इस पृथ्वी पर जीवन महिलाओं के कारण ही संभव हुआ है। (एड्रिन रिच)
यह दिन न केवल स्त्रियों के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि हर मेहनतकश के लिए भी इस दिन का महत्व है, क्योंकि यह दिन संघर्ष का दिन है। आज से एक सौ बारह साल पूर्व हमारी पूर्वज कामगार बहनों ने अपने हकों की खातिर संगठित प्रतिरोध शुरू किया था। बड़ी संख्यां में योरोप व अमेरिका की कामगार स्त्रियां कारखाना मालिकों की परवाह किए बिना सड़कों पर उतर आयीं थीं। उस दिन से आज तक अनगिनत स्त्रियों ने अपने हकों की खातिर बलिदान दिये हैं और उनका संघर्ष सतत जारी है… पितृसत्ता से संघर्ष बराबरी का संघर्ष, इन्सान समझे जाने का संघर्ष, आजा़दी व अस्मिता का संघर्ष !!!
आज केवल जश्न मानाने का ही दिन नहीं है. बल्कि 8 मार्च के इतिहास को समझने की जरूरत है. आज के दिन पहली बार 1887 में इंग्लैंड की माचिस मजदूरिनों ने कारखानों की अन्धेरी बन्द कोठरियों में 18 से 20 घण्टे काम की अमानवीय शर्तों के विरोध का बिगुल फूंका था। इस दिन 1857 में अमेरिका के न्यूर्याक शहर में कपड़ा बनाने वाली मजदूरीनों ने 16 घंटे काम की अमानवीय शर्तों का विरोध दर्ज किया था। इन स्त्रियों ने कार्यस्थल की खराब परिस्थितियों, कम वेतन के विरोध में हड़ताल की थी। उसके दो साल बाद ही 8 मार्च के दिन स्त्रियों ने श्रमिक यूनियन बनाई थी। 1908 में पन्द्रह हज़ार मजदूर महिलाएं 8 मार्च को महत्वपूर्ण मानते हुए इसी दिन काम के घंटे कम करने, बेहतर वेतन व सभी स्त्रियों के लिए मताधिकार की मांग को लेकर न्यूर्याक की सड़कों पर उतरी थी। इस बार उनका नारा था ‘रोटी और गुलाब’. इसमें रोटी आर्थिक सुरक्षा का प्रतीक थी और गुलाब बेहतर जीवन का प्रतीक था. इन आन्दोलनों से प्रभावित होकर 1910 को डेनमार्क के कोपनहेगन में समाजवादी विचारों की जर्मन नेत्री क्लारा जेटकिन ने एक विश्व स्तरीय स्त्री सम्मेलन आयोजित किया और आठ मार्च को स्त्री संघर्षों के प्रतीक रूप में अन्तर्राष्ट्रीय स्त्री दिवस के रूप में स्थापित करने की घोषणा की। इस दिन 17 देशों से आयी 100 महिला प्रतिनिधों ने एक प्रस्ताव परित कर एक निश्चित तिथि निर्धारित की थी. तब से लेकर आज तक आठ मार्च को पूरी दुनिया में कामगार स्त्री दिवस के रूप में मनाया जाता है। क्योंकि इन लम्बे संघर्षों के परिणाम स्वरूप ही काम के 8 घण्टे तय हुए, उनको पुरुषों के बराबर मताधिकार का अधिकार दिए जाने की शुरुआत हुई थी. तभी से हर स्तर पर अपने हक हासिल करने की दिशा में स्त्रियां लगातार आगे बढ़ती रहीं हैं..
