग लोगों के खिलाफ एक प्रचार तंत्र के तहत लगातार बोलते रहते हैं ! “कि तक्रार प्रधानमंत्री को न्यास के वर्तमान सचिव अनिल कोनार के हस्ताक्षर से भेजा गया है !” “कि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने शुरू किया हुआ उपासनागृह का दुरुपयोग करने के लिए मनाही करने के लिए विशेष रूप से लिखा है !”

Slander against Amartya Sen by Visva-Bharati’s officials is unbecoming of its legacy

The Basanta Utsav — the festival of colours at Visva-Bharati University in Santiniketan — got converted into a closed affair a few years ago. The declared objective was the purported prevention of desecration of a place meant for knowledge by the external world. This festival had a long heritage of social gathering and shared joy. To me, this marked a moment of a great leap backward for a university born to foster the spirit of sharing and cultivating knowledge without boundaries. This journey backward has now degenerated into a sincere malady that regularly engages in a celebration named ‘Sen slandering’ these days. To suggest that this metamorphosis suffocates the very tenets of an institution like the Visva-Bharati would be an understatement: the sad reality of the attacks on Amartya Sen is also shameful and unbecoming of the institution.

What we observe today is the culmination of a downhill course that began a good few years ago. The last couple of years have seen the university authorities successfully convert the campus into a space that is vibrant with everything but academics. The university has been gradually slipping in national rankings. It has also been abuzz with stormy conflicts between students-teachers on one side and the authorities on the other. A university once created with the vision of imbibing a spirit of learning through exchange is now a physically-fenced space with the objective of isolating ‘intruders’ and maintaining territorial sovereignty as its guiding principles. Having stripped the university of its laurels, its authorities have now demonstrated their incompetence, once again, by seeking to engage Professor Sen through a display of feudal might. Had he bowed down, it would have represented a moment of accomplishment for these forces. They would probably be happier if Sen, in dismay, decides not to share his thoughts about the direction that modern India is taking. That would not only reveal their mission of silencing dissent but also extend their moment under the spotlight of the media. Not to mention the glory of being able to castigate dissenters, no matter what their global accomplishments are.
Rabindranath Tagore had envisioned these structures in his drama, Roktokorobi, when he wrote about the Jokhhopuri. An arrogant sardar, lacking all insight, relentlessly maintained territorial discipline inside the Jokhhopuri, taking orders from the king and announcing the caging of Ranjan, the symbol of justice. Ironic as it is, the ‘Sen slandering’ that the Viswa-Bharati authorities have engaged in over the last few years, particularly in the past few weeks, reiterates Tagore’s concerns in Roktokorobi.

Professor Sen’s ‘sin’ lies in the fact that he has been a consistent critic of the incipient, planned disintegration of the skeletal remains of Indian civilization at the hands of a religion-centric political force. Sen preaches of an India that is the inheritor of a historical-philosophical lineage that is much broader than what is being portrayed as the dominant discourse today with active patronage from the government. He expresses his thoughts and convictions clearly. This irks some as much as it enthralls many. In all his writings and speeches, Sen relentlessly talks of the need for arguments and debates in the process of attaining social justice. This is precisely the role that a public intellectual is expected to play in any society. Of course, he frequently steps beyond the narrow domains of the chalk circle the governors draw most opportunistically for delineating intellectual brevity. Such designs only favour the process of the domestication of intellectuals, as has happened fairly vigorously and successfully in India in the past few years.

A perfunctory democracy has periodically frowned upon, drowned and incarcerated public intellectuals who have expressed spirited and divergent views, often labelling them inimical to the national interest. These are the popular methods of stigmatisation before lancing attacks are mounted. This is precisely what Sen has been experiencing at the present. These traits are generally born out of insecurity against public opinion and are characteristic of Macbethian dispensations.

It is evident that Visva-Bharati authorities today consider their job to be focused largely on one goal: proving that intellectuals like Sen are deceptive and anti-national. The university’s attempts to impose its land-measuring tape over Sen’s abode were symbolic of a mob trying to nail a priest who only cautioned and lit light in a haze while trying to rationalise the strengths and assets of an ancient civilisation that has weathered many a storm, a civilisation that has always advocated accommodation, as opposed to exclusion, of ideological opponents.

From being an institution of open learning and debate, Visva-Bharati today resembles an entity that is insecure and unsure of what it stands for and intolerant of the proponents of opposing ideas. Just as the world shuddered when Salman Rushdie’s attacker was hailed, India is shaking in anger as dirt is being strewn across a green carpet in Santiniketan. It is time that creative pursuits prevail there over mercenary behavior and resurrect the tradition of harmony as well as peace without further delay

अनिल कोनार बाबु को वर्तमान प्रधानमंत्री के बारे में कितनी जानकारी है ? मुझे पता नहीं है ! लेकिन मै अनिल बाबु को बताना चाहता हूँ ! ” कि कुलपति प्रो. विद्दूत चक्रवर्ती की मजाल नही की वह इस प्रकार की हरकतों के विश्वभारती विश्वविद्यालय परिसर में करेंगे ! यह उन्हें दिए गए विशेष जिम्मेदारी के तहत वह कर रहे हैं ! या उन्हें सिर्फ विश्वभारती विश्वविद्यालय की विरासत को खत्म करने के लिए विशेष रूप से भेजा गया है ! होली के उत्सवों से लेकर पौष मेला बंद करने की कृतीया उसके प्रमाण है ! उसी तरह अमित शाह या राजनाथ सिंह जैसे लोगों को विश्वभारती के विद्यार्थियों के सामने बुलाकर कौन सा अकादमिक अनुसंधान के क्षेत्र में योगदान होने वाला है ?


