upभाजपा और नरेंद्र मोदी दोनों के लिए पांच राज्यों में होनेवाला विधानसभा चुनाव किसी अग्नि-परीक्षा से कम नहीं है. इन चुनावों से 2019 के लोकसभा चुनाव का तापमान मिलने वाला है. यही वजह है कि सभी विपक्षी दल और खास कर कांग्रेस किसी भी तरह 2017 के विधानसभा चुनावों में पैवस्त भाजपा के ख्वाब को ध्वस्त करना चाहती है.

इसमें सबसे खास है उत्तरप्रदेश का विधानसभा चुनाव, जहां 2014 के लोकसभा चुनाव में 73 सीटें जीतने के बाद भाजपा ने यह तय मान लिया था कि विधानसभा चुनाव में तो भाजपा की जीत पक्की है. लेकिन आज लोकसभा चुनाव के समय का राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य नहीं है. आज की स्थितियां बदली हुई और घालमेल से भरी हुई हैं, जिसमें कोई भी दल अपनी जीत का दावा नहीं कर सकता.

उत्तर प्रदेश में भाजपा अपना कोई चुनावी चेहरा तय नहीं कर पाई. लिहाजा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम के सहारे ही वह चुनाव लड़ेगी. प्रधानमंत्री के लिए पांच राज्यों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश ही है. इसकी मुख्य वजह मोदी का वाराणसी का सांसद होना भी है. इसीलिए भाजपा ने उत्तर प्रदेश में नरेंद्र मोदी को आगे कर चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है.

भाजपा यह मान कर चल रही है कि मोदी के नोटबंदी के ऐतिहासिक फैसले का फायदा विधानसभा चुनावों में मिलेगा, लेकिन विपक्ष इस कोशिश में है कि नोटबंदी के मसले पर ही भाजपा को चित किया जाए. योगी महंत आदित्यनाथ की उपेक्षा का मसला भी भाजपा की जीत की संभावनाओं पर काली छाया की तरह मंडरा रहा है.

जिन योगी आदित्यनाथ को पहले मुख्यमंत्री का चेहरा बनाए जाने की बात की जा रही थी, उन्हें चुनाव समिति तक में शामिल नहीं किया गया, इसे भाजपा नेता ही दुर्भाग्यपूर्ण बता रहे हैं. भाजपा नेतृत्व ने योगी को प्रत्याशियों के चयन में हिस्सेदारी लेने लायक भी नहीं रहने दिया, जबकि बाहरी दलों से टपके नेताओं को चुनाव समिति का सदस्य बनाया गया. इसे लेकर भाजपा कार्यकर्ताओं में जबरदस्त आक्रोश है.

उधर, उत्तर प्रदेश में सपा के भीतर जारी पिता-पुत्र कलह से भाजपा और बसपा दोनों ही उम्मीद लगाए हैंै कि इस कलह का उन्हें राजनीतिक लाभ मिलेगा, लेकिन अभी इस बारे में कुछ भी निर्णायक रूप से कहना मुश्किल है. सपा का कांग्रेस के साथ गठबंधन हो गया, तो बसपा को नुकसान होना तय हो जाएगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का विकास का मुद्दा आम लोगों को दो तरफ जरूर खींच रहा है.

इसमें बसपा का हाल, उस जीव जैसा हो रहा है, जो दो जीवों के भिड़ंत में गिरने वाले टुकड़े पर ध्यान लगाए बैठा रहता है. समाजवादी पार्टी की टूट से मुस्लिम वोट के संभावित विभाजन पर बसपा ध्यान लगाए बैठी है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में बसपा का चुनावी भविष्य कहीं से भी दीर्घजीवी नहीं दिखाई दे रहा है.

उसकी एकमात्र उम्मीद इसी पर टिकी है कि सपा में होनेवाले विभाजन से मुस्लिम समुदाय का वोट बसपा की झोली में गिर जाए. भाजपा भी यह कयास लगा रही है कि मुस्लिम वोटों का विभाजन उसे फायदा पहुंचा सकता है. मुख्यंमत्री पद के लिए किसी चेहरे का नहीं चुना जाना भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है, क्योंकि ऐसे में अखिलेश यादव की लोकप्रियता भाजपा पर भारी पड़ सकती है.

