किसानों ने अपना रुख़ तय करना प्रारंभ कर दिया है. स्वर्गीय प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का शायद यही सपना था. उन्होंने दिल्ली के पास दादरी में किसानों के ज़मीन अधिग्रहण के ख़िला़फ सफल लड़ाई लड़ी. उनके देहांत के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया कि किसान अगर ज़मीन नहीं देना चाहते तो उनकी ज़मीन वापस कर दी जाए. मौत के बाद भी वी पी सिंह जीत गए, रिलायंस हार गया.
दिल्ली से दूर किसानों की छुटपुट लड़ाइयां चलीं, लेकिन उन्हें अख़बारों में और टीवी पर जगह नहीं मिली. अब दिल्ली के नज़दीक अलीगढ़ और मथुरा से होकर गुज़रने वाले यमुना एक्सप्रेस वे के किनारे के किसानों ने ज़मीन अधिग्रहण के ख़िला़फ मोर्चा खोला. बात शुरू हुई थी ग्रेटर नोएडा के बराबर मुआवज़े की मांग को लेकर और अब मांग पहुंच गई है कि ज़मीन अधिग्रहण क़ानून बदला जाए, किसान अपनी ज़मीन देना ही नहीं चाहते. दादरी में भी यही हुआ था, पहले बाज़ार भाव के बराबर मुआवज़े की मांग हुई, बाद में वह ज़मीन अधिग्रहण क़ानून के बदलाव पर जाकर रुकी.

राहुल गांधी को चाहिए कि वह प्रधानमंत्री पर दबाव डालें कि भूमि अधिग्रहण क़ानून में होने वाले संशोधन किसानों के बीच राय के लिए तत्काल प्रसारित किए जाएं. उन पर दूरदर्शन पर गंभीर विचार विमर्श हो. यह इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि बाज़ार के लिए काम करने वाले न्यूज़ चैनलों के लिए यह विषय डेड सब्जेक्ट है. एक तऱफ किसान अलीगढ़ में गोली खा रहे थे, प्रदर्शन कर रहे थे, उस समय दो प्रमुख चैनल मुंबई में एक चौवन वर्षीय महिला के स्वयंवर की ख़बरों पर अपना समय बर्बाद कर रहे थे.