उसी प्रकार विश्वभारती विश्वविद्यालय के विद्यार्थीयों की किसी समस्या को लेकर होने वाले धरना – प्रदर्शन के उपर खुद कुलपति अपने हाथों में पत्थर लेकर फेंकने के मिडिया कवरेज देखने के बाद मेरे मन में आया कि शायद भारत के शैक्षणिक संस्थानों के इतिहास में पहली बार कोई संचालन करने वाले व्यक्ति के तरफसे विद्यार्थियों के उपर हमला करने की कृती एक क्रिमिनल मानसिकता का परिचायक है ! और ऐसे आदमी को एक क्षण के लिए भी जिस जगह का नाम शांतिनिकेतन हो वहाँ पर रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है !


इसी तरह क्षिति मोहन सेन 1901 में रविंद्रनाथ टागौर जब पाठाभवन की शुरुआत कर रहे थे उस समय के उनके सहयोगी साथियों में से एक जिन्होंने अपने खुद के पैसों से जमीन खरीदने के बाद अपने मकान का निर्माण किया है ! और अपने मृत्युपत्र में अपने बेटी के बेटे अमात्य सेन के नाम पर करने की बात लिखी हुई है और शिवडी कलेक्टर कार्यालय से उसका नामांकन किया गया है ! लेकिन उसके बावजूद विद्युत चक्रवर्ती ने अत्यंत हिन दर्जेका प्रदर्शन करते हुए उस जमीन पर विवाद खड़ा करने की कोशिश की है !


यह तो बहुत ही व्यक्तिगत स्तर की बात है ! लेकिन महर्षी देवेन्द्रनाथ ठाकुर और उनके सुपुत्र विश्वकवी रविंद्रनाथ टागौर की वैश्विक स्तर पर सोच विचार और उस मे समस्त सृष्टि जिसमें मनुष्य से लेकर हर तरह के जिवजंतू के कल्याण के लिए उन्होंने किया हुआ संपूर्ण चिंतन और उसपर लिखा गया संपूर्ण साहित्य जो देश, जाति, धर्म, संप्रदाय तथा लिंगभेद से उपर उठकर एक वैश्विक स्तर पर की दुनिया के निर्माण के लिए विशेष रूप से प्रयोग किए गए हैं ! उन्हें उग्र हिंदू राष्ट्रवाद में परिवर्तन करने के लिए विश्वभारती विश्वविद्यालय में विद्युत चक्रवर्ती ने जो कुछ शुरू किया है वह ज्यादा गंभीर है ! और इसीलिये यह आदमी एक क्षण के लिए भी विश्वभारती विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर नही रहना चाहिए ! यही मांग करने की आवश्यकता है ! अन्यथा मुझे नहीं लगता कि आने वाले समय में विश्वभारती विश्वविद्यालय की सैध्दांतिक और वैचारिक विरासत बच पायेगी !


और यह मामला सिर्फ शांतिनिकेतन के विश्वभारती विश्वविद्यालय में ही नही ! समस्त भारतीय केंद्रीय विश्वविद्यालयों में मई 2014 के बाद से तुरंत ही ! दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से लेकर जामिया मिलिया विश्वविद्यालय से लेकर अलिगढ के विश्वविद्यालय तथा बनारस, हैदराबाद से लेकर जितने भी केंद्रीय विश्वविद्यालय है सभी मे कम – अधिक – प्रमाण में सभी जगहों पर एक प्रोग्राम के अंतर्गत शुरू किया गया है ! राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तथाकथित विद्यार्थियों के संघठन 214 के मई माह में नरेंद्र मोदीजी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और सबसे पहले दिल्ली के जेएनयू को भारत विरोधी करार देते हुए टुकड़े – टुकड़े गैंग और अपने मर्जी के टी वी चैनलों पर जेएनयू के विद्यार्थियों के नेताओं के मुहमे झुठी बातें फैला कर संपूर्ण देश में एक अफरा-तफरी का माहौल बनाना शुरू कर के नजिब नाम के बायोटेक्नॉलॉजी के अत्यंत बुद्धिमान विद्यार्थी के माही नामके होस्टेल मे रात के दो बजे घुसकर उसके साथ आर एस एस के विद्यार्थीयो ने मारपीट करने के बाद वह आज आठ साल से भी अधिक समय से गायब है !

