adartन्यायिक सक्रियता के दौर में उत्तर प्रदेश की अदालतों में 50 लाख मुकदमों का लम्बित होना आश्चर्यजनक भी है और अत्यंत दुखद भी. बात-बेबात के मसलों पर अत्यधिक सक्रिय दिखने वाली अदालतें लम्बित मुकदमों से बोझिल होती अपनी फाइलें नहीं देखतीं, यह भारतीय लोकतंत्र की नकारात्मक विशेषता है. अदालतों से लेकर तमाम न्यायिक संस्थाएं तक इस बात के लिए औपचारिक दुख-तकलीफ जताती रहती हैं कि देश की जेलों में विचाराधीन कैदियों की भीड़ है लेकिन अपने गिरेबान में नहीं झांकतीं. जेलों में ठुंसी हुई भीड़ की प्रतियोगिता में उत्तर प्रदेश अव्वल है, इसीलिए लम्बित मुकदमों का रिकॉर्ड भी उत्तर प्रदेश की अदालतें ही कायम कर रही हैं. अदालतों से कोई पूछने वाला नहीं है, क्योंकि वे विशेषाधिकार सम्पन्न हैं. जिसने पूछा उसे अदालत की अवमानना के आरोप झेलने पड़ सकते हैं. खुद-मुख्तारी के अलग-अलग खेमों-खानों में देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था फंसी पड़ी है.

अदालतों में लम्बित मुकदमों का आंकड़ा आधिकारिक है. नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड की रिपोर्ट बताती है कि उत्तर प्रदेश की विभिन्न अदालतों में तकरीबन 50 लाख मुकदमे लटके पड़े हैं. महिलाओं को कानूनी संरक्षण के सियासी शोर के बरक्स सच यह है कि उत्तर प्रदेश की

अदालतों में महिलाओं से जुड़े लगभग सवा चार लाख से अधिक मुकदमे लम्बित हैं, जिनपर फैसला आना बाकी है. विचित्र तथ्य यह भी है कि छह लाख मामले 10 साल से भी अधिक समय से लम्बित पड़े हुए हैं और जज साहब के फैसले का इंतजार कर रहे हैं. इनसे सम्बन्धित अधिकांश लोग विचाराधीन कैदियों के रूप में बिना कोई फैसला आए जेल की सजा काट रहे हैं. फैसला आया और उसमें विचाराधीन कैदी दोषी नहीं पाया गया तो उसके जेल में बिताए गए 10 साल कौन सी अदालत लौटाएगी, इसकी कोई जवाबदेही भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में तय नहीं है.

नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड की रिपोर्ट कहती है कि कुल 49 लाख 68 हजार 190 मामले उत्तर प्रदेश की विभिन्न अदालतों के फैसले का इंतजार कर रहे हैं. इनमें दीवानी (सिविल) के 12 लाख 57 हजार 348 मामले और फौजदारी (क्रिमिनल) के 37 लाख 10 हजार 842 मामले लम्बित पड़े हैं. इन लम्बित पड़े मामलों पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश या सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की निगाह नहीं जाती. इन लम्बित पड़े मामलों पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की निगाह नहीं जाती. इन लम्बित पड़े मामलों पर मानवाधिकार के नाम पर किस्म-किस्म की दुकान चलाने वाली सामाजिक संस्थाओं की निगाह नहीं जाती. आम आदमी का न्याय अदालतों में बंधक बना हुआ है, उस पर लोकतंत्र के किसी भी पहरुए की निगाह नहीं जाती. ये सब अदालतों से डरते हैं. सत्ता पर बैठे या सत्ता पर बैठने का स्वप्न संजोते रहते नेताओं से ऐसे किसी साहस की तो उम्मीद भी नहीं की जा सकती. आप इन लम्बित पड़े मामलों के विस्तार में जाएं, और अगर आप संवेदनशील हैं, तो शायद आप ठीक मानसिक संतुलन में नहीं रह पाएंगे. न्याय की प्रतीक्षा करते लोगों की अथाह पीड़ा आपको अत्यंत विचलित कर देगी. मन में स्वाभाविक सवाल उठेगा कि आम आदमी इस पीड़ा को इतनी संजीदगी से महसूस कर रहा तो अदालतें क्यों नहीं महसूस कर रहीं.