मुस्लिम वोटों की खींचतान में यूपी की पूरी सियासत उलझी पड़ी है. सारे दल इसी जद्दोजहद में लगे हैं कि कैसे मुस्लिम वोट हासिल हो. बसपा और कांग्रेस इसे लेकर अधिक आग्रही हैं. अखिलेश खेमे और कांग्रेस के गठबंधन की संभावनाएं बनी हुई हैं. कांग्रेस और सपा के बीच गठबंधन होता है, तो बसपा के मंसूबों पर पानी पड़ जाएगा, क्योंकि तब मुस्लिम वोट नहीं बिखरेगा.

अखिलेश यादव खुद भी यह कह चुके हैं कि कांग्रेस से चुनावी गठबंधन हो गया तो गठबंधन को 300 सीटें मिलेंगी. कांग्रेस, सपा के अखिलेश गुट के साथ जाने को अधिक प्राथमिकता दे रही है. उसकी वजह यह भी है कि सपा कांग्रेस के लिए सौ से अधिक सीटें छोड़ सकती है, जबकि मायावती इसके लिए राजी नहीं हुईं. बसपा अकेले ही चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है, जबकि कई बड़े दल उत्तर प्रदेश की राजनीति पर खासा प्रभाव छोड़ने वाले छोटे दलों को भी अपने साथ लेकर चलने का जतन कर रहे हैं.

यह सही भी है कि यूपी में रालोद, पीस पार्टी, ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन (एआईएमआईएम), आम आदमी पार्टी, शिवसेना, अपना दल, जनता दल (युनाईटेड), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, लोक जनशक्ति पार्टी, जनता दल (सेकुलर), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), इत्तेहाद-ए-मिल्लत जैसी छोटी पार्टियां अपनी सीट भले न जीतें, पर दूसरों को हराने की क्षमता जरूर रखती हैं, लिहाजा बड़े दल उनके साथ तालमेल कर चलना चाहते हैं.

तभी सपा ने अखिलेश की इच्छा को दरकिनार कर कौमी एकता दल का अपनी पार्टी में विलय कराया और भाजपा ने अपना दल या भारतीय समाज पार्टी के साथ तालमेल बनाया. छोटे दलों के कारण ही पिछले विधानसभा चुनाव में लगभग दो दर्जन सीटों पर सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशी एक हजार या उससे भी कम वोट से चुनाव हार गए थे.

उस चुनाव में रालोद नौ सीटों पर दूसरे स्थान पर, 14 पर तीसरे स्थान और पांच सीटों पर चौथे स्थान पर रहा था. पीस पार्टी तीन सीटों पर दूसरे स्थान पर, आठ सीटों पर तीसरे और 24 सीटों पर चौथे स्थान पर रही थी. इसके अलावा कौमी एकता दल ने एक सीट पर दूसरा स्थान, चार सीटों पर तीसरा और एक सीट पर चौथा स्थान प्राप्त कर कई बड़े दलों के प्रत्याशियों की जीत में बाधा डाल दी थी.

2012 के विधानसभा चुनाव में अपना दल ने 76 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे. अपना दल का केवल एक ही प्रत्याशी जीता, लेकिन अपना दल दो सीटों पर दूसरे, सात सीटों पर तीसरे और सात सीटों पर चौथे स्थान पर रहा. इसी तरह कई अन्य छोटे दलों ने भी व्यापक पैमाने पर बड़े दलों के वोट काटे थे. यही कारण है कि कोई भी बड़ा दल इन छोटे दलों की उपेक्षा नहीं कर सकता.

पर्वतीय प्रदेश में अंतर्विरोधों का पहाड़

उत्तराखंड में भी सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस अपनी सत्ता सलामत रखने के अथक प्रयास में लगी है. मुख्यमंत्री हरीश रावत भी इसी जुगत में हैं कि उनका मुख्यमंत्रित्व कायम रहे, लेकिन कांग्रेस पार्टी कई सारे अंतर्विरोधों से गुजर रही है. कांग्रेस पूरी ताकत झोंकने की कोशिश में कई समानान्तर ताकतों पर एक साथ जोर-आजमाइश कर रही है. पर्वतीय प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के दो किशोर आमने-सामने हैं. एक तरफ उत्तराखंड के प्रदेश अध्ययक्ष किशोर उपाध्याय तो दूसरी तरफ चर्चित चुनावी चाणक्य प्रशांत किशोर.

