कहीं कोई महत्वपूर्ण घटना हो और वहां मीडिया न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? यह मीडिया का युग है और मीडिया के बग़ैर कोई दिन कट ही नहीं सकता. दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक मेला यानी महाकुंभ तो मीडिया का प्रिय विषय है. जहां भी और जब भी कुंभ और अर्द्धकुंभ के मेले लगते हैं, मीडिया वहां की जा रही तैयारियों के साथ ही जुड़ जाता है.

हरिद्वार में 1 जनवरी से 30 अप्रैल 2010 तक यानी चार महीने उत्तराखंड राज्य के पहले महाकुंभ के आयोजन के महीने होंगे. उस अवधि में तीन प्रमुख शाही स्नान और आठ अन्य तिथि पर्वों के स्नान यानी कुल मिलाकर 11 दिन हरिद्वार के प्रमुख स्नान स्थलों पर लाखों आस्तिक हिंदू कुंभ यात्रियों का जमावड़ा रहेगा. इस तरह चार महीनों में उक्त ग्यारह दिन मीडिया के लिए भी खासे महत्वपूर्ण होंगे.

कोई ज़माना था, जब कुंभ-अर्द्धकुंभों की ओर मीडिया या कहें कि अख़बार वालों का ध्यान कम ही जा पाता था. कुंभ की खबरों को भी बहुत कम स्थान मिल पाता था. तब सरकारें व्यवस्थाओं पर पैसा भी कम खर्च करती थीं और इन मेलों का शोरशराबा भी अपेक्षाकृत कम ही होता था. होता भी था, तो ऐन शाही स्नानों के दिनों में ही होता था. लेकिन अब परिस्थितियां बदल गई हैं. अब समाज का हर वर्ग, जिनमें विरक्त साधु-संन्यासी भी शामिल हैं, प्रचार चाहता है और समाचारों में बने रहना चाहता है. अखबार एवं टीवी चैनल इन महापर्वों के काफी पहले से इनकी तैयारियों और उनसे जुड़े लोगों को अपनी कलम की नोंक पर रखते हैं. वे महीनों पहले से इन महापर्वों की चर्चा करना शुरू कर देते हैं. प्रचार और समाचार के प्रति यह आकर्षण हरिद्वार में 1986 के महाकुंभ से आया है. उससे पहले के कुंभ-अर्द्धकुंभों की चर्चा तो केवल मेलाधिकारियों की रिपोटर्‌‌स तक ही सीमित रह जाती थी. 1986 के महाकुंभ में पहली बार व्यवस्था पर सरकार ने भी दस करोड़ रुपये खर्च किए थे. इतनी बड़ी राशि इससे पूर्व कभी खर्च नहीं की गई थी.
1986 का महाकुंभ निर्माण और व्यवस्थाओं की दृष्टि से भी अभूतपूर्व था. तत्कालीन मेलाधिकारी अरुण कुमार मिश्रा और मेला एसएसपी अवध नारायण सिंह ने पिछले कुंभ-अर्द्धकुंभों की व्यवस्थाओं को पीछे छोड़ते हुए पहली बार हरिद्वार में कुंभ के बहाने स्थायी निर्माणों को तरजीह देने की शुरुआत की थी. इसीलिए 1986 का महाकुंभ कई कारणों से ऐतिहासिक हो गया था. लेकिन सुव्यवस्थाओं के साथ-साथ एक बड़ी दुर्घटना के साए ने भी इस कुंभ को ऐतिहासिक बनाया था. उस साल ऐन कुंभ के दिन हरकी पौड़ी के उत्तर में स्थित कांगड़ा घाट को पंत द्वीप से मिलाने वाले पुल को अचानक बंद कर दिया गया. आने वाले यात्रियों का दबाव बढ़ता गया और सुबह के समय करीब 49 स्त्री-पुरुष उस पुल के मुहाने पर कुचल कर मारे गए. स्वतंत्र भारत में महाकुंभ के अवसर पर मची भगदड़ में जनहानि की यह एक बड़ी घटना थी. लेकिन यह पहली नहीं, बल्कि दूसरी घटना थी. इससे पूर्व इलाहाबाद कुंभ में 3 फरवरी 1954 को भगदड़ मचने से करीब 800 लोगों की मौत हो गई थी. 26 अगस्त 2003 को नासिक में भी भगदड़ के चलते कुचल कर 39 लोगों की मौत हो गई थी.
भगदड़ के कारण हर जगह अलग-अलग थे, लेकिन हर जगह जनहानि का कारण भीड़ में कुचला जाना ही था. इलाहाबाद की घटना के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पहल पर अति विशिष्ट व्यक्तियों के कुंभ मेला क्षेत्र में प्रवेश पर रोक का एक नियम हमेशा के लिए ज़रूर बनवा दिया था. 1986 के हरिद्वार महाकुंभ में इस नियम की अवहेलना ही दुर्घटना का एक कारण भी बनी. तब उत्तर प्रदेश, हरियाणा और बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह, चौधरी भजन लाल एवं जगन्नाथ मिश्रा तीनों ही ऐन कुंभ स्नान के दिन हरिद्वार आ गए थे. इन्हीं लोगों के चलते हरकी पौड़ी आने वाली भीड़ को रोका गया और भगदड़ मच गई.