अब तक सरकारें 1894 के क़ानून के तहत किसी भी ज़मीन को अधिगृहीत कर लेती थीं. इस क़ानून के तहत सार्वजनिक हित के नाम पर यह कार्रवाई होती थी. ज़मीन का अधिग्रहण जब सार्वजनिक कामों के लिए होता था तो लोगों को स्वीकार्य था, पर इसका उपयोग पैसे वालों के लिए, बिल्डरों के लिए और बड़े उद्योगपतियों के लिए होने लगा तो इसका विरोध शुरू हुआ. देश भर में बड़े पैमाने पर ज़मीन का अधिग्रहण एसईजेड यानी स्पेशल इकनामिक जोन के लिए हुआ और इसका विरोध भी शुरू हुआ. एसईजेड बनाने का उद्देश्य था विदेशों से व्यापार बढ़ाना, लेकिन एसईजेड बन गए ज़मीन हड़पने का ज़रिया. बड़े-बड़े घराने ज़मीन की कीमत समझ उसे किसी भी कीमत पर संपत्ति में बदलने की होड़ में लग गए. इसमें मदद मिली विभिन्न राज्य सरकारों की, जिन्होंने सार्वजनिक हित शब्द का दुरुपयोग प्रारंभ कर दिया.
उदाहरण के लिए सड़क लें. एक सड़क वह होती है जिस पर आम आदमी चलता है और दूसरी वह होती है जिसे पूंजीपति बनाता है तथा जिस पर चलने का टैक्स देना पड़ता है. इस सड़क की भी अहमियत है, लेकिन इसके लिए ज़मीन का अधिग्रहण सरकार करे और सस्ता भाव किसान को दे, यह ग़लत है. ज़मीन लेनी है तो बाज़ार भाव में किसानों से सीधे कंपनी को लेनी चाहिए. दूसरा उदाहरण सिंगूर का है. टाटा यहां कार का कारखाना लगाना चाहता था, लेकिन स्थानीय किसानों ने विरोध किया. यह क्षेत्र फसल देने वाला था तथा ज़मीन का अधिग्रहण सरकार ने किया था. किसानों का कहना था कि कारखाना वहां लगे, जहां फसल न होती हो, बंजर इलाका हो तथा ज़मीन की कीमत उन्हें बाज़ार भाव पर मिले. टाटा चाहते तो सत्तर किलोमीटर दूर जा सकते थे, जहां बंजर ज़मीन मिल सकती थी. उन्हें केवल थोड़ी सड़क बनानी पड़ती. पर टाटा ने रु़ख अपनाया कि ज़मीन देना सरकार की ज़िम्मेदारी है, वह दे और सड़क के किनारे दे. नहीं देगी तो वह चले जाएंगे. सिंगूर की जनता के आंदोलन ने टाटा का कारखाना नहीं लगने दिया तथा उन्हें गुजरात जाना पड़ा.
इस तरह दादरी के बझेड़ा गांव में अनिल अंबानी ने सरकार की सहायता से का़फी सस्ते भाव में किसानों की ज़मीन ली. पहले सरकार ने अधिगृहीत की, बाद में उसे अनिल अंबानी की रिलायंस को बिजलीघर बनाने के लिए दे दिया. ज़मीन का यह हिस्सा एशिया का सबसे उपजाऊ हिस्सा है. और एक ट्रेंड बन गया है कि किसी न किसी तरह उपजाऊ ज़मीन हड़प ली जाए. किसानों के आंदोलन से यह संभव नहीं हो पाया.
राहुल गांधी अलीगढ़ गए, वहां किसानों से मिले, लौटकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिले. प्रधानमंत्री से उन्होंने भूमि अधिग्रहण क़ानून में परिवर्तन के लिए कहा. प्रधानमंत्री ने कहा कि संसद के अगले अधिवेशन में यह बिल आएगा. राहुल गांधी कालाहांडी (उड़ीसा) भी गए तथा वहां उन्होंने आदिवासियों से कहा कि आपकी ज़मीन आपकी रहेगी. दोनों बातें अच्छी लगीं तथा अगर ये बातें सोच समझ कर कही गई हैं तो नई संभावनाएं भी जगाती हैं. पर हम राहुल गांधी के लिए कुछ बातें लिखना चाहते हैं, ताकि उन्हें पता चले कि अगर संसद के अगले सत्र में आने वाला संशोधन विधेयक इन्हें नहीं समाहित करता तो वह किसानों के साथ धोखा होगा. और उस स्थिति में आज राहुल गांधी के आश्वासन से ख़ुश किसान उस समय उन पर पत्थर फेंकेंगे.
राहुल, यहां से आपके लिए लिख रहे हैं. आप देखिए कि भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक में सार्वजनिक हित की परिभाषा क्या है. इसमें स्पष्ट लिखा होना चाहिए कि सार्वजनिक हित क्या हैं. सार्वजनिक सड़क, सार्वजनिक अस्पताल, सार्वजनिक स्कूल के अलावा सेना के लिए ली जाने वाली ज़मीन ही इस परिभाषा में आनी चाहिए. इस विधेयक में स्पष्ट होना चाहिए कि उद्योगों के लिए बंजर या अ-उपजाऊ ज़मीन ही अधिगृहीत की जाएगी, उपजाऊ ज़मीन नहीं. सार्वजनिक हित के अलावा ज़मीन उद्योगपति सीधे किसानों से ख़रीदेंगे. सरकार बिचौलिए या प्रॉपर्टी डीलर का रोल नहीं निभाएगी. ज़मीन की क़ीमत उसके भविष्य के मूल्य के आधार पर निर्धारित की जाएगी. जिनकी ज़मीन ली जाएगी, उन किसानों के परिवार के कम से कम दो सदस्यों को योग्यतानुसार काम दिया जाएगा. इस क्षेत्र के खेतिहर मज़दूरों को लगने वाले उद्योग में प्राथमिकता के आधार पर काम दिया जाएगा, क्योंकि जब खेती का अधिग्रहण होता है तो उन खेतों में काम करने वाले मज़दूर भी बेकार हो जाते हैं.
राहुल गांधी को चाहिए कि वह प्रधानमंत्री पर दबाव डालें कि भूमि अधिग्रहण क़ानून में होने वाले संशोधन किसानों के बीच राय के लिए तत्काल प्रसारित किए जाएं. उन पर दूरदर्शन पर गंभीर विचार विमर्श हो. यह इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि बाज़ार के लिए काम करने वाले न्यूज़ चैनलों के लिए यह विषय डेड सब्जेक्ट है. एक तऱफ किसान अलीगढ़ में गोली खा रहे थे, प्रदर्शन कर रहे थे, उस समय दो प्रमुख चैनल मुंबई में एक चौवन वर्षीय महिला के स्वयंवर की ख़बरों पर अपना समय बर्बाद कर रहे थे.
राहुल गांधी के बारे में कहा जाता है कि उन्हें बुनियादी सवालों की समझ नहीं है. उन्हें जो लिखकर दे दिया जाता है, बोल देते हैं, पर अगर लिखा भी बोलते हैं तो लिखने वाला धन्यवाद का पात्र है. अब समय आ गया है कि राहुल गांधी किसानों की समस्या को समझें और उनका हल निकालें. अगर हल नहीं निकला तो किसान भी कहीं वही रास्ता न अपनाने लगें, जो नक्सलवादी अपना रहे हैं.
सोनिया गांधी हों या राहुल गांधी, जिसका भी दबाव या समझदारी हो, हमारी सात महीने पुरानी मुहिम कि नक्सलवादियों को देशद्रोही या अपराधी मत समझो, कुछ रंग लाई है. 26 अगस्त को प्रधानमंत्री ने कहा कि नक्सलवादी भी हमारे भाई हैं. यह रुख़ गृहमंत्री चिदंबरम के रुख़ से और भाजपा के रुख़ से अलग रुख़ है. अब ज़रूरत इस बात की है कि राहुल गांधी देश की बुनियादी समस्याओं पर बात करें और शंकाओं के बादलों का बनना रोकें. समस्याएं हैं, उन्हें समझने की शुरुआत किसानों की भूमि समस्या और नक्सलवादियों की मुहिम की जड़ को समझने से की जा सकती है.

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