दो किशोरों के बीच बनी तल्खियों से कांग्रेस के जीत के आकलन पर सीधे सवाल उठ रहे हैं. कांग्रेस आलाकमान ने उत्तराखंड में हमेशा दो परस्पर विरोधी स्थितियां बनाए रखीं. मुख्यमंत्री हरीश रावत और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय के बीच का टशन लगातार सुर्खियों में रहा. अब दो किशोर आमने-सामने हैं, तो हरीश रावत राहत में हैं.

प्रदेश के मुख्यमंत्री और प्रदेश के पार्टी अध्यक्ष की तनातनी फरवरी 2014 से ही चल रही है. किशोर गुट कहता है कि मुख्यमंत्री हरीश रावत संगठन के मुताबिक नहीं, बल्कि अपनी मर्जी से सरकार चलाते हैं और अपने फैसलों के आगे पार्टी की प्राथमिकताओं को भी नहीं समझते. दूसरी तरफ मुख्यमंत्री के खेमे का कहना है कि किशोर उपाध्याय ही पार्टी के खिलाफ काम करते हैं.

इसी कारण 2012 के विधानसभा चुनाव में उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा था. एक निर्दलीय उम्मीमदवार से वे चुनाव हार गए थे. कांग्रेस आलाकमान ने अब प्रशांत किशोर (पीके) को विधानसभा चुनाव में प्रचार की कमान सौंपी है. हरीश रावत प्रशांत किशोर की तरफ खड़े हैं. चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर उत्तर प्रदेश और पंजाब में भी कांग्रेस के लिए सियासी सलाह देने और बिसात बिछाने का पवित्र कर्म कर रहे हैं.

कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव और उत्तराखंड की प्रभारी अंबिका सोनी मानती हैं कि प्रशांत किशोर पहाड़ी राज्य में कांग्रेस का बेड़ा पार कराने में कारगर साबित होंगे. अंबिका सोनी पंजाब कांग्रेस की प्रचार कमेटी की भी अध्यक्ष हैं. अंबिका सोनी ही सूत्रधार बनी हुई हैं. उन्होंने हिमाचल प्रदेश के परिवहन मंत्री जीएस बाली को भी चुनाव पर्यवेक्षक बना कर पर्वतीय कांग्रेसी सियासत में लाकर खोंस दिया है. इसे लेकर भी पहाड़ पर तमाम कानाफूसियां हो रही हैं.

दूसरी तरफ भाजपा भी कई अंतर्विरोधों से गुजर रही है. बड़े व्यक्तित्वों के छोटे-छोटे टकराव भाजपा को नुकसान पहुंचा रहे हैं. इसी का नतीजा है कि चुनाव की घोषणा हो गई, लेकिन अभी टिकटों को लेकर ही माथापच्ची बनी हुई है. भाजपा आलाकमान को भी एक निर्णय पर आने में दिक्कतें पेश आ रही हैं. टिकट वितरण की अंदरूनी रार अब सतह पर आ रही है.

केवल बसपा अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी है. कांग्रेस भी अनिर्णय की स्थिति में है. अपने ऐतिहासिक झगड़े में फंसी समाजवादी पार्टी उत्तराखंड को लेकर भी दो पाटों पर है. उत्तराखंड भाजपा में हरक सिंह रावत, अमृता रावत, शैलारानी रावत, सुबोध उनियाल, प्रदीप बत्रा जैसे बड़े बागियों के नाम आलाकमान के लिए विचारणीय हैं. बागियों को टिकट नए सिरे से तनाव और गुटबाजी बढ़ाएगा. इससे उलट कांग्रेस ने घर वापसी करने वालों और बागियों के लिए दरवाजे खोल दिए हैं.

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