New Delhi, Jan 05 (ANI): Two boys and a girl wearing masks with holding sticks seen inside the Jawaharlal Nehru University (JNU) in New Delhi on Sunday. (ANI Photo)

उसी तरह मौलाना आझाद ने शुरू की हुई जामिया – मिलिया विश्वविद्यालय में जेएनयू के जैसा ही बदनामी की मुहिम और गुंडागर्दी शुरू की और इस तरह भारत की सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एक साजिश के तहत हिंदूत्ववादी तत्वों ने गुंडों बुलाया और आरुषि घोष के साथ मारपीट की और लड़कियों के होस्टल में घुसकर तोडफोड और उन्हें रोकने वाले शिक्षकों को भी मारने पीटने के वीडियो मौजूद हैं ! और संघ के सब से प्रिय उत्सव में गुरुपौर्णिमा उत्सव होता है ! यह संघ के स्वयंसेवकों की गुरुओ के प्रति आदर भाव प्रकट करने की कृती को क्या कहेंगे ? विश्वविद्यालय के कर्ताधर्ताओं की असंवेदनशीलता को देखते हुए ! मै अपने जीवन में भारत के शैक्षणिक संस्थानों में पुलिस के भेस में संघी गुंडागर्दी पहली बार देखा हूँ ?

क्योकि वर्तमान समय की सरकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक ईकाई की सरकार होने के कारण ! वह संघ का उग्र हिंदूत्व राष्ट्रवाद का अजेंडा लेकर काम कर रहे हैं ! इसलिए सबसे पहले उन्होंने विश्व विद्यालय अनुदान आयोग के पंख काटकर ! ( स्मृति इरानी को जब मानव संसाधन मंत्री बनाया था तब ! ) और सभी केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपतियों को बदल कर ! अपने हिंदूत्ववादी अजेंडा को अमली जामा पहनाने की क्षमता रखने वाले लोगों को विशेष रूप से भेजा गया है ! प्रोफेसर विद्युत चक्रवर्ती भी उसी कड़ी के रूप में भेजे गए हैं !


2014-15 का जेएनयू तथा जामिया और अलिगढ तथा हैदराबाद की घटनाओं को याद किजिए ! कन्हैया कुमार और उसके साथियों को झुठे मुकदमे में फसांकर जेल भेज दिया था ! जो कोर्ट ने बरी कर दिया ! लेकिन उसी जेएनयू का बायोटेक्नॉलॉजी का नजिब नाम का विद्यार्थी ! माही होस्टेल से रात के दो बजने बाद ! आज आठ साल होने वाले हैं ! लेकिन उसका कोई अता-पता नही है ! और नजिब की माँ मेरा बेटा कहाँ है के ? पोस्टर लेकर खडी है !


हैदराबाद की केंद्रीय विश्वविद्यालय में के ! एक दलित विद्यार्थि रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए ! विशेष रूप से आखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और कोई स्थानीय बीजेपी के विधायक के कारण रोहित की आत्महत्या की कहानी है ! लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई है !
इसलिए अनिल कोनार बाबूजी को मै बताने की कोशिश कर रहा हूँ ! “कि विश्वभारती विश्वविद्यालय में विद्दूत चक्रवर्ती ऐसा कुछ भी नहीं कर रहे हैं ! जो भारत के अन्य केंद्रीय विश्वविद्यालय में नहीं हो रहा है ! यह पूरी तरह से सावरकर – गोलवलकर के सपनों का उग्र हिंदू राष्ट्रवाद बनाने की योजना के अंतर्गत जितनी भी शिक्षा संस्थानों बीजेपी के अधीन है ! उनमें सभी मे ! कही मौलाना आझाद की, तो कहीं जवाहरलाल नेहरू की, बदनामी की मुहिम चला रखीं है तो, कहीं महात्मा गाँधी जी की, तो कहीं डॉ बाबा साहब अंबेडकरजी, तो कहीं महात्मा ज्योतिबा फुले की, तो दक्षिण मे नारायण गुरु से लेकर, रामास्वामी नायकर, बिहार उत्तर प्रदेश में डॉ. राम मनोहर लोहिया तथा जयप्रकाश नारायण के बारे में ! मतलब जो भी महान विभुतीयो ने गंगा – जमनी संस्कृति तथा सभी को धर्म जात संप्रदाय तथा लिंगभेद के खिलाफ लिखा – बोला है ! उनका सभी का मूर्ति भंजन का कार्यक्रम बदस्तूर जारी है !


जिस देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की राजघाट की समाधी से निकलने वाली पत्रिका ! “अंतिम जन” के विशेषांक में सावरकर के साथ तुलना करने हुए महात्मा गाँधी जी के बारे में लिखा जाता हो तो फिर और बचा क्या है ? अनिल कोनार बाबुजी ?


इसलिए आज के टेलीग्राफ मे आपका प्रधानमंत्री को लिखे पत्र को देखते हुए हैरानी हुई ! और मैंने तपाक से यह सब लिखा ! अगर आप को ठेस पहुंची हो तो मुझे माफ किजीये ! लेकिन मैंने हमारे देश में पिछले नौ सालों से फासीवाद का भारतीय संस्करण जारी है जो आजसे नब्बे साल पहले जर्मनी में चल रहा था !
डॉ सुरेश खैरनार 10 मार्च 2023, नागपुर

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