भारत में स्त्री दिवस मनाने की शुरूआत 1970 के बाद ही हुई है। किन्तु कहीं भी हमारी पाठय पुस्तकों में इस दिन के इतिहास का जिक्र नहीं किया जाता है। आठ मार्च को महज उत्सव के रूप् में मनाने की परम्परा को स्थापित कर इसको एक तरह का अनुष्ठान बना दिया गया है। जबकि यह दिन सही मायनों में कामगार स्त्रियों के संघर्ष और बलिदान का दिन है। आज मीडिया और तमाम संस्थाएं कई बार सोचे-समझे तरीके सच्चे संघर्षों पर पर्दा डालकर स्त्री मुक्ति को गलत तरीके से स्थापित करने का प्रयास करती हैं. कई जगहों पर भडकीले अंदाज से फैशन प्रतियोगिता तथा अन्य प्रकार की प्रतियोगिता आयोजित की जाती हैं। जिनमें स्त्रियों के साहसी रूप को कम बल्कि उनकी नाजुक व स्त्रियोचित छवि को अधिक प्रस्तुत किया जाता है। कुछ प्रगतिशील स्त्रियों के संगठन जरूर आठ मार्च के इतिहास को मेहनतकश स्त्रियों के संघर्षों और बलिदान के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहते हैं.
आज जब स्त्रियों का जीवन ज्यादा असुरक्षित और संघर्षमय होता जा रहा है। देश की लगभग 93 प्रतिशत आबादी मंहगाई, गरीबी, बेरोजगारी व बुनियादी सुविधाओं से वंचित की जा रही है, स्त्रियों पर होने वाली तमाम प्रकार की हिंसा बढ़ती जा रही है. कानून रूप में स्त्रियों को कुछ कानूनी अधिकार मिलने के बावजूद उनका व्यवहार में उपयोग कम हो पा रहा है. क्योंकि आमतौर पर भारतीय समाज में आज भी सामन्ती पितृसत्ता के मूल्यों के अनुरूप ही स्त्री की भूमिका को देखा जाता है. वर्ग और जातीय सोपान के आधार पर कम संख्या में स्त्रियां अपने अधिकारों का उपयोग कर पाती हैं. बहुसंख्यक स्त्रियां आज भी पिछड़े स्त्री विरोधी मूल्यों, उपभोक्तावादी संस्कृति और राज्य के जनविरोधी चरित्र के कारण अपने अधिकारों का उपयोग करने से वंचित कर दी जाती हैं. कई बार स्त्रियों को अपनी काबिलियत को प्रस्तुत करने का अवसर ही नहीं मिल पाता है। गरीब परिवारों की स्त्रियों की स्थिति तो और भी ज्यादा खराब होती है जहां उनको रोज़-रोज़ की जरूरतों के लिए खुद को खपा देना होता है. लेकिन यह भी सच है कि स्त्रियों के संघर्ष कभी रुके नहीं हैं बल्कि आज स्त्रियाँ हर स्तर पर पहले से ज्यादा अपने होने को स्थापित करने का साहस कर रही हैं. लेकिन पितृसत्तात्मक तानेबाने वाले इस समाज में उनके उपर होने वाले शोषण और हिंसा में भी तीव्रता आयी है। वह न केवल घरेलू हिंसा का शिकार हो रही है बल्कि उनको रास्तों पर, कार्यस्थल पर भी कई प्रकार की हिंसा का सामना करना पड़ता है। आज तमाम प्रतिक्रियावादी ताकतें फिर से स्त्रियों के इतिहास को अन्धेरे में धकलने का प्रयास कर रही हैं।
जितनी तेजी से उद्योगों का निजीकरण हो रहा है, कारपोरेट संस्कृति स्त्री के संघर्ष की छवि को धूमिल करने पर उतारू है. पूंजीपति पिछड़े क्षेत्रों में कारखाने स्थापित करके मुनाफा कमाने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं। लम्बे संघर्षो से हासिल किये गये काम के आठ घण्टे के नियम को अब हर जगह ताक पर रखकर 12 से 14 घण्टे काम लिया जाना सामान्य माना जाने लगा है. हर किसी के लिए मजदूरी की शर्तें लगातार अमानवीय होती जा रही हैं। श्रम के मानकों को बदलकर जनविरोधी बनाया जा रहा है। श्रमिकों के हड़तालों और प्रतिरोधों को संकुचित और प्रतिबंधित करने के कानून बनाये जा रहे हैं। लेकिन उसके बावजूद कहीं दबे और कहीं ऊँचे स्वरों में ही सही संगठित व असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों के भीतर शोषण के प्रतिरोध की आवाजें संगठित हो रही हैं.