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न्यायाधीशों की श्रृंखला इससे विचलित क्यों नहीं हो रही! यह विडम्बना ही तो है! मुजफ्फरनगर के कांकड़ा गांव के रहने वाले किसान रामपाल कोई अकेले व्यक्ति नहीं हैं जो पिछले 10 साल से खेत के विवाद को लेकर अदालत में मुकदमा लड़ रहे हैं. खेत बंधक पड़ा है. उसकी वजह से किसान का परिवार भी बंधक पड़ा हुआ है, लेकिन अदालत कोई फैसला नहीं कर रही. रामपाल की पीड़ा में तमाम लोगों के कष्ट की आवाज सुनाई देगी जब वे यह कहते हैं कि 10 बरस से वे पेशी पर हाजिर हो रहे हैं और अगली तारीख लेकर घर चले जाते हैं और अगली तारीख पर फिर अदालत आने की तैयारी करने लगते हैं. कभी दूसरे पक्ष का आदमी नहीं आता, कभी मुकदमा लड़ने वाला वकील नहीं आता, कभी जज नहीं आते, कभी इसकी तबीयत खराब, कभी वह बीमार, कभी वकील हड़ताल पर तो कभी जज छुट्‌टी पर, इसी चक्कर में मुकदमे घिसटते रहते हैं और अदालतें उन पर निर्णायक रुख अख्तियार कर मामले निपटाने में भी कोई रुचि नहीं दिखातीं. वकील पैसे वसूलता रहता है और मुद्दई चुसता रहता है. हाईकोर्ट के एक अधिकारी ने कहा कि न्यायाधीशों के 160 पद हैं, लेकिन कार्यरत जजों की संख्या केवल 72 है. इस तरह अन्य अदालतों में भी जजों के पद खाली पड़े हुए हैं. इस वजह से भी ढेर सारे मुकदमे लम्बित हैं. प्रदेश की कई निचली अदालतों में कम्प्यूटरीकरण का काम भी नहीं हुआ है, जिस वजह से पारदर्शिता नहीं आ पा रही और काम भी तेजी से नहीं हो पाता. 

न्याय की फाइलों को लम्बित रखने का फैशन केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि कई दूसरे राज्यों में भी है. इसके लिए राज्य सरकारों का लचर रवैया भी दोषी है. सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति में ढिलाई के कारण भी लम्बित मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. आंकड़े बताते हैं कि देश के सभी हाईकोर्ट में जजों के 984 पद स्वीकृत हैं, लेकिन इनमें 382 पद खाली पड़े हैं. अधिनस्थ न्यायालयों में न्यायिक अधिकारियों के 19 हजार 756 पद स्वीकृत हैं, लेकिन इनमें 4356 पद खाली पड़े हैं. 2015 का आधिकारिक आंकड़ा है कि देश की अदालतों में तीन करोड़ 70 लाख पांच हजार से अधिक मुकदमे लम्बित हैं. इनमें सुप्रीम कोर्ट में 63 हजार 843 और देश के 24 उच्च न्यायालयों में 44 लाख 62 हजार 957 मामले विचाराधीन लम्बित पड़े हैं. अधिनस्थ अदालतों में तो लम्बित मुकदमों का आंकड़ा दुर्गंध देने लगा है. अधिनस्थ न्यायालयों में दो करोड़ 68 लाख 88 हजार 405 मुकदमे लम्बित हैं. दुनिया के किसी अन्य देश में न्यायिक दुर्गति का ऐसा दृश्य देखने को नहीं मिलेगा.

 

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