देश में जिस तरह की मीडिया का विकास हुआ है, उसके अंतर्गत विभिन्न कुंभ नगरों में हुए विकास कार्यों से अधिक मीडिया का ध्यान इन महापर्वों पर साधु-संन्यासियों की नागा जमातों, उनके परस्पर एवं व्यवस्था के साथ होने वाले विवादों, उनके अखाड़ों के शाही जुलूसों-स्नानों पर अधिक रहता है. अगर दुर्भाग्य से कोई दुर्घटना घट जाए तो फिर मीडिया की बन आती है.
जबसे देश में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का विकास हुआ है, तबसे समाचार प्रसारण की जल्दबाजी या कहिए कि पहले मैं की होड़ ने कुंभ जैसे अवसरों को भी अधिकाधिक भुनाना शुरू कर दिया है. विभिन्न मीडिया माध्यमों, चैनलों, अखबारों और उनके प्रतिनिधि पत्रकारों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि ने जहां अपने-अपने श्रोता, दर्शक एवं पाठकों को शीघ्र समाचार देने में महारत हासिल की, वहीं मेला व्यवस्थापकों का सिरदर्द भी कई गुना बढ़ा दिया. मेला व्यवस्थापकों पर मीडिया के दोहरे हमले होते हैं. एक हमला तो सीधे-सीधे व्यवसायिक हित के लिए है. हरेक माध्यम को बिज़नेस चाहिए. सो, हरेक की निगाह मेले के भारी-भरकम बजट पर केंद्रित रहती है. दूसरा हमला दायित्व निभाने के लिए होता है. इसके तहत पत्रकार अविलंब समाचार और प्रचार सामग्री चाहते हैं. इस काम में ही व्यवस्था चरमरा जाती है. हर पत्रकार अपने अखबार और चैनल के लिए एक्सक्लूसिव सामग्री के चक्कर में व्यवस्था पर समय-असमय चाहे-अनचाहे दबाव बनाता रहता है. मेले के अधिकांश कार्य इन दबावों के चलते प्रभावित होते हैं. यह अच्छा असर डालते हैं और बुरा भी. मीडिया की जल्दबाजी जब कामों की जल्दबाजी के रूप में सामने आती है तो निराशा ही हाथ लगती है. कई उच्चाधिकारियों का मानना है कि प्रेस वालों के डर से जल्दबाजी में हुए कामों पर ऋृणात्मक असर ही ज्यादा पड़ता है.
इसका एक पक्ष यह भी है कि अपनी तारीफ और तस्वीर छपवाने के लिए अधिकारी मीडिया की लल्लो-चप्पो में ही मशगूल रहते हैं. ठोस काम करने की जगह गणेश परिक्रमा की तर्ज़ पर वे मीडिया की परिक्रमा करके ही कार्य की इतिश्री समझ लेते हैं. इस प्रवृत्ति के चलते मीडिया युग का यह भी एक सच है कि मेले से जुड़े उच्चाधिकारी तीन तरह के कामों में ही सर्वाधिक समय खर्च करते दिखते हैं. पहला अपने उच्चाधिकारियों की बैठकों में जाना, दूसरा अपने मातहतों की बैठकें बुलाना और तीसरा यह कि मीडिया को मैनेज करना. इन तीन कामों में संलिप्त अधिकारी के टेलीफोन अर्दली के पास एक ही रटा हुआ वाक्य होता है, साहब मीटिंग में हैं या फिर साहब इंस्पेक्शन को गए हैं. ऐसे में जनता इंतज़ार के अलावा कर भी क्या सकती है? अधिकांश पत्रकारों की स्थिति भी विकट है. वे बिना मेहनत के सब कुछ पाना चाहते हैं, इसलिए अधिकारियों पर जायज़-नाजायज़ दबाव बनाना उनकी प्रवृत्ति में शामिल हो गया है. एक उच्चाधिकारी ने बताया कि उनके  तीन-चार घंटे तो केवल प्रेस को समाचार बताने और पत्रकारों की बात सुनने- सुनाने में ही में निकल जाते हैं. उनका कहना है कि आज के अधिकांश पत्रकार लिखी-लिखाई, पकी-पकाई रिपोर्ट या खबर चाहते हैं. उनका ध्यान खबर की तरफ कम, विज्ञापन की ओर ज़्यादा रहता है.
महाकुंभ में मीडिया केंद्र को अधिकाधिक सशक्त बनाने की ज़रूरत है. मीडिया केंद्र को इस बार भी आधुनिक जनसंचार सुविधाओं से युक्त बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन पत्रकारों की भीड़ को देखते हुए मुख्य स्नान स्थल हरकी पौड़ी पर हरिद्वार के सवा सौ और देश-दुनिया से आने वाले हज़ारों पत्रकारों, उनके भारी-भरकम संचार साधनों एवं वाहनों को ऐन हरकी पौड़ी तक पहुंचाना प्रशासन व पुलिस के लिए सुरक्षा की दृष्टि से कठिन ही नहीं, असंभव होगा. ऐसे में कुंभ मेला प्रशासन को ऐसी कोई व्यवस्था करनी चाहिए, जो यातायात प्रबंधन में मददगार हो, जिससे मीडिया कैंप में बैठकर ही संपूर्ण स्नान और मुख्य मेला क्षेत्र की गतिविधियों की जीवंत फिल्म चैनलों को उपलब्ध हो जाए. स्टिल और वीडियो दोनों तरह की उच्च कोटि की चित्र सामग्री के लिए संपूर्ण मेले को उच्च तकनीक वाला बनाया जाए. व्यवस्थापक अगर मीडिया को भी एक मोर्चा समझ कर चलेंगे तो ही सफल हो पाएंगे.

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