उन्नीसवीं सदी में योरोपीय देशों में हुए मेहनतकशों के प्रतिरोधों के परिणामस्वरूप ही मजदूर नेताओं ने पूरी दुनिया के मजदूरों के एक होने का आहवान किया गया था। लेकिन आज मजदूरों की एकता खण्डित हो रही है। पिछड़े देशों के दलाल पूंजीपति, शासकों की पीठ पर सवार होकर पूरी दुनिया के मेहनतकशों को लूटने के लिए जीन कस रहे हैं। साम्रज्यावादी देश इनके साथ सामरिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से एकजुट होकर मेहनतकश आबादी को तबाह करने के षड्यंत्र कर रहे हैं. आवाम की आवाज़ को हर सम्भव तरीके से दबाने का प्रयास किया जा रहा है। इन्हीं नीतियों के कारण आज दुनिया की बहुसंख्यक आबादी बदहाल जीवन जीने को मजबूर हो रही है.
आज संघर्षों की पहले से ज्यादा आवश्यकता है। स्त्री दिवस को कामगार स्त्रियों के संघर्ष के रूप में स्थापित करने की आवश्यकता है। क्योंकि आज न केवल स्त्रियों बल्कि सभी श्रमिकों से उनके अधिकार छीने जा रहे हैं. सरकारी क्षेत्रों में नौकरी के अवसर कम कर दिये गये हैं और नई भर्तियाँ लगातार सीमित की जा रही हैं. निजी क्षेत्र की वेतन विसंगतियां, मजदूरी के मानकों का दुरुपयोग किया जा रहा है। ठेकेदारी प्रथा के तहत कारखानों में प्रवेश पाने वाले मजदूरों की जिम्मेदारी से कारखाना प्रशासन खुद को अलग करने के लिए श्रमिक नीतियों में सरकार के साथ मिलकर लगातार परिवर्तन करवा रहा है.
हालांकि इतिहास की गति को पीछे नहीं धकेला जा सकता है। लेकिन यदि संघर्षों के विरासत की गति अवरूद्ध हो जाएगी तो लड़ाई अधिक कठिन हो जायेगी. इसलिए संघर्षों की विरासत को आगे बढ़ना हम सबका फर्ज है। हमें यह याद रखना होगा कि जब किसी भी समाज में शोषण और उत्पीड़न की तीव्रता बढ़ती है उसी तीव्रता से प्रतिरोध की आंच भी सुलगती है। हमें अपने पूर्वजों के संघर्षों को याद करते हुए नये रूप में, नयी परिस्थितियों में शोषण की प्रकृति को समझकर उस दिशा में अपने हक-हकूकों को हासिल करने के लिए आगे बढ़ना होगा। समाज में बदलवा हमेशा सचेत प्रयास से ही सम्भव होता है। आज हम सबको आठ मार्च के इस दिन को संघर्ष, बलिदान की विरासत के रूप में सहेजते हुए अपनी भूमिका को भी सुनिश्चत करना चाहिए। तभी यह दिन मात्र आडम्बर व दिखावे का दिन न रहकर स्त्री मुक्ति, संघर्ष, एकता और कामागार स्त्रियों के बलिदानों के इतिहास के रूप में स्थापित हो सकता है.

चंद्रकला एक लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता 

रणधीर कुमार गौतम विश्वनीदम सेंटर फॉर एशियन ब्लूज़मिंग के कार्यकारी ट्रस्टी हैं, जो एक सार्वजनिक बौद्धिक ट्रस्ट है। वह Gandhian School of Democracy and socialism , आईटीएम यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं।

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